औरंगजेब को सदा मिलती रहीं हिंदू वीरों की चुनौतियां
हमारे इतिहास के बारे म ेंहैनरी बीवरिज का मत
भारत का इतिहास जिन लोगों ने विकृत किया है उन्हीं शत्रु इतिहास लेखकों के मध्य कुछ लोगों ने उदारता का परिचय देते हुए सत्य का महिमामंडन करने में भी संकोच नही किया है। ”ए काम्प्रीहैंसिव हिस्ट्री ऑफ इंडिया” (खण्ड-1 पृष्ठ 18) के लेखक हैनरी बीवरिज लिखते हैं-”भारत के भूतकाल का अन्वेषण करने में युगों पर युग बीतते जाते हैं। वर्षों की संख्या लाखों और करोड़ों तक पहुंच जाती है। देवताओं और अर्थ देवताओं सूर्य और चंद्रमा की संततियां उनसे भी अधिक विकट प्राणियों जिनमें से कुछ आधे पशु और आधे मानव हैं, के अंतहीन विवरणों से ग्रंथ भरे पड़े हैं, परंतु वास्तविक मानवों का और उनसे संबंधित घटनाओं का एक भी विश्वसनीय इतिहास नही मिलता। ऐसा लगता है कि जब तक उन मानवों और उनके कृत्यों को विलक्षणता का जामा न पहना दिया जाए उनसे संबंधित घटनाओं के विषय में लिखना अनावश्यक है।
संक्षेप में बात यह है कि ब्राहमणों ने जो बुद्घि और ज्ञान के एकमात्र ट्रस्टी थे अपने ट्रस्ट के प्रति घोर गद्दारी की और उसमें मिथक का ज्ञान बूझकर भयानक रूप से इस प्रकार चतुरतापूर्ण मिश्रण किया जिससे सदैव उनका स्वार्थ सिद्घ होता रहे।”
हमारे विषय में यह सत्य है कि हमने विलक्षणताओं का वध किया है। इसलिए विदेशियों ने हमारी विलक्षणता के स्थान पर हमारे समक्ष हमारी मूर्खताओं का विवरण प्रस्तुत किया और उन कथित मूर्खताओं को पढ़ते-पढ़ते हम स्वयं को भी मूर्ख ही समझ बैठे। उसका परिणाम ये आया कि हमारी नई पीढ़ी ईसाई और मुस्लिम मत को सनातन धर्म की अपेक्षा कहीं अधिक वैज्ञानिक और तार्किक समझने लगी। जिससे उनकी स्वार्थसिद्घि तो आज भी हो रही है पर हमारी तो क्षति ही क्षति हो रही है।
विद्यालय बन जाएं देवदूत और इतिहास दूत
इस क्षतिपूत्र्ति के लिए आवश्यक है कि हमारे विद्यालय देवदूत संस्कृति दूत, इतिहास दूत और धर्मदूत बन जाएं। भारत जैसे विद्योपासक देश के लिए यह ना तो उचित है और ना ही अपेक्षित कि इसके विद्यालय के यंत्रोपासक (मशीनी शिक्षा देकर मशीनी मानव बनाने वाले और शिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाने वाले) होकर रह जाएं। विद्यालयों का कार्य होता है धर्म की स्थापना कर समाज में मानव को मानव बनाना और देश में देव संस्कृति का निर्माण करना। इस देव संस्कृति के निर्माण में उन लोगों का जीवन चरित्र बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करता है, जिन्होंने देव संस्कृति की रक्षार्थ अपने जीवन होम किये थे। दुर्गादास राठौड़ ऐसे ही जीवन चरित का नाम है।
औरंगजेब के विरूद्घ मारवाड़ सरदारों की बैठक
जब मारवाड़ के सरदारों को यह स्पष्ट हो गया कि औरंगजेब उनके अल्पवयस्क महाराजा को कुछ भी देने को तत्पर नही है तो राठौड़ रणछोड़ दास गोयनदासोत, राठौड़, रूपसिंह प्रयागदासोत, राठौड़ दुर्गादास आसकरणोत, भाटी सुरताणसिंह जैसे लोगों ने परामर्श किया और उन्होंने समझ लिया कि अब आपत्ति सिर पर ही आ चुकी है। बादशाही सेना का घेरा लगने वाला है। इसलिए अब इन परिस्थितियों में कुछ करना अनिवार्य हो गया है। इसलिए कुछ सरदार तो वहां से बादशाह से अनुमति प्राप्त कर मारवाड़ लौट गये, परंतु राठौड़ दुर्गादास और उनके कुछ चुने हुए सरदार अपने महाराजा की सुरक्षार्थ वहीं रहे। इस स्थिति से औरंगजेब को प्रसन्नता हुई। उसे लगा कि अब महाराजा को कम सुरक्षा के कारण पकड़ा जाना सरल हो जाएगा।
दुर्गादास की अपने महाराजा की सुरक्षा के लिए युक्तियां
दुर्गादास ने अपना कवच उतारकर फेंक दिया और उसने अपने केसरिया वस्त्र धारण कर लिये। कहते हैं कि इसके पश्चात दुर्गादास ने फिर कभी कवच धारण नही किया। दुर्गादास ने अपने महाराजा (अजीतसिंह) की रक्षा के लिए विशेष युक्ति से काम लिया। उन्होंने बालक अजीतसिंह को एक ऐसी औषधि खिला दी, जिससे वह गाढ़निद्रा में सो गया और रो नही सकता था। तब उसे एक सपेरे की पिटारी में (मुकुन्दादास खींची नामक सरदार ने ऐसा रूप बना लिया था जिससे वह सपेरा लगने लगा था) रखकर राजा रूपसिंह की हवेली से निकाल दिया। जहां से निकल कर ये लोग कुछ समय बलूंदा रहे और उसके पश्चात मारवाड़ पहुंच गये।
इनके निकल जाने पर बादशाह के लोग दुर्गादास और उनके साथी सरदारों के पास आये और उन्हें समझाने लगे कि आप नाहक युद्घ की ओर न बढक़र बादशाह से शत्रुता मत लो। अपने महाराजा कुमार को चुपचाप बादशाह को सौंप दो। बादशाह तुम्हें बड़ी-2 जागीरें प्रदान करेगा। जब महाराजा व्यस्क हो जाएंगे तो उन्हें उनका राज्य दे दिया जाएगा।
रूघनाथ भाटी की वीरता
बादशाह के इस हुक्मनामे को पढक़र हंसते हुए लवेरा के ठाकुर रूघनाथ भाटी ने धरती पर फेंक दिया। इस हिंदू शेर ने दहाड़ते हुए उस समय अपने समक्ष खड़े बादशाही लोगों से कहा कि आज तक बादशाह का आदेश हमें शिरोधार्य था, पर आज उसका स्थान हमारे सिर पर न होकर हमारे पैरों में है और यह कहकर उसने उस हुक्मनामे को अपने पैरों से कुचल दिया।
यह थी स्वतंत्रता की वह उत्तुंग भावना जिसके कारण हमारे हिंदू वीरों में देशभक्ति उनके सिर चढक़र बोलती थी। रूघनाथ भाटी को कोई चिंता नही थी कि उसके इस प्रकार के कृत्य का परिणाम युद्घ होगा। अपितु अपने महाराज कुमार को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाकर और उसकी ओर से निश्चिंत होकर अब तो वह और उनके साथी युद्घ को शीघ्रातिशीघ्र आमंत्रित कर लेना चाहते थे। केसरिया बाना पहनने का अभिप्राय ही यह था कि अब केवल रण होगा, बलिदान होगा और शत्रु का विनाश होगा।
दुर्गादास राठौड़ ने दिया बादशाह को कठोर संदेश
दुर्गादास राठौड़ ने मुगल सरदार और मारवाड़ के सरदारों के मध्य शांति कराई और अपने पक्ष से शांत रहने को कहा। पर जब मुगल सरदार ने दुर्गादास और उनके साथियों से मुगल बादशाह के आदेश को मानने की अपील करते हुए कहा कि बादशाह के आदेश की अवमानना करना तुम्हारे लिए उचित नही है तब दुर्गादास राठौड़ को आवेश आ गया और उसने उस मुगल सरदार से कह दिया कि अपने बादशाह से जाकर कहना कि हमारे लिए हमारी तलवारें ही मार्ग प्रशस्त करती हैं।
मुगल बादशाह का सामना इतने कड़े शब्दों में करना किसी दुर्गादास के लिए ही संभव था। बादशाह को जब उसके कहे शब्दों की जानकारी मिली तो उसने क्रोधावेश में आकर तुरंत राठौड़ों की हवेली को घेरने का आदेश दे दिया। यह घटना श्रावण शुक्ल 3 सम्वत 1736 ई. की है। फौलाद खां ने दिन चढ़ते-चढ़ते सेना और तोपखाने से राठौड़ों की हवेली को घेर लिया।
राठौड़ों की युद्घनीति से भ्रमित हो गये मुगल
दुर्गादास राठौड़ और उनके साथियों ने बड़े विवेक और साहस से कार्य किया। उन्होंने मुगल सेना को भ्रमित करने के लिए महाराजा अजीतसिंह की आयु वर्ग के एक बच्चे को अजीतसिंह के वस्त्र पहनाकर रख दिया। एक कमरे में कुछ स्त्रियों को बारूद से उड़ा दिया गया। जब रूघनाथ भाटी ने यह भलीभांति आंकलन कर लिया कि अब शत्रु पूर्णत: हमारी योजना से भ्रमित हो जाना संभव है, तब उसने सौ घुड़सवारों के साथ शत्रु पर धावा बोल दिया।
आज रूघनाथ भाटी ने अपनी वीरता की छटा बिखेर दी, दिल्ली के दरियागंज में उसने खून की ऐसी होली खेली कि शत्रु अपनी सारी चतुरता भूल गया। दरियागंज में रक्त की धारा दरिया में बह चली। कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि जैसे समय रूक गया है, चारों ओर हिंदू वीर रूघनाथ भाटी की वीरता का गुणगान हो रहा था।
हमारे वीरों का अप्रतिम बलिदान
इसी समय रण छोड़ दास दुर्गादास रूपसिंह तथा यादवण राणी (पुरूषवेष में) सभी शत्रु का घेरा तोडक़र निकल गये। मुगलों ने भी हमारे कितने ही लोगों को क्षति पहुंचाई पर हिंदू वीरों ने उस क्षति का तनिक भी विचार नही किया। इस युद्घ में रूघनाथ भाटी लवेरा, उदैभाण भाटी खेजड़ला, संगतसिंह भाटी, द्वारकादास भाटी, धनराज भाटी, जगन्नाथ भाटी, सकतसिंह भाटी आदि को अपनी प्राणाहुति देनी पड़ी। औरंगजेब एक ऐसा बादशाह था जो किसी भी हिंदू वीर योद्घा से सीधे जाकर नही भिड़ा। उसने दूर से ही युद्घ का आनंद लिया और अपने विपरीत जाते हर परिणाम पर अक्सर अपनी छाती पीटी। इस युद्घ को भी उसने दूर से ही देखा। युद्घ के समय वह किले की बुर्ज पर था। जब भी कोई हिंदू वीर धरती पर गिरता तो उसे असीम प्रसन्नता होती थी। उसे लगता था कि अब तो शीघ्र ही वह मारवाड़ के महाराजा अजीतसिंह को अपनी पकड़ में ले लेगा। उसे पता नही था कि जिस योजना पर वह कार्य कर रहा है और अपनी शक्ति को झोंक रहा है, तेरी उस योजना को भांप कर हिंदू वीर बहुत पहले ही तेरे सारे मनोरथों को समाप्त कर चुके हैं, और अब तू महाराजा अजीतसिंह को कभी भी नही पकड़ पाएगा।
युद्घभूमि में रणछोड़दास अपने अनेकों वीर योद्घाओं के साथ वीरगति को प्राप्त हो गया। यह घटना 16 जुलाई 1779 ई. की है। जिसमें औरंगजेब की सेना के लगभग एक हजार सैनिक मारे गये थे। इसके अतिरिक्त लगभग 300 सवार घायल हो गये थे।
कथित अजीतसिंह को बनाया मुसलमान
सच कभी छुपाया नही जा सकता। क्योंकि सच का अपना स्वभाव भी छुपकर रहना नही है। वह प्रकट होता है और प्रकट होकर अपने अस्तित्व की स्पष्ट अनुभूति भी कराता है।
युद्घ से लौटकर दिल्ली के कोतवाल फौलाद खां ने घोसी के उस बच्चे को उठाकर लाकर अपने बादशाह को सौंपा। फौलाद खां अपनी चमड़ी को बचाना चाहता था, इसलिए उसने कुछ अतिश्योक्ति में बातें कहीं। उसने कहा कि मारवाड़ों पर इस प्रकार की मार पड़ी कि वे शीघ्रता में अपने राजकुमार को भी नही ले जा सके। तब औरंगजेब को लगा कि उसे उसका वास्तविक शिकार तो मिल ही गया है। इसलिए वह भी प्रसन्न हो गया। उसने उस बच्चे को अपनी एक पुत्री की देखभाल में देकर उसे मुसलमान बनाकर पालना-पोसना आरंभ कर दिया। पर कुछ कालोपरांत वह बच्चा मर गया। जिससे स्पष्ट होता है कि औरंगजेब अजीतसिंह को मुसलमान बनाना चाहता था, वह उसके राज्य को लौटाने का मिथ्या आश्वासन दे रहा था, उसका वास्तविक उद्देश्य मारवाड़ का दीपक बुझा देना ही था।
मारवाड़ दे दिया इंद्रसिंह को
मारवाडिय़ों का स्वराज्य चिंतन और स्वतंत्रता प्रेमी भावना हर मुस्लिम सुल्तान या बादशाह की भांति औरंगजेब के लिए भी घृणा की पात्र थी। उसने जोधपुर को अपने पास रख तो लिया था पर जोधपुर की आत्मा पर उसका नियंत्रण नही था। वह जितना ही अधिक जोधपुर की आत्मा पर नियंत्रण स्थापित करना चाहता था, उतने ही वेग से दुर्गादास जैसे अनेकों देशभक्त उसकी योजना को विफल कर देते थे। यह स्थिति औरंगजेब के लिए अपमानजनक भी थी और कष्ट कर भी थी।
जब औरंगजेब ने देखा कि उसे मारवाड़ के सरदारों ने अपना अप्रतिम बलिदान देकर युद्घ में किस प्रकार छकाया है-तो उसने जोधपुर का राज्य इंद्रसिंह को दे दिया था-जो उसका अत्यंत विश्वसनीय व्यक्ति था।
जोधपुर के लोगों को इंद्रसिंह की इस नियुक्ति ने भी संतुष्ट नही किया। उनकी मांग थी कि उनका अपना राजा ही जोधपुर पर शासन करे। जून 1680 ई. में इंद्रसिंह की नियुक्ति के पश्चात उत्पन्न परिस्थितियों पर विचार करने के लिए मारवाड़ के सरदारों ने अपनी बैठक की, जिसे देखकर मुगल सूबेदार ताहिर खां की व्याकुलता बढ़ी। 15 जून तक इन सरदारों की संख्या 1000 थी, परंतु अगस्त के आरंभ होने तक इन स्वतंत्रता प्रेमी देशभक्तों की संख्या बढ़ते-बढ़ते छह हजार हो गयी। इन सबने इंद्रसिंह को जोधपुर की गद्दी से हटाने का निर्णय लिया। इसलिए इंद्रसिंह की ओर से जोधपुर की परिस्थितियों का अध्ययन करने आये किशनदास नामक अधिकारी को हिंदू देशभक्तों ने मार डाला। यह घटना 1680 की 21 जून की है। किशनदास के पश्चात इंद्रसिंह ने दूसरा व्यक्ति जौहरमाल यहां भेजा पर उसे भी मारवाड़ी सरदारों ने जोधपुर में प्रवेश ही नही करने दिया।
जोधपुर का स्वतंत्रता आंदोलन हो गया आरंभ
जोधपुर का स्वतंत्रता आंदोलन प्रारंभ हो गया। बड़ी शीघ्रता से शक्तियों का ध्रुवीकरण होने लगा। युद्घ का उद्देश्य वही था-अपनी खोयी हुई स्वतंत्रता को प्राप्त करना।
देवीसिंह मंडावा अपनी पुस्तक ‘देशभक्त दुर्गादास राठौड़’ के पृष्ठ 57 पर लिखते हैं-”शाही अधिकारी भी स्थिति की गंभीरता से घबरा गये। फतेहपुर का नवाब दीनदार खां कायमखानी जो जोधपुर की रक्षा पर था, उसे दिल्ली युद्घ की सबसे पहले सूचना मिली। वह अपने प्राण बचाकर नागौर भाग गया। शाही सत्ता के विरूद्घ खुला विद्रोह आरंभ होने पर जोधपुर के फौजदार दीवान व अमीन जाहिर खां का भी सुरक्षित रह पाना असंभव था। परंतु ताहिर खां से राठौड़ों के संबंध अच्छे थे। इसलिए राठौड़ सरदार उसे संकट में डालना नही चाहते थे। अत: राठौड़ों ने अपने प्रमुख सरदार रामभाटी तथा सोनग द्वारा यह सलाह भिजवाई कि वह चुपचाप जोधपुर छोड़ दे। ताहिर खां ने भी परिस्थिति की विषमता को देखकर राठौड़ों की सलाह मान लेना ही उचित समझा। राठौड़ों ने सूरजमल भीमोत के साथ कुछ सैनिकों को भेजकर ताहिरखां को अजमेर सुरक्षित पहुंचा दिया। ताहिरखां के चले जाने के पश्चात राठौड़ों ने अन्य शाही अधिकारियों को हटाकर जोधपुर को बलपूर्वक अपने अधिकार में कर लिया।”
बहादुरसिंह की जाग गयी बहादुरी
आपत्ति में अपने लोग मतभेदों के उपरांत भी काम आते हैं। संसार में संबंध भी संभवत: इसीलिए विकसित किये जाते हैं कि वह किसी भी प्रकार की विषमताओं से हमें मुक्ति दिलाएंगे या हमारे सहायक बनेंगे। महाराजा जसवंतसिंह की खंडेला नामक राज्य से दो रानियां थीं। महाराजा के साले का नाम राजा बहादुरसिंह था। जब उनको जोधपुर की राजनीतिक परिस्थितियों और वहां के राजवंश पर आये संकट की जानकारी मिली तो उनको बड़ा क्रोध आया। उन्होंने जोधपुर के देशभक्तों से संपर्क साधा और स्वयं ने शाही आज्ञाओं की अवहेलना करना आरंभ कर दिया। उसने स्पष्ट कर दिया कि मैं अपने गोवंश की हत्या होते नही देख सकता और मेरे कान अब मुर्गे की बांग सुनने को तैयार नही हैं, वह दक्षिण से चला एक बादल की भांति और औरंगजेब के विरूद्घ विद्रोह पर उतर आया। उसके सैनिकों ने मुगल बादशाह की निर्दयता और क्रूर शासन के विरूद्घ विद्रोह करते हुए शाही क्षेत्रों को लूटना आरंभ कर दिया। औरंगजेब ने इस हिंदू बहादुर को समाप्त करने के लिए सदा की भांति फौलाद खां को उसका सामना करने के लिए भेजा। 1676 ई. में फौलाद खां नारनौल आया और उसने बिरहाम खां के नेतृत्व में शाही सेना खण्डेला भेजी।
राजा बहादुर सिंह की निर्णायक विजय
इस बार पुन: एक घमासान युद्घ हुआ। बहादुर सिंह की सेना ने अपनी वीरता का अपूर्व प्रदर्शन किया। चारों ओर बहादुर सिंह के बहादुर ‘सिंह’ दहाड़ रहे थे। जिनकी सिंहगर्जना और वीरता से भयभीत होकर मुगल सेना भागने लगी। निर्णायक रूप से राजा बहादुरसिंह की विजय हुई। पर बादशाह ने बिरहाम खां को पुन: युद्घ के लिए भेज दिया। तब राजा ने छापामार युद्घ नीति का आश्रय लिया। इस शेर ने निरंतर 8 वर्ष तक मुगल सेना से लोहा लिया और जंगलों में रहकर वहीं से अपने छापामार युद्घ का संचालन करते हुए अपनी स्वतंत्रता का आंदोलन बड़ी निर्भीकता से जारी रखा।
(संदर्भ : ‘केशरीसिंह समर’ पृष्ठ 88)
मुगल बादशाह औरंगजेब के लिए खण्डेला में एक नया शिवाजी उत्पन्न हो गया। वह अभी तक छत्रपति शिवाजी से और उधर छत्रसाल से ही दुखी था इधर एक नयी आफत आ गयी। इसलिए इस आफत से निपटने के लिए वह निरंतर अपने सेनानायक भेजता रहा। पर उसे हर बार असफलता ही मिलती रही। इससे पता चलता है कि उस समय का हिंदू समाज भी अपने पूर्ववर्ती लोगों की स्वतंत्रता प्रेमी भावना को यथावत जारी रखने के लिए कृतसंकल्प था। बादशाह ने महाराजा जसवंतसिंह के साथ चाहे जो कुछ किया, पर उसे जोधपुर की देशभक्त जनता वहां के सरदारों तथा खण्डेला के बहादुरसिंह ने बता दिया कि हिंदू किसी भी दुष्टता का सामना किस प्रकार करने के लिए तैयार है? औरंगजेब निश्चय ही इस बहादुरसिंह नाम की आफत में फंसकर अपने किये पर पश्चाताप करता होगा।
दूल्हा सुजानसिंह ने दिखायी देशभक्ति
भोजराज का पौत्र सुजानसिंह उन दिनों अपने विवाह के लिए मारवाड़ आया हुआ था। तब उसे ज्ञात हुआ कि खण्डेला के मंदिरों को तोडऩे के लिए शाही सेना खण्डेला आ गयी है। तब उस वीर ने अपनी नवविवाहिता पत्नी को सुरक्षित अपने घर भेजकर अपने लिए बारातियों को साथ लेकर खण्डेला के देव मंदिर पर मोर्चा जा संभाला। औरंगजेब की ओर से नियुक्त दाराखां ने इस योद्घा से कहा कि वे अपना मोर्चा हटा लें और इस मंदिर का कलश उसे दे दें, वह उसी को बादशाह को जाकर दिखा देगा कि मंदिर पर अधिकार हो गया है। परंतु इस योद्घा ने कह दिया कि यह कलश तो सोने का बना है, यदि यह मिट्टी का भी होता तो भी किसी को हाथ नही लगाने देते। परिणामत: भयंकर युद्घ आरंभ हो गया। सभी धर्मवीरों ने अपने प्राण गंवा दिये। उनके जीवित रहते शाही सेना मंदिर में प्रवेश नही कर सकी। उनके वीरगति प्राप्त करने पर ही मंदिर तोड़ा जा सका। खण्डेला का यह रक्त रंजित स्थल आज भी ‘खूनी बाजार’ के नाम से पुकारा जाता है। जिसे अपने योद्घाओं की स्मृति में एक भावपूर्ण श्रद्घांजलि भी कहा जा सकता है।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत