निष्पक्ष लेखनी की आवश्यकता
प्रो. गोल्डविन स्मिथ का कहना है-”प्रत्येक राष्ट्र अपना इतिहास स्वयं ही उत्तम रूप से लिख सकता है। वह अपनी भूमि, अपनी संस्थाओं अपनी घटनाओं के पारंपरिक महत्व और अपनी महान विभूतियों के संबंध में सबसे अधिक ज्ञान रखता है। प्रत्येक राष्ट्र का अपना विशिष्ट दृष्टिकोण होता है, अपनी पूर्व घटनाएं, अपना आत्मप्रेम होता है, इन्हें दूसरों के निष्पक्ष तथा विरोधी विचारों द्वारा सही करने की आवश्यकता होती है।”
वास्तव में ही भारत के इतिहास की अनूठी विशेषता है, उसका अपना अनूठा और विशिष्ट दृष्टिकोण है-जिसे केवल तीन शब्दों में प्रकट किया जा सकता है-‘विजय, वीरता और वैभव का इतिहास।’
इतिहास की इसी विशिष्टता को हमारे कितने ही महापुरूषों ने और क्रांतिकारी इतिहास पुरूषों ने समय-समय पर वैशिष्टय प्रदान किया और उसके अनूठेपन को और भी अधिक धार दी।
दुर्गादास राठौड़ का परिचय
एक ऐसा ही इतिहास पुरूष था-दुर्गादास राठौड़। जिस समय दिल्ली पर शाहजहां मुगल बादशाह की सत्ता स्थापित थी उस समय 1638 ई. में राठौड़ वंश के करणोत कुल में दुर्गादास राठौड़ का जन्म हुआ था। उसके पिता आसकरण पर जोधपुर के शासक महाराजा जसवंतसिंह की विशेष कृपा थी। यही बालक दुर्गादास राठौड़ अपने पिता के संस्कारों को सीखते-समझते और उन्हें जीवन में अपनाते हुए आगे बढऩे लगा। महाराजा जसवंतसिंह के मृत्यु समय उन्हें कोई पुत्र नही था। उस समय उनकी रानी यादवणजी गर्भवती थी, जो अपने पति की मृत्यु का समाचार सुनकर पेशावर से दिल्ली आ रही थी-तो रानी को मार्ग में ही प्रसव पीड़ा होने लगी।
रानी पर ईश्वर की कृपा हुई और जोधपुर को रानी के गर्भ से जन्मे पुत्र के रूप में अपना उत्तराधिकारी मिल गया। तब उस नवजात शिशु की रक्षा एवं मारवाड़ राज्य का राजकाज दुर्गादास राठौड़ ने संभाला और उस वीर ने अपनी शूरवीरता और स्वामीभक्ति से लोगों का मनमोह लिया।
सर यदुनाथ सरकार ने लिखा है-”बालक राजकुमार अजीतसिंह की जिंदगी लोभी और धोखेबाज संरक्षक औरंगजेब के हाथों में सुरक्षित नही थी। महाराजा के उत्तराधिकारी को बचाने के लिए राजपूत सरदारों ने जान की भी बाजी लगाने का संकल्प ले लिया था। राजपूत सरदारों में त्याग तथा बलिदान से भरी बहादुरी के उपरांत भी उन्हें दुर्गादास जैसे शूरवीर के संरक्षण की आवश्यकता थी।
बालक दुर्गादास राठौड़ की शिक्षा-दीक्षा बड़े ही ध्यानपूर्वक पिता आशकरण ने कराई, जिसका परिणाम यह हुआ कि बालक दुर्गादास शीघ्र ही राजनीति में रूचि दिखाने लगा। उसने औरंगजेब के पुत्र अकबर से मित्रता की और उसे अपने पिता के विरूद्घ ही बगावत कराने में सफल रहा। अकबर का यह विद्रोह असफल रहा, क्योंकि वह कोई बुद्घिमान शाहजादा नही था। उसकी असफलता की स्थिति में यह निश्चित था कि बादशाह औरंगजेब उसका वध करा देता। तब उसे बादशाह के यहां से सुरक्षित निकालकर दक्षिण में शम्भाजी के पास पहुंचाने वाला व्यक्ति भी दुर्गादास राठौड़ ही था।
संस्कारित दुर्गादास राठौड़
दुर्गादास राठौड़ एक संस्कारित हिंदू योद्घा था। उसका अपने धैर्य और धर्म की नैतिक व्यवस्था में अटूट विश्वास था और कदाचित उसका अपने धर्म की नैतिक व्यवस्था के प्रति समर्पण ही एक कारण था-जिसने उसे महान बनाया। जब शाहजादा अकबर दिल्ली से दक्षिण की ओर भगाया गया तो उसकी पुत्री और पुत्र मारवाड़ में ही रह गये। दुर्गादास राठौड़ ने अपने मित्र अकबर के प्रति पूर्ण निष्ठा दिखाते हुए उसकी पुत्री तथा पुत्र को अपनी संतान की भांति पाला पोसा। उनके लिए अलग से इस्लामी शिक्षा की व्यवस्था की गयी। जब वे बच्चे बड़े हो गये तो उन्हें उसने सादर औरंगजेब को सौंप दिया था।
दुर्गादास का समकालीन मुगल शासक औरंगजेब अपनी क्रूरता के लिए इतिहास में प्रसिद्घ है। उस जैसे शासक के विरूद्घ इतना साहस करना साहस को भी परास्त करने के समान था।
जसवंतसिंह से भी ईष्र्या करता था औरंगजेब
औरंगजेब और महाराजा जसवंतसिंह के संबंध प्रारंभ में बहुत ही मित्रतापूर्ण थे। दोनों एक दूसरे का सम्मान करते थे, परंतु जब शाहजहां के उत्तराधिकारियों में सत्ता संघर्ष आरंभ हुआ तो राजा जसवंतसिंह ने हिंदुओं के और हिंदू धर्म के प्रति अपेक्षाकृत अधिक उदार और सहिष्णु शाहजादे दाराशिकोह और उसके भाई शुजा को अपना समर्थन प्रदान किया। महाराजा दाराशिकोह के प्रति इसलिए भी आकर्षित था कि बादशाह शाहजहां भी अपने उत्तराधिकारी के रूप में दारा को ्रस्थापित करना चाहता था।
उत्तराधिकार के रक्तिम संघर्ष में अंतिम विजय औरंगजेब की हुई और शाहजहां को औरंगजेब ने उठाकर आगरा के लालकिले में बंदी बना लिया। अब जब औरंगजेब ने शासन करना आरंभ किया तो स्वाभाविक था कि दाराशिकोह और शुजा के शुभचिंतकों के प्रति उसकी घृणा छलकती। इसलिए उसने कूटनीति से काम लेते हुए महाराजा जसवंतसिंह को दिल्ली से दूर रखने की नीति पर काम करना आरंभ किया। उसे कभी गुजरात तो कभी काबुल व कंधार और कभी दक्षिण में भेजा जाता रहा।
दुर्गादास उस समय की कुटिल और क्रूर राजनीति से तथा मुगल शासकों की हिंदू विनाशक नीतियों से भली प्रकार परिचित था। इसलिए उसे यह भली प्रकार अनुभव था कि औरंगजेब उसके महाराजा को राजधानी दिल्ली से दूर क्यों रख रहा है और इस दूर रखने की नीति का क्या संभावित परिणाम हो सकता है? फलस्वरूप वह अपने महाराजा की सुरक्षा के दृष्टिगत सदा उनके साथ रहने लगा।
जब महाराजा ने की रूमाल से छाया
एक बार महाराजा जसवंतसिंह और दुर्गादास राठौड़ जमरूद में थे। तब एक दिन वे दोनों जंगल में शिकार खेलने के लिए गये। शिकार खेलते-2 किसी कारण से वे एक दूसरे से बिछड़़ गये। दुर्गादास कुछ देर पश्चात हार-थककर एक वृक्ष के नीचे लेट गया, कुछ ही क्षणों में उसे मीठी निद्रा ने आ घेरा। वह गहरी नींद में सो गया। संयोगवशात कुछ समयोपरांत महाराजा जसवंतसिंह अपने साथियों के साथ उसी वृक्ष के नीचे आ गये। तब महाराजा ने देखा कि दुर्गादास राठौड़ बड़ी गहरी नींद में सोया पड़ा है और उसे यह भी ज्ञात नही है कि उसके चेहरे पर धूप आ गयी है तो महाराजा स्वयं अपने घोड़े से उतरकर उसके पास गये और अपने रूमाल को उसके चेहरे पर ढांप दिया। इस पर उनके अन्य साथियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनमें से किसी एक ने पूछ ही लिया कि आपने ऐसा क्यों किया?
तब महाराजा ने कहा कि दुर्गादास राठौड़ अत्यंत प्रतिभाशाली है उसके विषय में तुम नही जानते। मेरा मानना है कि जैसे आज उसके चेहरे की धूप से छाया मेरे रूमाल ने की है, वैसे ही वह भी एक दिन संपूर्ण मारवाड़ की रक्षा करेगा।
….और समय आने पर दुर्गादास राठौड़ ने अपने स्वामी के अपने प्रति कहे गये उक्त कथन को सत्य सिद्घ कर दिखाया।
औरंगजेब ने रचा षडय़ंत्र
औरंगजेब ने अपने क्रूर और षडय़ंत्रकारी स्वरूप का परिचय देना आरंभ कर दिया। उसने महाराजा जसवंतसिंह को क्षति पहुंचाने के लिए और उसे अपने भाई दारा व शुजा का साथ देने के विरोध में दंडित करने के लिए षडय़ंत्र रचने आरंभ कर दिये। औरंगजेब ने महाराजा के एकमात्र पुत्र पृथ्वीसिंह को अपने दिल्ली दरबार में बुला लिया। पृथ्वीसिंह अत्यंत शूरवीर था उसने औरंगजेब के सामने भरे दरबार में एक शेर से द्वंद्व-युद्घ किया और नि:शस्त्र रहकर शेर को बीच से फाड़ दिया था। उस समय पृथ्वीसिंह की मां भी उसके साथ थी।
मां ने कहा-निहत्थे शेर से निहत्था ही लडऩा होगा
जब औरंगजेब ने पृथ्वीसिंह को मारने के उद्देश्य से शेर से भिडऩे की बात कही तो पृथ्वीसिंह अपने हाथ में कटार लेकर शेर की ओर बढ़ा। तब पृथ्वीसिंह की माता ने कडक़कर कहा-”वत्स! देखिए तो सही शेर पर तो कोई हथियार नही है इसलिए नि:शस्त्र पर नि:शस्त्र रहकर ही हमला करो। यह वीरों के लिए उचित नही है कि नि:शस्त्र के साथ शस्त्र लेकर युद्घ करे।”
तब पृथ्वीसिंह बिना हथियार के ही शेर की ओर बढ़ा और उसने वह चमत्कार कर दिखाया जिसे केवल भारत माता का कोई पृथ्वीसिंह ही कर सकता था।
औरंगजेब पृथ्वीसिंह की इस अप्रत्याशित वीरता और सफलता को देखकर दंग रह गया। वह सोचता था कि इस द्वंद्व युद्घ में वह अपने शत्रु को समाप्त कर देगा, परंतु उसकी आशाओं पर पानी फिर गया।
औरंगजेब ने करा दिया पुत्र और पिता का अंत
तब उसने दूसरी युक्ति निकाली और पृथ्वीसिंह को विष देकर समाप्त करा दिया। इस प्रकार एक हिंदू वीर को क्रूर और सताने अपनी क्रूरता का निवाला बना लिया। इससे औरंगजेब निश्चिंत हो गया कि अब महाराजा जसवंतसिंह जीवित रहकर भी मृतक के समान हो जाएंगे। क्योंकि उन्हें अपनी मृत्यु के पश्चात अपने राज्य का भविष्य नितांत भयावह दिखायी देने लगेगा और वह चाहकर भी कुछ नही कर पाएंगे। जब महाराजा जसवंतसिंह को इस दुखद घटना की जानकारी हुई तो उन्हें इतना कष्ट हुआ कि उनकी मृत्यु हो गयी। वह अटक के उस पार रहकर ही मृत्यु का ग्रास बन गये।
भारत के तत्कालीन हिंदू समाज के लिए इन दोनों पिता-पुत्रों का इस प्रकार मृत्यु का ग्रास बन जाना बहुत दु:खद घटना है। सारे मारवाड़ और भारत के हिंदू समाज की दृष्टि तब दुर्गादास पर जाकर टिकी। सबको लगा कि इस संकट की घड़ी से दुर्गादास ही किसी प्रकार उबार सकता है।
आशा का केन्द्र बना दुर्गादास राठौड़
दुर्गादास राठौड़ जिस मिट्टी से बना था उसमें भयभीत होने या घबराने का तो कोई प्रश्न ही नही था। वैसे भी धैर्य की परीक्षा संकट में ही होती है। दुर्गादास अपने स्वामी के राजपरिवार और हिंदू समाज की अस्मिता की ढाल बनकर सामने आया, उसके लिए आवश्यक था कि मारवाड़ राजपरिवार और सरदारों के टूटते मनोबल की रक्षा की जाए। उसने ऐसा ही किया और उस समय उन सबको उसने इस प्रकार संबल प्रदान किया कि उनका मनोबल ऊंचा उठा।
दुर्गादास ने गर्भवती रानी को सती नही होने दिया
दुर्गादास ने महाराजा की महारानी को सती होने से रोका क्योंकि वह उस समय गर्भवती थी। दुर्गादास राठौड़ की सहायता के लिए संग्रामसिंह आरूवा नामक सरदार सामने आया और उसने रानी को समझा बुझाकर सती होने से रोकने में दुर्गादास राठौड़ के अनुकूल प्रयास किये।
दुर्गादास राठौड़ के लिए महाराजा का शव स्वदेश लाना अनिवार्य था। तब उसने अपने साथी सरदारों के साथ मिलकर योजना बनायी और सब कुछ जानकर भी उन सभी ने यह निश्चित किया कि बादशाह के प्रति इस समय पूर्ण निष्ठा का प्रदर्शन किया जाना ही उचित होगा और विनम्रता दिखाते हुए महाराजा का शव स्वदेश ले जाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।
दुर्गादास और उनके साथियों ने ऐसा ही किया और उन्होंने अपने महाराजा का सभी सामान मुस्लिम अधिकारियों को दिखाकर और उन्हें यह विश्वास दिलाकर कि हमारा उद्देश्य पूर्णत: स्पष्ट है और हमारे मन में कोई किसी प्रकार का दुर्भाव नही है, अटक के उस पार से स्वदेश के लिए प्रस्थान कर दिया।
महाराजा का पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार कर दिया गया। तब कुछ काल के पश्चात अजमेर के सूबेदार ने लिखकर भेजा कि जोधपुर और मेड़ते पर बादशाही अमल होगा। तब बादशाह को दो रानियों के गर्भवती होने की सूचना दी गयी व उससे अनुरोध किया गया कि ये संतानें अधिकतम चार मास में जन्म ले लेंगी, इसलिए तब तक कोई भी ऐसा कार्य न किया जाए जिससे मारवाड़ के लोगों को और भी कष्ट हो। बादशाह को यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि यदि मारवाड़ के लोगों की इन भावनाओं का सम्मान नही किया गया तो सारी मारवाड़ी प्रजा अपने राजपरिवार के साथ खड़ी होगी।
मंत्रिमंडल का किया गया गठन
दुर्गादास राठौड़ और पेशावर के रण छोड़ दास राठौड़ जैसे वीर देशभक्तों ने मारवाड़ की जनता को यह सुझाव दिया कि वह बादशाह को यह तनिक भी अनुभूति न होने दे कि महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु को लेकर वह बादशाह के प्रति शंकित है। पर बादशाह औरंगजेब ने महाराजा की मृत्यु के उपरांत यह स्पष्ट करने में देर नही की कि वह मारवाड़ को यथाशीघ्र हड़प लेना चाहता है। तब मारवाड़ राज्य के सरदारों ने अपने देश और धर्म की रक्षार्थ अपने कुछ वीर लोगों की एक समिति बनायी जिसे शासन प्रबंध सौंपा गया।
इस शासन समिति को हम आज की भाषा में उस समय का मंत्रिमंडल कह सकते हैं इसमें जिन महत्वपूर्ण लोगों को स्थान दिया गया उनके नाम निम्न प्रकार थे-
(1) सुरताणसिंह के पुत्र भाटी रूघनाथ जो उस समय जोधपुर राज्य के प्रधान थे।
(2) खोजा परास्त बेग नामक एक मुस्लिम सरदार
(3)उदावत राठौड़ (राजसिंह बलराम के पुत्र)
(4) उदावत राठोड़ (रूपसिंह प्रयागदास का पुत्र)
(5) उदावत राठौड़ (नृसिंह दयालदास के पुत्र)
(6) चाम्पावत राठौड़ (सोनग बिठलदास के पुत्र)
(7) रामदास भाटी (कुंभा के पुत्र)
(8) पंचोली कायस्थ (केसरी रामचंद्र के पुत्र)
(9) व्यास द्रोणाचार्य (नाथा की संतान)
युद्घ की तैयारियां होने लगीं
भारत की वीरता ने राजकुमार पृथ्वीसिंह की हत्या को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। जब महाराजा पुत्र वियोग में देह त्याग गये तो उनके जाने ने भारतीय मानस के लिए जलती आग में घी का कार्य किया। लोग भडक़ उठे और अपनी स्वतंत्रता की रक्षार्थ युद्घ की तैयारी करने लगे। तब बादशाह औरंगजेब ने मारवाड़ के लिए सैयद अब्दुल्लाह को 500 सवारों के साथ इस बात का पता लगाने के लिए भेजा कि वहां की राजनीतिक परिस्थितियां कैसी हैं और वहां के लोग चाहते क्या हैं? तब सैयद ने जो कुछ मारवाड़ में देखा उसे उसने बादशाह को जाकर बता दिया कि हिंदू लोग अजमेर सांभर डीडवाना आदि में स्थान-स्थान पर एकत्र होकर युद्घ की तैयारी कर रहे हैं।
यह सूचना बादशाह के लिए प्रत्याशित थी, क्योंकि वह यह भली भांति जानता था कि हिंदू अपनी स्वतंत्रता और स्वाभिमान के प्रति कितना सजग रहता है? उसे विपरीत परिस्थितियों को अपना नेतृत्व स्वयं करना आता है, साथ ही यह भी कि हिंदू किसी भी षडय़ंत्र के समक्ष झुकने वाला नही है।
खानेजहां को बादशाह ने भेजा युद्घ के लिए
हिंदुओं की युद्घ की तैयारियों की सूचना से बादशाह ने खाने जहां बहादुर को दस हजार घुड़ सवार देकर जोधपुर के लिए भेजा। जब वह जोधपुर की ओर आगे बढ़ा तो राठौड़ रूपसिंह भाटी, रामसिंह कुंभावत आदि हिंदू सरदारों ने आकर उससे संधि की बातें करनी आरंभ कर दीं। खानेजहां समझ नही पाया कि एक ओर तो ये लोग युद्घ की तैयारियां कर रहे थे और अब इतनी शीघ्रता से संधि की बात करने लगे हैं-अंतत: ऐसा क्यों? उसने अपने ‘मन की बात’ राजपूत सरदारों से पूछी थी, परंतु उन्होंने भी कह दिया कि-‘छोडिय़े, अब जो कुछ हो गया, उस पर अधिक चिंतन मत करो।’ खानेजहां ने कह दिया कि-‘मैं कुरान की सौगंध खाकर कहता हूं कि यदि महाराजा को अब भी अपनी गर्भवती रानियों से पुत्र उत्पन्न हो जाता है तो भी जोधपुर का शासक वही होगा। पर आप लोग तब तक शांत रहें और अपने राज्य को चुपचाप बादशाह के लिए सौंप दें।’
इसी समय कहीं से यह समाचार आया कि राजपूतों की बीस हजार सेना पहाडिय़ों में घूम रही है, जो कभी भी आक्रमण कर सकती है। इसलिए खानेजहां कुछ सचेत हो गया।
जब खानेजहां पालारूपी में था, तब लाहौर से राधा टेबारी आया और उसने उसे महाराजा के यहां पुत्र रत्न के जन्म लेने की सूचना दी। बादशाह ने इस सूचना को पाकर मात्र इतना कहा-‘बंदा कुछ और ही चाहता है और खुदा कुछ और ही करता है।’
खानेजहां ने किसी प्रकार जोधपुर पर आधा अधूरा नियंत्रण स्थापित कर लिया। पर उसके नियंत्रण से पूर्व ही जोधपुर का खजाना वहां से निकाल लिया गया। जब खानेजहां को यह ज्ञात हुआ कि महाराजा की रानी ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया है तो उसने जोधपुर के मंत्रियों से कहा कि वे लोग उसके साथ अजमेर चलें वहां बादशाह है, जिससे वह उनका राज्य महाराजा के पुत्र के लिए अपने दिये गये वचनानुसार दिला देगा। परंतु बादशाह इन लोगों के अजमेर आने से पूर्व ही वहां से चला गया।
देशभक्ति को खरीद नही पाया औरंगजेब
आगे चलकर इन सरदारों ने बादशाह से दिल्ली जाकर भेंट की। जिसमें बादशाह ने इन सभी हिंदूवीरों की देशभक्ति और स्वतंत्रता की भावना को खरीदने का हरसंभव प्रयास किया, परंतु वह असफल रहा। हिंदू वीर सरदारों ने स्पष्ट कर दिया कि जो कुछ भी दिया जाए वह उनके महाराजा (अल्पसंख्यक राजकुमार) को ही दिया जाए, हम उसी को अपना समझ लेंगे। इस प्रकार बादशाह भारत के इन सच्चे सपूतों की देशभक्ति और स्वतंत्रता प्रेमी भावना को खरीद नही पाया। खानेजहां ने भी अपनी ओर से भरसक प्रयास किया कि महाराजा के नवजात शिशु को उसका राज्य दे दिया जाये, पर वह भी अपने दिये गये वचन की रक्षा नही कर पाया। ऐसे ही सकारात्मक प्रयास बीकानेर के राजा अनोपसिंह रतलाम के राजा रतनसिंह ने भी किये, पर परिणाम शून्य रहा। तब दुर्गादास के लिए स्पष्ट हो गया कि वह अब सामने आये और युद्घ की तैयारी करे।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत