हमारे देश की पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी एक बार अपनी सोवियत संघ की यात्रा पर थीं, जहां उन्होंने अपना भाषण अंग्रेजी में देना आरंभ कर दिया था। तब उन्हें वहां के राष्ट्रपति की उपस्थिति में इस बात के लिए टोक दिया गया था कि-‘आप अपना भाषण या तो हिंदी में दें या फिर रूसी में दें-आप इस समय रूस में हैं इंग्लैंड में नहीं हैं।’ झेंपी हुई इंदिरा जी अभी संभल भी नही पायी थीं कि इतने में ही एक और व्यंग्य बाण रूसी पक्ष की ओर से चला जो सारे देश को घायल कर गया था और वह था कि-‘विदेशी गुलामी का जुआ धीरे-धीरे ही उतरा करता है।’
आज ना तो वह सोवियत संघ रहा है और ना ही इंदिरा गांधी रही हैं, पर जो कुछ उस समय हमारे प्रधानमंत्री के साथ हुआ था-उस पर चिंतन जितना उस समय आवश्यक था, उतना ही आज भी है। बहुत अच्छा लगा जब हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हाल ही में संपन्न हुई अमेरिका यात्रा के समय वहां के राष्ट्रपति ट्रम्प ने उनका स्वागत अमेरिकन अंग्रेजी में किया और उसका उत्तर हमारे पीएम ने शुद्घ हिंदी में दिया। अपने देश की भाषा के प्रति ऐसा सम्मानभाव यदि हमारा नेतृत्व प्रारंभ से ही दिखाता तो हिंदी निस्संदेह अभी तक विश्व की संपर्क भाषा बन चुकी होती।
हमने विदेशी पराधीनता के जुए को आज तक भी उतारकर नहीं फेंका है। बहुत सी बातें ऐसी हैं, जिन्हें हम एक परंपरा के रूप में ढ़ो रहे हैं और यह मानकर ढ़ो रहे हैं कि इन्हें हमसे अधिक राजनीतिक समझ रखने वाले अंग्रेजों ने बनाया था, इसलिए इन्हें अपनाये रखना चाहिए। देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरूजी की यह सोच एक कुसंस्कार के रूप में हमारा आज तक पीछा कर रही है। जिसे हम छोडऩे को तैयार नहीं हैं।
अब बात सरकारी नौकरियों की करते हैं। अंग्रेजों ने 1835 में इस देश में अपनी शिक्षा प्रणाली लागू की जिसे हम ‘लॉर्ड मैकाले की शिक्षा प्रणाली’ के नाम से जानते हैं। 2 फरवरी 1835 को लॉर्ड मैकाले ने ब्रिटेन की संसद में भाषण दिया और उसने भारत को विजय करने का एक सरल सा उपाय बताया कि इस देश को गुरूकुल विहीन कर दो और गली-गली में अपने स्कूल स्थापित कर दो। बस, हमारा काम सरल हो जाएगा। ब्रिटिश सरकार को लॉर्ड मैकाले की यह बात रूचिकर लगी और उसे अपनी योजना को कार्यरूप देने के लिए मैकाले को खुला छोड़ दिया। लॉर्ड मैकाले का उद्देश्य भारत में काले अंग्रेजों की सेना तैयार करना था, जिनसे वह ब्रिटिश शासन की नींव को भारत में सुदृढ़ता देने का पक्षधर था। इधर भारत में जैसे ही उसके उद्देश्यों को लोगों ने समझा तो वे अंग्रेजी शिक्षा का बहिष्कार करने लगे। उन्होंने कह दिया कि-‘गुरूकुल नहीं तो स्कूल भी नहीं।’ 1835 तक छह लाख गुरूकुल रखने वाला भारत अचानक अशिक्षित कैसे हो गया-तनिक विचारने की आवश्यकता है? भारत तो शिक्षा का प्रचारक, प्रसारक देश था-फिर वह अशिक्षित कैसे हुआ? इस पर विचार करें तो पता चलता है कि भारत के लोगों ने स्कूली शिक्षा का बहिष्कार किया। कारण कि उस शिक्षा का उद्देश्य वह समझ गये थे। उनके बहिष्कार का ही परिणाम था कि 1931 की जनगणना के समय भारत की 32 करोड़ की जनता में से मात्र तीन लाख लोग पढ़े लिखे थे। कहने का अभिप्राय है कि लगभग एक शताब्दी में जाकर अंग्रेज भारत में मात्र तीन लाख काले अंग्रेज खड़े कर पाये। शेष को महर्षि दयानंद जैसी दिव्यात्माओं ने 1835 के 35 वर्ष पश्चात लिखे ‘सत्यार्थप्रकाश’ में गुरूकुलीय शिक्षा की वकालत करके रोक दिया। हमारे देश के लोग उतने अशिक्षित नहीं थे-जितने प्रचारित किये गये, वे गुणे हुए लोग थे और अपनी शिक्षा और संस्कारों से प्रेम करते थे। अंग्रेजों ने शिक्षित उन्हें माना जो उनकी अपनी शिक्षा ले रहे थे और भारत की शिक्षा और संस्कारों को छोड़ रहे थे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी हमारा यह संस्कार आज तक चल रहा है-भारतीय गुरूकुलों की शिक्षा प्राप्त व्यक्ति को आज भी हम शिक्षित नहीं मानते। आज भी वही व्यक्ति शिक्षित माना जाता है जो अंग्रेज कान्वेंट स्कूलों में शिक्षा लेता है। सचमुच पराधीनता का जुआ धीरे-धीरे ही उतरता है।
अंग्रेजों ने काले अंग्रेजों को पढ़ाकर उन्हें नौकरियों का झांसा दिया। पहले नौकरियों पर अंग्रेजों ने सरकार का नियंत्रण स्थापित किया। सारे परम्परागत रोजगारों को उजाडक़र उनका सरकारीकरण करने का प्रयास किया, जिससे कि हर रोजगार सरकार के आधीन हो जाए, और पूरी अर्थव्यवस्था को निचोडऩे का अधिकार सरकार को मिल जाए। अंग्रेजी पढ़े-लिखे काले अंग्रेजों को नौकरी देने से पहले अंग्रेज यह लिखवाते थे कि आप सरकार के विरूद्घ किसी प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेंगे और ना ही किसी प्रकार की राजनीति करेंगे। जो लोग ऐसा लिखकर दे देते थे, वही अंग्रेजी सरकार की नौकरियों के पात्र समझे जाते थे। अंग्रेज उन्हें सेवानिवृत्ति तक रगड़-रगडक़र काम लेते थे और उन्हें ऐसा बना देते थे कि फिर वे अपने देश के बारे में कुछ सोच ही नहीं पाते थे। यही कारण रहा था कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में नौकरी-पेशा लोगों का योगदान लगभग नगण्य ही रहा।
वास्तव में नौकरी पेशा लोगों को राजनीति में अर्थात देश निर्माण के कार्यों में भाग न लेने देना उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन था। जिन अंग्रेजों को ‘नेहरू एण्ड पार्टी’ ने विश्व में लोकतंत्र का जनक कहा-वे अपने कर्मियों को भी लोकतंत्र में लाठीतंत्र से हांकते थे और उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन करते थे। दुर्भाग्यवश नेहरू जी ने भी अपने आदर्श अंग्रेजों की नीति का अनुकरण किया और उन्होंने भी नौकरी-पेशा लोगों को राजनीति से दूर रखा। हमारी यह मानसिकता आज तक चली आ रही है। नौकरी-पेशा लोग राजनीति में भाग नहीं ले सकते। उनका यौवन एक तंत्र में फंसाकर मार दिया जाता है और हमारे शासक उनकी योग्यता को राष्ट्र के लिए अनुपयोगी मानकर उन्हें अपने लिए प्रयोग करते हैं। हर दल इन्हें अपने ढंग से हांकता है। इस हांकने को ही हम ‘प्रशासनिक तंत्र का दुरूपयोग’ कहा करते हैं। सचमुच यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत जैसे देश में लाखों-करोड़ों सरकारी कर्मचारियों को आज भी भेड़-बकरी की भांति हांका जाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने जहां हिंदी को सम्मान दिया है-वहीं उनसे अपेक्षा है कि वे हर भारतीय को अर्थात इन नौकरी पेशा लोगों को भी राजनीति में भाग लेने की अनुमति देकर सम्मान दें। यह उचित नहीं है कि जो व्यक्ति नौकरी व्यवसाय को चुन लेता है-उसके विषय में यह मान लिया जाए कि अब यह तो ग्राम प्रधान से लेकर राष्ट्रपति तक कुछ भी बनने से रहा। व्यवस्था को लोकतांत्रिक दिखना भी चाहिए और होना भी चाहिए। विदेशी पराधीनता के कुसंस्कारों के जुए को फेंकने का अवसर आ गया है। ध्यान रहे कि भारत में 1890 में सरकारी कर्मचारियों ने साप्ताहिक अवकाश लेने के लिए एक आंदोलन चलाया था, जिसे वह समाजसेवा और राष्ट्रसेवा के लिए लेना चाहते थे। उन्हें अब वह अवकाश तो मिल गया परंतु राजनीति में रूचि रखकर राष्ट्रसेवा करने का उनका सपना पूरा नहीं हो सका।