अपने मौलिक इतिहास की मूल चेतना को खोजता हुआ भारत आज इतिहास लेखन को लेकर नई करवट लेता दिखाई दे रहा है। कई लोगों को इस बात से बड़ी बेचैनी हो रही है कि भारत में इतिहास के पुनर्लेखन की मांग क्यों हो रही है और क्यों इस पर कार्य हो रहा है? हमें अपने वैभव पूर्ण अतीत को जानने के लिए निश्चित रूप से अपने इतिहास का पुनर्लेखन करने की आवश्यकता है । यदि हम अपनी भाषा और अपने भाषा के शब्दों से बने शहरों, स्थानों, भवनों के नामों को जानेंगे तो हमें इतिहास चेतनित और झंकृत करता हुआ दिखाई देगा। इसी से भारत आत्मसाक्षात्कार करता हुआ दिखाई देगा।
नामों के परिवर्तन को लेकर अलबरूनी नामक एक विदेशी लेखक एक स्थान पर लिखता है “जब कोई विभाषी विदेशी जाति पर अधिकार कर लेती है तो उनकी जिव्हाऐं शब्दों को चीरती फाड़ती हैं और इस प्रकार उनको अपनी भाषा में परिवर्तित कर देती हैं । ….. इस प्रकार पुराने नामों के अनुवाद के रूप में नए नाम पैदा हो जाते हैं।… या दूसरे बर्बर लोग स्थानीय नामों को लेते और बनाए रखते हैं, परंतु ऐसी ध्वनियों के साथ और ऐसे रूपों में जो कि उनकी जिव्हा के लिए उपयुक्त हैं जैसे कि अरबी लोग विदेशी नामों को अरबी बनाने में करते हैं। ये नाम उनके मुंह में कुरूप हो जाते हैं।”
प्रोफेसर मैक्समूलर ‘हम भारत से क्या सीखें’ नामक अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि ‘हम लोगों की परंपरा दूसरी है। यूनानी एवं लैटिन भाषा में पाठांतर को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है, परंतु भारत की गुरु शिष्य परंपरा में यह पाठांतर यथावत बने रहते हैं।’
आगरा का प्राचीन नाम सारवल था । जिससे बिगड़ कर सरबन ग्राम हो गया। दिल्ली संग्रहालय शिला0 सं0 1384 में उल्लिखित है कि कभी इस शहर का नाम अग्रोतक भी रहा। इसी से आगरा शब्द बन गया। इसी प्रकार पंजाब का अग्रोहा कभी अग्रोदक हुआ करता था। गुजरात के बड़ोदरा के बारे में जानकारी मिलती है कि यह कभी अंकोट्टक था। जिससे अकोटा शब्द हो गया। प्राचीन काल में कभी इसको वडपत्रक भी कहा जाता था। आज हमें श्री रामचंद्र जी महाराज के परम सहयोगी रहे अंगद के कारूपथ देश की राजधानी अंगदीया का नाम शाहाबाद के रूप में मिलता है। इसी प्रकार कभी अचलगढ़ के नाम से प्रसिद्ध रहा परमारों का गढ़ आजकल आबू पर्वत के रूप में जाना जाता है।
इतिहास में जिन एलोरा अजंता की गुफाओं का विशेष उल्लेख किया जाता है और जिसे आजकल भी विदेशी बड़ी संख्या में देखने के लिए आते हैं , वह कभी अजेंठा के नाम से विख्यात था। इसको अचिंत्य विहार कहा जाता था। राजस्थान का अजमेर कभी अजयमेरू के नाम से जाना जाता था । चाहमान पृथ्वीराज की यह राजधानी रही थी। आज भी यहां पर पृथ्वीराज चौहान की राजधानी अजय मेरु में आपका स्वागत है, ऐसा लिखा मिलता है। यहां पर स्थित रही विग्रहराज की प्रसिद्ध विद्यापीठ को कुतुबुद्दीन ऐबक ने विनष्ट कर एक मस्जिद में परिवर्तित कर दिया था। यह विद्यापीठ अपने दुर्भाग्य पर आज तक आंसू बहा रही है।
परमार नरेशों ने अपना सीमांत मुख्यालय अटलपुर को बनाया था। जिसे आजकल अटरू के नाम से जाना जाता है। यह राजस्थान में स्थित है। इस स्थल पर परमारों के कला प्रेम के पुरावशेष आज भी उपलब्ध होते हैं। परमार राजा जयसिंह और नरवर्मन के यहां पर शिलालेख प्राप्त हुए हैं। गुजरात का अन्हिलवाड़ा कभी अणहिल्लपाटक, अणहिल्लपर के नाम से जाना जाता था। यह नगर पाठांतर से पट्टण पुर हो गया।
चाप व चावड़ा राज्य वंश की एक शाखा के संस्थापक वनराज द्वारा इसे 745 ईसवी में अपने मित्र अणहिल रैवारी के नाम पर स्थापित किया गया था। बाद में यह चौलुक्य नरेश मूलराज प्रथम की राजधानी बना । राजा मूलराज ने यहां पर दो मंदिर निर्मित किए। महमूद गजनवी के आक्रमण के समय भीमदेव प्रथम (1022 से 1072 ईसवी तक) यहां पर शासन कर रहा था।
आजकल के दतिया( मध्य प्रदेश) को कभी अधिराज के नाम से जाना जाता था। कश्मीर के श्रीनगर को कभी अधिष्ठान के नाम से मान्यता प्राप्त थी। कश्मीर की राजधानी को अधिस्तान के नाम से अलबरूनी ने उल्लेखित किया है । आज के पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद को कभी अनंतनाग के नाम से जाना जाता था। स्वाधीनता से पूर्व यह शहर भारत के ही शहरों में गिना जाता था । यह कभी कश्मीर की राजधानी भी रही थी । जिसका उल्लेख नीलमत पुराण में हमें प्राप्त होता है ।15 वी शताब्दी से इसे इस्लामाबाद के नाम से जाना गया।
राजस्थान का आमेर कभी अम्बावती के नाम से जाना जाता था। जयपुर की सुरक्षा प्राचीरें जयपुर से मिलती हैं। कभी इसको अंबर ,अंबेर के नाम से भी जाना जाता था। इसके विषय में पता चलता है कि सूर्यवंशी सम्राट मांधाता के पुत्र अंबरीष द्वारा इसे प्रतिष्ठित किया गया था। भविष्य पुराण में इसे अंबर के नाम से उल्लिखित किया गया है । कर्नल टॉड के अनुसार कच्छवाहों के अधिकार से पूर्व कालीखोह की मीणा जाति द्वारा आमेर का निर्माण किया गया। सवाई जयसिंह द्वितीय 1700 ई0 में आमेर के सिंहासन पर बैठा। अंत में आमेर के राजा भारमल ने मुगलों की सहायता से उस नगर का विनाश किया। वह आमेर के राजाओं में प्रथम शासक था, जिसने मुस्लिम सत्ता के समक्ष उसकी सर्वोच्चता स्वीकार कर ली। सबसे पहले भारमल ने अपनी पुत्री का विवाह अकबर के साथ किया। फिर उसके पुत्र भगवंत दास ने सलीम के साथ अपनी कन्या का विवाह किया। अकबर का सेनानायक राजा मानसिंह भगवंत दास का पुत्र था।
गुजरात का अमरेली नामक शहर कभी अम्रीलिका के नाम से जाना जाता था । पाठ भेद से अब इसे अमरेली के नाम से जाना जाता है। संसार की सबसे पहली राजस्थानी अवध आजकल अयोध्या के नाम से जानी जाती है। इसे कभी अपराजिता, कोशला, साकेत, विशाखा, नंदिनी, विनीता के नाम से भी जाना गया है। इक्ष्वाकु भूमि और दशरथ पुरी के नाम से भी इसका पुराणों में उल्लेख मिलता है। अयोध्या एवं साकेत अभिन्न नाम हैं। रघुवंश में साकेत अयोध्या के पर्याय रूप में प्रयुक्त किया गया है।
रामायण में इसके विषय में स्पष्ट लिखा है कि इसका निर्माण मनु वैवस्वत ने किया था और यह उनकी स्वयं की और उनके पश्चात उनके वंशजों की राजधानी रही थी। परम प्रतापी शासक मांधाता और सगर के शासनकाल में अयोध्या का राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर था । उनके अतिरिक्त भगीरथ, अंबरीष, दिलीप और दशरथ के पुत्र श्री राम अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट हुए हैं। दिलीप के समय में अयोध्या राज्य का नाम कोशल हो गया था। दशरथ ने यहां दो अश्वमेध यज्ञ संपन्न किए थे। मुसलमानों ने अपने शासनकाल में इसे फैजाबाद का नाम दिया। अयोध्या का इतिहास भारत का नहीं, संपूर्ण भूमंडल का इतिहास है। इतिहास का पुनर्लेखन इसीलिए आवश्यक है कि जब हम अपने अतीत के गौरवपूर्ण पृष्ठों को स्पष्टतया समझने लगेंगे तो हमें बहुत सारे भेद समझ आने लगेंगे।
अरुणकुंडपुर का नाम आजकल वारंगल मिलता है। इसी प्रकार आबू पर्वत भी अपने मूल रूप में अर्बुद पर्वत के नाम से भी जाना जाता रहा है। यह अरावली पर्वतमाला में स्थित है। कभी का अवंतिका कालांतर में अवंती, अवंतीपुर बना और आजकल इसी को हम उज्जैन के नाम से जानते हैं।
(यह सारी जानकारी हमने ‘भारतवर्षीय ऐतिहासिक स्थलकोश’ के आधार पर प्रस्तुत की है। जिसे डॉ यशवंत सिंह कठोच द्वारा लिखा गया है। )
डॉ राकेश कुमार आर्य
( इतिहास लेखक भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता और राष्ट्रवादी इतिहासकार हैं। )