डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने भारत वर्ष के दलित, शोषित और उपेक्षित समाज के लोगों के कल्याण के लिए जीवन भर संघर्ष किया। इसका कारण यह भी था कि उन्होंने स्वयं ने एक जाति विशेष में पैदा होकर इस बात को निकटता से अनुभव किया था कि दलन, उपेक्षा और शोषण का व्यक्ति के मानस पर और उसकी आत्मा पर क्या प्रभाव पड़ता है? सामाजिक उपेक्षा और तिरस्कार की पीड़ा को उन्होंने बड़ी निकटता से देखा और झेला था । वास्तव में वह भारत की उस वैदिक संस्कृति में आए विकारों को दूर करने का एक सफल और सार्थक प्रयास कर रहे थे, जो अपने मौलिक स्वरूप में सबको साथ लेकर चलने और सबका विकास करने में विश्वास रखती है। उन्होंने देश के दलित, शोषित और उपेक्षित समाज के लोगों के कल्याण के लिए जो कुछ भी कहा या किया उस पर कौन व्यक्ति उनका विरोध कर रहा है या कितनी बड़ी ताकत उनका विरोध करने के लिए मैदान में उतर आई है? – इस बात का कभी उन्होंने विचार नहीं किया। उनके विषय में सत्य ही है:-
कौन विरोधी बन रहा किस का समर्थन मौन?
है कौन हमारे साथ में दूर खड़ा हुआ कौन?
चिंतन में लाया नहीं भाव कभी कोई हीन।
वीर भाव से बढ़ते रहे तेज हुआ नहीं क्षीण।।
वास्तव में उनकी महानता इसी बात में छुपी हुई थी कि उन्होंने अपने इरादों को किसी ताकत की आंधी के प्रबल वेग के सामने भी झुकने नहीं दिया। आज जो लोग डॉ. भीमराव अम्बेडकर का नाम लेकर कहीं सेनाएं गठित कर रहे हैं तो कहीं राजनीतिक दल गठित कर रहे हैं और दलित, शोषित और उपेक्षित समाज के ठेकेदार बनकर हिन्दू समाज को बांटने की राजनीति में लगे हुए हैं, उन्हें डॉ. अम्बेडकर के व्यक्तित्व का या तो पूर्ण ज्ञान नहीं है या ज्ञान होकर भी वह उनके व्यक्तित्व के उस महान गुण की उपेक्षा करने में लगे हैं, जिसके कारण वह समग्र हिन्दू समाज के और भारतवर्ष के महान नायक थे। ऐसे लोगों को यह ज्ञात होना चाहिए कि जब सन 1932 में भारतवर्ष की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने दलित समाज के लोगों के लिए अलग से मतदाता सूची बनाने का निर्णय लिया तो डॉ. अम्बेडकर जैसे राष्ट्रवादी व्यक्ति को यह समझने में तनिक भी देर नहीं लगी कि इससे हिन्दू समाज का बंटवारा होना निश्चित है । जिसका लाभ इस्लाम और ईसाइयत मिलकर उठाएंगे । वे नहीं चाहते थे कि किसी भी दृष्टिकोण से हिन्दू समाज दुर्बल हो ।
यही कारण था कि वह अंग्रेजों की इस कुटिल नीति के विरोध में मैदान में उतर आए। यह कितनी बड़ी बात है कि डॉ. अम्बेडकर हिन्दू समाज की जिस ‘ब्राह्मणवादी व्यवस्था’ से दु:खी और त्रस्त थे वह उसी हिन्दू समाज के भीतर रहकर हरिजन समाज के लोगों के अधिकारों की लड़ाई लड़ना उचित समझते थे । पर किसी भी दृष्टिकोण से हिन्दू समाज को दुर्बल कर माँ भारती को क्षति पहुँचाना उचित नहीं मानते थे । सचमुच उनके नाम पर राजनीति करने वाले आज के तथाकथित अम्बेडकरवादियों को इस बात पर निश्चय ही चिन्तन करना चाहिए ।
सनातन के पोषक थे अम्बेडकर
डॉ. अम्बेडकर ने ब्रिटिश सरकार की उपरोक्त कुटिल नीति का विरोध करने के लिए पण्डित मदन मोहन मालवीय और गांधी जी से मिलकर समझौता किया। जिसे इतिहास में ‘पूना पैक्ट’ के नाम से जाना जाता है। उनके इस प्रकार के आचरण और व्यवहार से पता चलता है कि डॉ. अम्बेडकर उस सामाजिक व्यवस्था के विरोधी थे जो किसी वर्ग विशेष को जाति के नाम पर उपेक्षित करती थी । इसके विपरीत वह इस बात के समर्थक थे कि कोई भी व्यक्ति जन्मना दलित और शोषित पैदा नहीं होता । वास्तव में वैदिक संस्कृति के मानवीय मूल्य और सांस्कृतिक आदर्श भी इसी विचार पर टिके हुए हैं कि समाज में ऐसी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए कि किसी व्यक्ति को अपने आत्मविकास के अवसर उपलब्ध ही न होने पाएं । डॉ.अम्बेडकर सनातन के इस शाश्वत मूल्य को अपनाकर उसे हवा और पानी देकर पुष्पित और पल्लवित करने के समर्थक थे। वह शाखाओं को तोड़ना नहीं चाहते थे, बल्कि सनातन के विराट वृक्ष का एक अंग बनकर जीवित रहना चाहते थे । वह समाज व संसार को यह सन्देश देना चाहते थे कि सनातन के सांस्कृतिक मूल्यों से ही मानवता की रक्षा हो सकती है । याद रहे कि उन्होंने बौद्ध धर्म को सनातन का ही एक अंग समझ कर उसे स्वीकार किया था। इस प्रकार बाबासाहेब अम्बेडकर सनातन के विरोधी न होकर सनातन के सुरक्षा प्रहरी थे और उनका दृष्टिकोण व चिन्तन एक समाज सुधारक के रूप में कहीं अधिक प्रखर था।
स्वाधीनता के पश्चात डॉ. अम्बेडकर के विचारों को लेकर जिन लोगों ने राजनीति करनी आरम्भ की उन्होंने सनातन को गाली देना अपना शौक बना लिया। सनातन का अपमान करना उन्होंने अपनी राजनीति का एक अनिवार्य अंग घोषित किया । मुस्लिमों या अंग्रेजों के शासनकाल में हुए हिन्दू जाति के विनाश पर कोई शोध न करके या उस पर प्रहार न करके केवल और केवल सनातन संस्कृति को इस बात के लिए कोसना आरम्भ किया कि भारत की सामाजिक विसंगतियों की सारी समस्याएं इस सनातन संस्कृति में ही छुपी हुई हैं । जबकि होना यह चाहिए था कि सनातन संस्कृति में आए किसी भी प्रकार के दोषों या विकारों को दूर करने के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं के रूप में सुधारक या चिकित्सक तैयार किये जाते , जो समाज को यह बताते कि अमुक–अमुक दोषों या विकारों को दूर करो और सब एक साथ एक स्वर से एक दिशा में आगे बढ़ो। समाज के विखंडन को प्रोत्साहित करने के लिए विदेशी शक्तियों ने भी हमारे बीच मतभेद बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । अनेकों संगठन और विदेशी सोच को मानने वाले मजहबी लोग हिन्दू समाज को विखंडित करने की घृणास्पद चालों में सम्मिलित हो गए । उन्होंने ही ‘जय भीम और जय मीम’ जैसे उस समाजद्रोही नारे को गढ़ा जो भारत के वैदिक धर्मावलंबियों में विखंडन के बीज बोता है।
दलितों के उद्धारक डॉ. अम्बेडकर
सन् 1927 में डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू समाज में प्रचलित छुआछूत की भावना को समाप्त करने के लिए एक आन्दोलन चलाने का निर्णय लिया । उन्होंने छुआछूत की भावना को सामाजिक अभिशाप घोषित किया । जो लोग इस प्रकार की अमानवीय सोच में विश्वास रखते थे उनको एक योद्धा की भांति ललकारा । उन्होंने मन्दिरों में दलितों के प्रवेश पर लगी रोक को हटाने के लिए संघर्ष किया और जिन स्थानों पर पहुँचकर दलित समाज के लोग पानी तक नहीं पी सकते थे, उन पर उनके पहुँचने के लिए आन्दोलन किया। उनकी मान्यता थी :-
सर्वत्र प्रभु का वास जगत में
सब में उसकी ही ज्योति है।
जहाँ इस नियम का उपहास
बने वहाँ मानवता रोती है ।।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक ऐसे समाज की परिकल्पना करते थे जो सभी लोगों के लिए विकास के समान अवसर उपलब्ध कराने में विश्वास रखता हो। वह चाहते थे कि लोग स्वाभाविक रूप से एक दूसरे के अधिकारों का सम्मान करना आरम्भ करें। वास्तव में उनका यह चिन्तन वेद के चिन्तन के अनुकूल था । जिसमें मनुष्य मनुष्य बन कर दिव्यता के विचारों में स्वयं को ढाल कर एक दूसरे का सहायक होकर वेद के संगठन सूक्त को अपने भीतर धारण कर चलने में विश्वास रखता है। वैदिक संस्कृति में वर्ण व्यवस्था ना तो किसी जाति की समर्थक है और ना ही जातिवाद को बढ़ावा देने वाली व्यवस्था है। उसमें व्यक्ति के कौशल और व्यक्तित्व के गुणों का सम्मान करते हुए उसे सम्मान पूर्ण जीवन जीने का अवसर प्रदान किया जाता है। इसी बात को देश, काल और परिस्थिति के अनुसार डॉ. अम्बेडकर वर्ग विहीन समाज की संज्ञा दे रहे थे । अच्छी बात होती कि डॉ. अम्बेडकर के वर्गविहीन समाज के सपने को वेद की वर्ण–व्यवस्था के अनुकूल सिद्ध किया जाता और यह बताया जाता कि वर्ण व्यवस्था में ना तो कोई जातिवाद है, ना जाति है, ना जातिसूचक सम्बोधन है और ना ही किसी प्रकार की छुआछूत की भावना है।
डॉ. अम्बेडकर का वर्णविहीन समाज
डॉ. अम्बेडकर का सपना था कि समाज को श्रेणीविहीन और वर्णविहीन करना होगा । वह इस बात को बड़ी गहराई से समझते थे कि जिन लोगों ने समाज में श्रेणियां या वर्ण के आधार पर वर्ग स्थापित कर लिए हैं उन लोगों ने ही इस देश के सामाजिक ढांचे का सत्यानाश किया है । यही कारण था कि अम्बेडकर साहब सामाजिक विसंगति से पार पाना चाहते थे । जबकि आज उनका नाम लेकर राजनीति करने वाले लोग किसी वर्ग विशेष की राजनीति करते हैं और अपने मंचों से खड़े होकर हिन्दू समाज की शेष जातियों को गाली देते हैं । यदि उनकी इस प्रकार की दूषित मानसिकता और राजनीति को डॉ.अम्बेडकर की आत्मा कहीं से देखती होगी तो निश्चय ही बहुत दु:खी होती होगी, क्योंकि उनका सपना ऐसा कदापि नहीं था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक ‘भारत को समझो’ अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता और सुप्रसिद्ध राष्ट्रवादी इतिहासकार हैं।)
मुख्य संपादक, उगता भारत