मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 28 ( ख ) मेवाड़ पर फिर चढ़ आई मुगल सेना

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मेवाड़ पर फिर चढ़ आई मुगल सेना

जहांगीर ने महावत ख़ां को यह सोचकर मेवाड़ भेजा था कि यदि वह मेवाड़ में जाकर हिंदुओं से युद्ध करते हुए मारा जाता है तो एक काफिर ही काफिर के हाथों मर जाएगा। इसके साथ ही वह यह भी देखना चाहता था कि महावत खान की उसके प्रति कितनी निष्ठा है? यदि वह मेवाड़ को जीत कर आता है तो इससे महावत खान की उसके प्रति निष्ठा स्पष्ट हो जाएगी।
बड़ी उमंग और उत्साह के साथ महावत खान ने मेवाड़ की ओर बढ़ना आरंभ किया। जब वह मेवाड़ पहुंच गया तो दोनों पक्षों के मध्य बड़ा भारी संघर्ष हुआ। मेवाड़ के हिंदू वीर योद्धाओं ने एक बार फिर इतिहास रचा और महावत खान के नेतृत्व में आई मुगल सेना को भागने के लिए विवश कर दिया। हिंदू वीर योद्धाओं ने चुन-चुन कर मुगल सैनिकों का संहार किया। महावत खान इतना लज्जित हुआ कि वह मुगल दरबार में जाकर जहांगीर का सामना करने का साहस भी नहीं कर सका। जहांगीर भी उसी प्रकार महावत खान पर क्रुद्ध हुआ जिस प्रकार उसका पिता अकबर महाराणा प्रताप के विरुद्ध मुगल सेना का नेतृत्व करने वाले अपने सेनापतियों पर क्रुद्ध हुआ करता था।
इस बार की मुगल सेना की पराजय ने जहांगीर को सोचने के लिए विवश कर दिया। एक छोटे से राज्य के स्वामी महाराणा अमर सिंह की सेना के द्वारा इतनी बड़ी मुगल सेना को बार-बार मिलने वाली पराजय से जहांगीर विचलित हो उठा था।
तब उसने एक बार फिर मेवाड़ पर आक्रमण करने की योजना बनानी आरंभ की। कर्नल टॉड इस संबंध में लिखता है कि :- “इस युद्ध में पराजित होने के पश्चात जहांगीर को ऐसी पराजय की आशा नहीं थी। इसलिए एक वर्ष पश्चात सम्वत 1665 में अर्थात 1609 ई0 में बसंत में युद्ध की तैयारी की गई और एक विशाल मुगल सेना को लेकर अब्दुल्ला नामक सेनापति मेवाड़ की ओर चल पड़ा। इस आक्रमण का समाचार महाराणा अमर सिंह को मिला । उसी समय राणा ने अपने सरदारों को बुलाकर एकत्रित किया और युद्ध की तैयारी करके वह अपनी सेना के साथ रवाना हुआ। रणपुर नामक पहाड़ी रास्ते पर दोनों सेनाओं का सामना हुआ। मारकाट आरंभ हो गई।”
हिंदू वीर योद्धाओं ने इस बार फिर अपनी वीरता और साहस का परिचय देते हुए अपने बलिदान दे – देकर मातृभूमि की रक्षा की। रण क्षेत्र में शत्रु सेना के अनेक सैनिकों को उन्होंने यमलोक पहुंचा दिया। युद्ध अपने भयंकर स्वरूप में चल रहा था। दोनों पक्ष के सैनिक हताहत हो रहे थे। अंत में हिंदू वीरों के शौर्य और साहस के सामने मुगल सेना एक बार फिर उखड़ गई। पिछले युद्धों के अनुभवों ने उन्हें हिंदू वीर योद्धाओं के समक्ष युद्ध से भागने के लिए प्रेरित किया। कर्नल टॉड आगे लिखते हैं :- “दोनों ओर से बहुत समय तक भीषण युद्ध हुआ। अंत में राजपूतों के आगे बढ़ने से मुगल सेना पीछे हटने लगी। उस समय राजपूतों ने मुगलों पर भयानक आक्रमण किया। फलस्वरूप लगभग संपूर्ण मुगल सेना मारी गई। जो सैनिक बचे वे भी युद्ध से भाग खड़े हुए।”

जहांगीर ने बनाई नई योजना और राणा सागर

इस बार की पराजय के पश्चात जहांगीर ने महाराणा अमर सिंह को झुकाने के लिए एक नई योजना पर काम करना आरंभ किया। उसने महाराणा प्रताप के भाई और अमर सिंह के चाचा राणा सागर को चित्तौड़ का शासक घोषित कर दिया। ऐसा करके जहांगीर ने यह सोचा था कि इससे राणा सागर और महाराणा अमर सिंह के मध्य ही संघर्ष हो जाएगा। जिसमें किसी एक का नाश अवश्य होगा। मेवाड़ की जनता ने मुगल शासक की इस चाल को समझने में देर नहीं की। जब वह राणा सागर का राजतिलक करवा रहा था तो मेवाड़ की जनता ने उस राजतिलक के आयोजन का बहिष्कार किया। बहिष्कार की इस प्रक्रिया से ही मेवाड़ के लोगों ने यह संकेत दे दिया कि वे अपना महाराणा अमर सिंह को मानते हैं , राणा सागर को नहीं।
मेवाड़ के लोगों ने जहांगीर द्वारा बनाए गए इस नए शासक से बात करना तक उचित नहीं माना। कर्नल टॉड का कथन है कि “इस प्रकार के वातावरण में सागर जी ने चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठकर सात वर्ष तक शासन किया। परंतु उसको स्वयं इस दशा पर संतोष नहीं था। इससे पूर्व वह जब चित्तौड़ का राणा नहीं बना था और मुगल दरबार में रहता था तो वह प्रसन्न था। चित्तौड़ में आकर और सिंहासन पर बैठकर प्रजा की घृणा के कारण वह रात दिन असंतुष्ट रहने लगा। मनुष्य सबसे पहले अपने जीवन में सम्मान चाहता है, जहां पर वह रहता है, यदि वहां के लोग उससे घृणा करते हैं तो उसके सारे वैभव उसको अपने अपमान के रूप में दिखाई देते हैं।”
ऐसी स्थिति में सागर के लिए शासन करना दिन प्रतिदिन कठिन होता चला गया। उसे यह भली प्रकार अनुभव हो चुका था कि मेवाड़ की जनता उसे किसी भी मूल्य पर अपना शासक स्वीकार नहीं करेगी। फलस्वरूप वह अब अपने ही जीवन से दु:खी रहने लगा। कर्नल टॉड का कहना है कि “सागर जी अपने अपमानित जीवन से बहुत दुखी हो गया था। इसलिए वह चित्तौड़ से निकलकर कंधार के पहाड़ पर चला गया और वहां वह एकांत जीवन बिताने लगा। उसे वहां पर भी शांति नहीं मिली। उसकी इस दशा में बादशाह ने उसे दरबार में बुलाया और बहुत अपमानित किया। राणा सागर यह अपमान सह नहीं सका और जहांगीर के सामने ही तलवार से अपने प्राणों का अंत कर लिया।”

सह न सका अपमान को टूटा कांच समान।
अपनी ही तलवार से कर लिया काम तमाम।।

हमें यहां पर अपनी सहानुभूति सागर के साथ व्यक्त करनी चाहिए। यदि इसके स्थान पर कोई मुगल होता तो वह अपने ही भतीजे महाराणा अमर सिंह से खून खराबा करता। तब दोनों में सत्ता के लिए जमकर संघर्ष होता। ऐसी स्थिति में वह अपने लोगों के द्वारा किए जाने वाले बहिष्कार से बौखलाकर जनता में भी अपना आतंक स्थापित करने के लिए भांति – भांति के अत्याचार करता। इस प्रकार अपनी ऊर्जा को नकारात्मक दिशा में खर्च करके वह देश और समाज का अहित करता । परंतु राणा सागर ने ऐसा कुछ नहीं किया। ऐसा ना करने का कारण केवल एक ही था कि राणा सागर के भीतर भारतीय संस्कार समाविष्ट थे। उसने वास्तविकता को गहराई से समझा और अपने आपको सारी स्थिति परिस्थिति से अलग कर लिया। यह उसकी सकारात्मक सोच का प्रतीक है। यह भारतीय लोकतंत्र की शक्ति का प्रतीक है कि इसमें शासक अपनी भूल के लिए अपना दंड स्वयं निर्धारित कर लेता है। हमें अपने इतिहास की इस शक्ति को समझना और पहचानना चाहिए।

महाराणा अमर सिंह की बड़ी सोच

यहां पर यह बात भी उल्लेखनीय है कि जिस समय राणा सागर ने चित्तौड़ को त्यागा था, उस समय उसने अपने भतीजे महाराणा अमर सिंह को चित्तौड़ का महाराणा स्वीकार कर चित्तौड़ का शासक भी उसी को नियुक्त कर दिया था। यह उसकी बहुत बड़ी सोच थी। इस प्रकार जिस चित्तौड़ के लिए महाराणा प्रताप जीवन भर संघर्ष करते रहे थे, उसे महाराणा अमर सिंह ने बड़ी सहजता से अपने चाचा राणा सागर से प्राप्त कर लिया। जहांगीर के लिए यह स्थिति निश्चय ही बड़ी कष्टप्रद रही होगी। राणा सागर ने ऐसा कार्य अपने लोगों की जन भावनाओं के सामने झुककर किया या परिवार की मर्यादा को रखने व बनाए रखने और उसका सम्मान करने के लिए किया या अंतरात्मा की आवाज पर किया - जैसे भी किया , वास्तव में यह लोकतंत्र की जीत थी। जन भावनाओं  और नैतिकता के सामने  शासक द्वारा स्वयं को झुका लेना ही लोकतंत्र की जीत है।

जब राणा सागर ने अपने भतीजे महाराणा अमर सिंह को चुपचाप मेवाड़ हस्तांतरित कर दी तो इससे जहांगीर की चिंता और भी अधिक बढ़ गई। वह हर परिस्थिति में चित्तौड़ को ले लेना चाहता था। उसने अपने पुत्र परवेज को चित्तौड़ पर आक्रमण करने के लिए एक बड़े सैन्यदल के साथ भेजा। अपने पुत्र को उसने समझाते हुए कहा था :- “तुम इस हमले में अपनी कोई ताकत उठा न रखना । मुझे उम्मीद है कि तुमको कामयाबी हासिल होगी। लेकिन अगर राणा अमर सिंह अथवा उसका लड़का करण सिंह तुम्हारे पास आए तो तुम खातिरदारी का व्यवहार उसके साथ करना और उस अदब कायदे को भूल न जाना जो एक बादशाह की ओर से दूसरे बादशाह के लिए जरूरी होता है।”

जहांगीर के बेटे परवेज के साथ युद्ध

चित्तौड़ को हस्तगत करने के पश्चात महाराणा अमरसिंह भी इस बात की प्रतीक्षा में थे कि इस बार जहांगीर निश्चय ही चित्तौड़ को लेने के लिए किसी बड़ी योजना पर कार्य कर रहा होगा और किसी न किसी सेनानायक को उनके लिए सेना देकर चित्तौड़ की ओर अवश्य भेजेगा। जैसे ही महाराणा को यह जानकारी मिली कि परवेज एक बड़ी सेना लेकर चित्तौड़ की ओर आ रहा है तो वह भी युद्ध के लिए सेना सजाकर युद्ध क्षेत्र की ओर चल दिए। खामनोर नामक स्थान पर दोनों सेनाओं का घमासान युद्ध हुआ। इस बार भी मुगल सेना हिंदू वीरों की सेनाओं का सामना अधिक देर तक नहीं कर पाई और अंत में उसको मैदान छोड़कर भागना ही पड़ा। अबुल फजल ने इस युद्ध के बारे में कहा है कि “शाहजादा परवेज लड़ाई से भागने के पश्चात एक ऐसे पहाड़ी मुकाम पर पहुंच गया जो उसके लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हुआ। उस स्थिति में शाहजादा परवेज वहां से निकलकर किसी प्रकार अपनी जान बचा सका।”
मेवाड़ जैसे छोटे से राज्य की ओर से मिलने वाली इस बड़ी चुनौती ने जहांगीर के सिर में दर्द करके रख दिया था। वह समझ नहीं पा रहा था कि किस प्रकार वह चित्तौड़ को लेने में सफल हो? जिस चित्तौड़ को छीनकर मुगल फूले नहीं समाते थे और जिसे अपने लिए वह बहुत बड़ी सौगात मानते थे, उसे उनकी ही मूर्खतापूर्ण नीति ने बड़ी सहजता से महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह के हाथों तक पहुंचा दिया। यह स्थिति जहांगीर के लिए असहनीय पीड़ा का कारण बन चुकी थी। फलस्वरूप उसने चित्तौड़ को फिर से लेने की अब हठ कर ली थी। उसने सोच लिया था कि इसके लिए चाहे जितना परिश्रम करना पड़े और चाहे जितने बड़े स्तर पर युद्ध करने पड़े पर वह इसे लेकर ही रहेगा। अपने पुत्र परवेज के लड़ाके महावत खान को एक बड़ी सेना लेकर शत्रु का नाश करने के लिए मेवाड़ भेजा। यह सैन्य दल चित्तौड़ पहुंच गया तो हिंदू वीरों के साथ इसका भयंकर युद्ध हुआ। पता चलता है कि इस बार मुगल सेनापति महावत खान को भी युद्ध क्षेत्र में मार दिया गया था।
कर्नल टॉड बताते हैं कि “मुगलों से लगातार युद्ध करके राणा अमर सिंह की शक्तियां अब क्षीण हो गई थीं। उसके पास सैनिकों की अब बहुत कमी थी। शूरवीर सरदार और सामंत बड़ी संख्या में मारे जा चुके थे, लेकिन राणा अमर सिंह ने किसी प्रकार अपनी निर्बलता अनुभव नहीं की। उसने सिंहासन पर बैठने के पश्चात और राणा प्रताप सिंह की मृत्यु के पश्चात दिल्ली की शक्तिशाली मुगल सेना के साथ 17 युद्ध किए और हर बार युद्ध में अपने शत्रु को पराजित किया।”
कर्नल टॉड की इस साक्षी से सिद्ध होता है कि महाराणा अमर सिंह ने युद्ध की प्रक्रिया निरंतर जारी रखी। यह और भी बड़ी बात है कि अधिकांश युद्धों में सफलता प्राप्त की। इतिहास के इस नायक का नाम ‘अमर’ और ‘सिंह’ के रूप में स्थापित होना आवश्यक है। अपने इस प्रेरणास्पद व्यक्तित्व को भारत जितनी शीघ्रता से समझ लेगा युवा पीढ़ी के लिए उतना ही लाभकारी होगा। अपने इतिहास की धरोहर के रूप में इन्हें स्थापित किया जाना आवश्यक है।

महाराणा अमर सिंह की पराजय ?

अंत में जहांगीर ने चित्तौड़ का विध्वंस करने के लिए अपने पुत्र खुर्रम को भेजा। अभी तक जितने भर भी युद्ध हुए थे उनमें बहुत बड़ी संख्या में मेवाड़ के युवा राष्ट्र के लिए काम आ चुके थे। सैनिकों की भारी कमी का सामना महाराणा अमर सिंह को इस बार करना पड़ रहा था। इसके उपरांत भी जितने भर भी सैनिक थे, वे हारे थके होकर भी युद्ध के लिए चल पड़े। ऐसे में खुर्रम की सेना के साथ जब युद्ध हुआ तो यह पहली बार था कि मुगलों से महाराणा अमर सिंह को पराजय का सामना करना पड़ा। यदि उस समय महाराणा अमर सिंह को अन्य हिंदू शासकों का साथ मिल गया होता तो यह पराजय भी उनके नाम के साथ नहीं जुड़ती। दुर्भाग्यवश, अमर सिंह की सेना को राष्ट्रीय स्वरूप नहीं मिल सका। यदि समय और परिस्थिति को देखकर अन्य हिंदू नरेश महाराणा का साथ देते तो इतिहास दूसरा होता।
1615 ई0 में घटी इस घटना के पश्चात जहांगीर को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अपनी आत्मकथा में लिखा है :-
“मुझे शुभ सूचना मिली कि राणा अमर सिंह ने संधि का संदेश भेजा है और वह मेरी अधीनता स्वीकार करने के लिए स्वेच्छा से तैयार है। मेरे सौभाग्यशाली लड़के ने राणा के राज्य में अपनी सेना के बहुत से नाके कायम कर दिए हैं और उन नाकों पर अपने ही आदमी काम कर रहे हैं। मुल्क की आबोहवा खराब है और तमाम राज्य बंजर पड़ा है। वहां पहुंचने में भी परेशानी होती है। इस वजह से कुल मुल्क को कब्जे में लाना असंभव था। लेकिन मेरी फौज ने मौसमों की कोई परवाह न करके तमाम मेवाड़ को अपने अधीन कर लिया।
वहां के कुछ राजपूतों और दीगर लोगों की औरतों के साथ उनके लड़के भी कैद किए गए। राणा इन बातों से बहुत नाउम्मीद हो गया और यह ख्याल करके कि अगर इसी तरह के हालात कायम रहे तो या तो मुल्क छोड़ना पड़ेगा या कैद में जाना होगा, बहुत आजिज होकर सुलह की प्रार्थना की। अपने दो सरदारों को खुर्रम के पास भेज कर राणा ने कहला भेजा कि अगर मुझे माफ किया जाए तो जिस तरीके से दूसरे हिंदू राजा मातहती में हैं मैं भी उसके लिए तैयार हूं और इसके लिए अपने लड़के करण को दरबार में भेज सकता हूं। मेरा बेटा दरबार में रहेगा। बुढ़ापे के सबब से मैं खुद वहां नहीं रह सकता।
इसके लिए मैं माफी चाहता हूं।
मेरी हुकूमत के जमाने में चित्तौड़ मातहत हुआ, इसके लिए मुझे बड़ी खुशी हुई है और मैंने हुक्म दिया कि मेवाड़ के पुराने मुश्तहक महरूम नहीं रहेंगे। इस बात का मुझको कामिल यकीन है कि राणा अमर सिंह और बुजुर्गों को अपनी ताकत का पूरा इतकाद था। उनको पहाड़ी लोगों की ताकत का पूरा यकीन था। अपनी कौम के नाम पर मगरूर थे। वह हिंदुस्तान के दूसरे राजाओं को राजा नहीं समझते थे। उन्होंने कभी किसी के सामने सिर नहीं झुकाया था। ऐसी हालत में इस अच्छे मौके को हाथ से जाने देना मैंने मुनासिब नहीं समझा। इसलिए फौरन अपने लड़के को एक इख्तियारात देकर भेजा और राणा को माफी दी। साथ ही एक फरमान पर मैंने अपना पंजा भी लगा दिया। मैंने अपने लड़के को ताकीद कर दी कि उस मुअज्जिज राणा की मनसा ख्वाहिश के माफिक सब बातें काम में लाई जाएं।”

संधि की समीक्षा

  जहांगीर के इस प्रकार के वर्णन से स्पष्ट है कि उसने महाराणा अमर सिंह के साथ वैसा व्यवहार नहीं किया जैसा अन्य हिंदू राजाओं के साथ वह स्वयं या उसके पूर्वज करते आ रहे थे। उसने महाराणा अमर सिंह को कुछ विशेष अधिकार प्रदान किए और उनके लिए यह भी छूट कर दी कि वह मुगल दरबार में यदि नहीं आना चाहते हैं तो ना आएं।
  अमर सिंह ने 5 फरवरी 1615 में खुर्रम के साथ संधि की। 

इस संधि के अनुसार दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हुए कि मेवाड़ के शासक, मुगल दरबार में स्वयं को प्रस्तुत करने के लिए बाध्य नहीं होंगे। महाराणा अमर सिंह अपने स्थान पर अपने किसी संबंधी को मुगल दरबार में भेज देंगे। यह भी सहमति थी कि मेवाड़ के राणा मुगलों के साथ वैवाहिक संबंध नहीं करेंगे।
मेवाड़ को मुगल सेवा में 1500 घुड़सवारों की टुकड़ी रखनी होगी। चित्तौड़ और मेवाड़ के अन्य मुगल कब्जे वाले क्षेत्रों को राणा को वापस कर दिया जाएगा, लेकिन चित्तौड़ किले की मरम्मत कभी नहीं की जाएगी।
राणा को 5000 ज़ात और 5000 सोवरों की मुग़ल रैंक दी जाएगी। डूंगरपुर और बांसवाड़ा के शासक एक बार फिर मेवाड़ के जागीरदार बने । बाद में, जब अमर सिंह अजमेर में जहांगीर से मिलने गए, तो उनका मुगल सम्राट द्वारा गर्मजोशी से स्वागत किया गया और चित्तौड़ किले के साथ-साथ चित्तौड़ के आसपास के क्षेत्रों को सद्भावना के रूप में मेवाड़ को वापस दे दिया गया। यद्यपि उदयपुर मेवाड़ राज्य की राजधानी बना रहा।
हीराचंद ओझा जी का मत है कि इस संधि के कारण ही महाराणा अमर सिंह को इतिहास में वह स्थान प्राप्त नहीं हो सका जो महाराणा प्रताप का है। इसी संधि के कारण लोगों ने उन्हें कम करके आंका है। यदि इस संधि को उनके जीवन से निकाल दें तो उनके जीवन में ऐसा बहुत कुछ है जो आज भी हमारे लिए अनुकरणीय हो सकता है।
हमारा मानना है कि किसी एक घटना के कारण ही किसी नायक को को इतिहास के न्यायालय में अपमानित करते हुए दंडित नहीं करना चाहिए। घटनाओं का निष्पक्षता के साथ आकलन करना चाहिए और दंड देते समय प्राकृतिक नियमों को भी ध्यान में रखना चाहिए। उचित अनुपात में ही दंडित करना प्राकृतिक नियमों की श्रेणी का न्याय होता है। ऐसे में हमको महाराणा अमर सिंह के महान कार्यों का भी स्मरण करना चाहिए। महाराणा अमर सिंह ने जो संधि मुगलों के साथ की थी वह उनका आत्मसमर्पण नहीं था।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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