महाराणा अमर सिंह की महानता
महाराणा प्रताप के ज्येष्ठ पुत्र महाराणा अमरसिंह का जन्म 16 मार्च 1559 को हुआ था। अपने पिता की ही भांति देश भक्ति के भाव उनके भीतर भी कूट-कूट कर भरे हुए थे। यद्यपि इतिहास में महाराणा अमर सिंह को महाराणा प्रताप की अपेक्षा कम करके ही स्थान प्रदान किया गया है। परन्तु इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि महाराणा अमर सिंह महाराणा प्रताप की अपेक्षा इतिहास के लिए पूर्णतया नगण्य हैं। सच्चाई यह है कि महाराणा अमर सिंह देश भक्ति के मामले में किसी अन्य महाराणा से कम नहीं है। उन्होंने अपनी वीरता और साहस के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि उनके भीतर बप्पा रावल की वंश परंपरा के गुण कूट-कूट कर भरे हैं और वह अपनी इतिहास परंपरा से पूर्णतया परिचित हैं। यद्यपि उनके पिता महाराणा प्रताप ने उन्हें आलसी और अकर्मण्य समझा था, परंतु महाराणा अमर सिंह ने अपने जीवन काल में घटित घटनाओं के माध्यम से यह सिद्ध कर दिया कि वह आलसी और अकर्मण्य नहीं थे।
महाराणा अमर सिंह के पिता का नाम महाराणा प्रताप और माता का नाम महारानी अजबदे कुंवर था। जब महाराणा अमर सिंह का जन्म हुआ था तो उस समय मुगल बादशाह अकबर का शासन था। उनके पिता महाराणा प्रताप उस समय चित्तौड़ के कुंवर साहब के रूप में अपना जीवन यापन कर रहे थे। मेवाड़ पर उस समय महाराणा उदय सिंह का शासन था। महाराणा प्रताप की अवस्था अपने ज्येष्ठ पुत्र अमर सिंह के जन्म के समय मात्र 19 वर्ष की थी। जिस समय महाराणा उदय सिंह का देहांत हुआ और महाराणा प्रताप उनके उत्तराधिकारी के रूप में मेवाड़ के राज्य सिंहासन पर विराजमान हुए उस समय 1572 ई0 में महाराणा अमर सिंह की अवस्था 13 वर्ष थी।
संभाला राजसिंहासन का प्रभार
महाराणा प्रताप ने 19 जनवरी 1597 ई0 को अपनी मृत्यु से पूर्व अपने बड़े पुत्र महाराणा अमर सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। मेवाड़ की वंश परंपरा के अनुसार वहां के सामंतों ने महाराणा अमर सिंह को अपना महाराणा स्वीकार किया और महाराणा प्रताप के सपनों को साकार करने का संकल्प लेकर सबने सामूहिक रूप से आगे बढ़ने का संकल्प लिया।
जीवन के कई उतार-चढ़ावों को देखते हुए महाराणा अमर सिंह ने गौरवशाली ढंग से मेवाड़ पर लगभग 23 वर्ष तक शासन किया। वे 26 जनवरी 1620 को अपनी मृत्यु तक मेवाड़ के शासक रहे। देश के गौरवशाली राजवंश की गौरवशाली परंपरा में जन्मे महाराणा अमर सिंह ने बचपन से ही अपने पूर्वजों की गौरव गाथा को सुना था। यही कारण था कि उनके भीतर कहीं से भी किसी भी प्रकार का हल्कापन नहीं था। उन्होंने अपने पिता महाराणा प्रताप सिंह को देश के लिए कष्ट उठाते हुए देखा था। इसके अतिरिक्त उन्हें अपने दादा महाराणा उदय सिंह के बारे में भी भली प्रकार ज्ञान था। उन्हें अपने पूर्वजों के इतिहास से भी गहरा लगाव था। महाराणा अमर सिंह ने अपने पिता महाराणा प्रताप के जीवन काल में ही अपनी वीरता और साहस को एक बार नहीं कई बार सिद्ध किया था। इस सबके उपरांत भी यह तो मानना पड़ेगा कि अमर सिंह महाराणा संग्राम सिंह या महाराणा प्रताप नहीं था।
‘संग्राम’ व ‘प्रताप’ का वंशज बन अमर सिंह आया था।
शौर्य और प्रताप का संगम बन परचम लहराया था।।
महाराणा प्रताप राणा उदय सिंह और महाराणा संग्राम सिंह का जीवन महाराणा अमर सिंह के लिए सर्वाधिक निकट का जीवन था। इन तीनों महापुरुषों ने ही मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने जीवन को देश से मुगलों को समूल नष्ट करने के लिए समर्पित किया। यह बहुत बड़ा संकल्प था और इस संकल्प के मूल में जिस देशभक्ति की पवित्र भावना काम कर रही थी, वह महाराणा अमर सिंह की सबसे बड़ी पूंजी थी। इसी पूंजी को अपनी धरोहर मानकर और इसके साथ-साथ अपनी विरासत मानकर महाराणा अमरसिंह ने आगे बढ़ना आरंभ किया। यही कारण था कि उन्होंने सत्ता संभालते ही मुगलों को यह कड़ा संदेश दे दिया कि वह भी अपने पूर्वजों की वंश परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए ही जन्मे हैं।
नहीं झुकाऊंगा मस्तक को कभी फिरंगी के आगे।
मेरी रगों में खून वही , जिसे देख फिरंगी थे भागे।।
ऐसे में मुगलों को किसी भी प्रकार की भ्रांति में नहीं रहना चाहिए और उन्हें समझ लेना चाहिए कि महाराणा प्रताप उनके पुत्र अमर सिंह के रूप में आज भी एक चुनौती के रूप में जीवित हैं। महाराणा अमर सिंह के इस राष्ट्रीय संकल्प को पूर्ण कराने में उनके सभी सामंतों ने अपना भरपूर सहयोग दिया। अमर सिंह ने अपने सभी सामंतों को साथ लेकर मुगल शासक अकबर और उसके पश्चात जहांगीर को सीधी चुनौती दी थी।
राज्य व्यवस्था को किया सुव्यवस्थित
महाराणा अमर सिंह ने अपने सिंहासनारोहण के पश्चात सामंतों को जागीरें प्रदान कीं। जिन्होंने उनके पिता महाराणा प्रताप के साथ संकटों के काल में उनका साथ दिया था। इस प्रकार महाराणा अपने सभी देशभक्त साथियों को साथ लेकर शांतिपूर्वक शासन करने लगे। उनके परिवार में या राजमहल में किसी प्रकार का विद्रोह पूर्ण वातावरण नहीं था। जबकि उधर मुगलों के दरबार में सत्ता षड्यंत्र उस समय अपने चरम पर थे । अकबर का बेटा जहांगीर अपने पिता के विरुद्ध षड्यंत्र रच रहा था और उसे शीघ्र से शीघ्र अपने पिता का स्थान लेकर शासक बनने की जिद एक भूत के रूप में सिर पर सवार हो गई थी।
मेवाड़ की सारी स्थिति – परिस्थिति से परिचित अकबर यह भली प्रकार जानता था कि मेवाड़ की जनता किस प्रकार अपने देश भक्त शासक के साथ खड़ी रहती है ? यही कारण था कि पहले से ही घावों को सहलाता हुआ अकबर महाराणा अमरसिंह के शासनकाल में भी मेवाड़ पर आक्रमण करने के बारे में सोच नहीं पाया था। अकबर जानता था कि मेवाड़ में सत्ता परिवर्तन चाहे हो गया हो पर किसी का भी हृदय परिवर्तन नहीं हुआ है अर्थात ऐसा कोई भी नहीं है जो उसे अपना शासक स्वीकार कर ले। वह जानता था कि महाराणा अमर सिंह का सत्ता में आना केवल नई बोतल में पुरानी शराब को डाल देने जैसा ही है।
जहांगीर और मेवाड़ का सरदार सलूंबर
1605 ईस्वी में अकबर की मृत्यु के उपरांत जब मुग़ल सत्ता का उत्तराधिकारी जहांगीर बना तो उसने अपने शासन के चौथे वर्ष में मेवाड़ पर आक्रमण करने की योजना बनाई। उसने सोचा था कि अमर सिंह शांति पूर्वक शासन कर रहा है और उसे अब किसी प्रकार के युद्ध का भय नहीं है, ऐसे में उसे परास्त करना सरल होगा। कुछ सीमा तक जहांगीर की ऐसी मान्यता सही-सी ही जान पड़ती है, क्योंकि जब अमरसिंह को जहांगीर के आक्रमण का समाचार मिला तो वह असहज हो उठा था।
इस समय सरदार सलूंबर ने अपनी देशभक्ति और सूझबूझ का परिचय देते हुए एक अद्भुत योजना पर कार्य किया। उसे जैसे ही मुगल आक्रमण की सूचना प्राप्त हुई तो वह मेवाड़ के सरदार अमर सिंह के पास “अमर महल” में पहुंच गए। वहां जाकर सरदार सलूंबर ने अमर सिंह को उत्तेजित करना आरंभ किया। जिससे अमर सिंह मुगलों का सामना करने की योजना पर विचार करने के लिए सहमत हो जाए। राणा प्रताप सिंह के गौरव, यश और कीर्ति की बातें सरदारों ने अमर सिंह को बतानी सुनानी आरंभ कीं।
ऐसा करने का उनका उद्देश्य केवल यही था कि वह अपने पिता की भांति हथियार उठाए और शत्रु विनाश के लिए रणक्षेत्र की ओर प्रस्थान करे। उन सभी सरदारों का नेतृत्व में सरदार सलूंबर कर रहे थे । जब उन्होंने देखा कि अमर सिंह पर उनकी बातों का कोई प्रभाव नहीं हो रहा है और वह युद्ध करने के लिए किसी भी स्थिति में तत्पर नहीं है तो महाराणा प्रताप के वंशज की ऐसी स्थिति देखकर सरदार सलूंबर को अत्यंत क्रोध आया। उसने आवेश में राणा का दाहिना हाथ खींच कर उसे सिंहासन से नीचे उतारने का प्रयास किया और अपने साथी सरदारों से कहा कि :- “सरदारों ! राणा प्रताप के पुत्र को घोड़े पर बैठाकर मेवाड़ के कलंक की रक्षा करो।”
जगा दो शेर को सोते नहीं तो सम्मान जायेगा।
देख लेना ! तब कलेजा को हमारे ‘खान’ खाएगा।।
अपने सोते हुए राजा को जगाने के लिए अथवा कहिए कि युद्ध युद्ध से मुंह फेर चुके तत्कालीन अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित कर शत्रुओं पर वार करने के लिए तैयार करने के लिए सरदार सलूंबर ने इस प्रकार की योजना पर काम किया था। उसके मन में किसी प्रकार का पाप नहीं था और ना ही वह अपने राजा को पदच्युत कर सत्ता पर अधिकार करना चाहता था। सारे सरदार भी इस समय अपने महाराणा के साथ न होकर मौन रूप से अपने सरदार सलूंबर का साथ दे रहे थे। उनके लिए देश सर्वोपरि था। यदि देश के लिए उस समय उनका महाराणा अपने धर्म से पतित होने का मार्ग अपना चुका था तो उसे धकेल कर रास्ते पर लाना उनका सबसे बड़ा कर्तव्य था। कहने का अभिप्राय है कि उस समय मेवाड़ के सरदारों ने राणा अमर सिंह को राज्य सिंहासन से खींच कर लोकतंत्र की तो सुरक्षा की ही थी साथ ही महाराणा के सम्मान की रक्षा भी की थी। जिसका विश्वास उन लोगों ने महाराणा प्रताप को उनके अंतिम क्षणों में दिया था।
जाग गया अमर सिंह का शेरत्व
जब सलूंबर का सरदार और उसके साथी मिलकर जहांगीर की सेना का सामना करने के लिए अमरसिंह को लेकर जा रहे थे तो मार्ग में वे अमर सिंह को उसके पिता महाराणा प्रताप के गौरवपूर्ण कार्यों का स्मरण भी कराते जा रहे थे। कर्नल टॉड ने इस संबंध में लिखा है कि :- "उनको सुनकर अमर सिंह में उत्साह उत्पन्न हुआ। सरदारों के मुंह से उसने सुना कि जिस गौरव की रक्षा करने के लिए राणा संग्राम ने अपने जीवन के अंतिम दिनों तक भी भीषण संकटों का सामना किया था, आज उस गौरव को नष्ट करने के लिए फिर मुगल सेना ने आक्रमण किया है। सरदारों ने कहा - हम लोग जब तक जीवित हैं, उस गौरव को कभी भी नष्ट नहीं होने देंगे।"
निज प्राणों का मोह त्यागकर बलिदानों की जिद करना और उन बलिदानों के आधार पर बार-बार प्राणों को संकट में डालना हमारे वीर बलिदानी इतिहास की परंपरा का एक गौरवपूर्ण पक्ष है। प्रचलित इतिहास ने इस गौरवपूर्ण पक्ष को नष्ट करने का कार्य किया है। तनिक कल्पना कीजिए कि यदि अमर सिंह की भांति उस समय मेवाड़ के सभी सरदार भी निज प्राणों का मोह करते हुए आलसी और प्रमादी हो गए होते तो क्या होता ? बस, इस प्रश्न का उत्तर मिलने पर हमें सहज रूप में पता चल जाएगा कि बलिदानी इतिहास क्या होता है ?
कर्नल टॉड आगे लिखा है कि “अमर सिंह की समझ में सब बातें आ गईं। उसने प्रसन्न होकर और उत्साह में आकर सरदारों के साथ परामर्श किया। उसने समझा कि हम लोगों के पास विशाल सेना नहीं है, परंतु जितने भी राजपूत और शूरवीर हैं अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए प्राणों का बलिदान देने के लिए तैयार हैं। जिससे अमर सिंह के हृदय में उत्साह की वृद्धि हुई। अपनी राजपूत सेना को लेकर वह तेजी के साथ शत्रुओं से युद्ध करने के लिए रवाना हुआ।”
देवरा नामक स्थान पर मुगल सेना और महाराणा अमर सिंह की सेना का आमना सामना हुआ। अब्दुर्रहीम खानखाना का भाई मुगल सेना का नेतृत्व कर रहा था। दोनों ओर की सेनाओं में भीषण संग्राम आरंभ हो गया। महाराणा अमर सिंह और उनके सैनिक आज एक बार फिर मां भारती की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगाकर युद्ध कर रहे थे। महाराणा अमर सिंह ने अबसे पहले भी का युद्ध का नेतृत्व किया था, परंतु वे युद्ध उनके पिता के शासनकाल में लड़े गए थे। अतः आज के युद्ध का उनके लिए विशेष महत्व था। वह इस बात को ध्यान में रखकर ही मैदान में उतरे थे।
अमर सिंह को मिली निर्णायक जीत
भयंकर संग्राम में मरने वालों की संख्या निरंतर बढ़ती ही जा रही थी। हिंदू योद्धाओं ने अनेक मुगलों का वध कर दिया था। मुगल महाराणा अमर सिंह और उसकी सेना के वीर योद्धाओं का रणकौशल देखकर दांतों तले उंगली दबा रहे थे। उन्हें आज भली प्रकार ज्ञात हो गया था कि महाराणा प्रताप चाहे आज जीवित ना हों पर उनकी परंपरा अभी भी जीवित है। इस प्रकार सलूंबरा के देशभक्त सरदार का महाराणा अमर सिंह को उसके सिंहासन से हाथ पकड़कर खींचना काम कर गया। उस दिन हमारे वीर योद्धाओं ने मुगल सेना को इतना भयभीत कर दिया था कि वह युद्ध क्षेत्र से भागने लगी थी और अंत में उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। सूर्यास्त होने से पहले ही युद्ध का निर्णय हो गया। यह घटना 1608 ई0 की मानी जाती है। महाराणा अमर सिंह को इस युद्ध में निर्णायक जीत प्राप्त हुई। उनके चाचा करण ने इस युद्ध में विशेष शौर्य का प्रदर्शन किया था। सारे हिंदू वीर अपनी राजधानी के लिए विजयी होकर लौटे।
लौटे धाम को अपने विजय के जोश में आकर।
खुशी प्रकट की अपनी विजय के गीत गा गाकर।।
आर्य वैदिक परंपरा में पुत्र के लिए आवश्यक माना गया है कि वह पिता का अनुव्रती हो। यही कारण है कि जब किसी विशेष अभियान पर पुत्र होता है तो वह अपने पिता की सूक्ष्म आकृति को मन - मस्तिष्क में रचा- बसाकर काम करता है। हमारे आर्य वीर योद्धा अपने पूर्वजों के सम्मान की रक्षा के लिए यह सोचकर युद्ध करते थे कि आज यदि पराजित हो गया तो यह अपने पूर्वजों का अपमान होगा और यदि विजयश्री प्राप्त हुई तो यह उन्हें एक विनम्र श्रद्धांजलि होगी।
महाराणा अमरसिंह को चाहे देर से ही बात समझ में आई थी पर जब उसकी समझ में बात आ गई तो उसने अपने पूज्य पिता महाराणा प्रताप को सामने खड़े शत्रु पर विजय श्री प्राप्त करके विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की। सभी वीर योद्धाओं ने भी अपने महाराणा के साथ मिलकर जिस प्रकार वीरता का प्रदर्शन किया था, उन सबने भी अपने महानायक महाराणा प्रताप को नमन करते हुए अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की। हम भारत के लोग अपने पिताओं के आदर्शों पर पुष्प अर्पित करने वाले लोग हैं। हम उन्हें कभी मरने नहीं देते हैं और बार-बार उन्हें नमन करते हुए अपनी विजय यात्राओं को चलाने वाले बने रहते हैं। उनके जाने के पश्चात भी मिलने वाली अपनी सफलताओं को उनके श्री चरणों में समर्पित करते रहते हैं और इस प्रकार जीवन भर पिता - पुत्र का संवाद और संबंध भीतर ही भीतर निरन्तर बना रहता है।
जब मेवाड़ में मुगल सेना को मिली हार का संदेश जहांगीर तक पहुंचा तो उसे बड़ी गहरी निराशा हुई । वह मद्यपान का व्यसनी था। जितनी देर उसे नशा रहता था उतनी देर वह मेवाड़ में मिली हार के दु:ख को भूला रहता था , पर नशा उतरते ही उसका मन और भी अधिक अधिक अधीर हो उठता था। उसने मेवाड पर फिर से आक्रमण करने का मन बना लिया। इस बार महावत खान नामक सेनानायक को जहांगीर ने मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजा। वास्तव में महावत खान एक हिंदू था जो धर्मांतरित होकर मुस्लिम बन गया था। जहांगीर के लिए उसके प्राणों का कुछ अधिक मूल्य नहीं था । यही कारण था कि उसने महावत खान को बलि का बकरा बना कर मेवाड़ के लिए भेजा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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मुख्य संपादक, उगता भारत