भारत के आधुनिक राजनेता जो किसी नरेश से कम नहीं हैं, जब राजमहलों से बाहर निकलते हैं तो उनके मिजाज, नाज और साज सब अलग प्रकार के होते हैं। गाडिय़ों का लंबा चौड़ा काफिला, पुलिस की व्यवस्था, सरकारी मशीनरी का भारी दुरूपयोग, निजी सुरक्षा कर्मी, कुछ गाडिय़ों में भरा हुआ मंत्रिमंडल (नित्य साथ रहने वाले चापलूसों की मंडली) आदि सब कुछ हमारे गणमान्यों को किसी राजा से कम नहीं रहने देते।
उन्हें लगता है कि तुम तो ईश्वर के यहां से कुछ विशेष बनकर आये हो। यह कुछ विशेष होने का भूत उन्हें सत्तामद के जाम पिलाने लगता है। इससे राजधर्म का विवेक लुप्त हो जाता है और एक विधायक, सांसद या मंत्री का कब अपराधीकरण हो जाता है?- ये उसे भी ज्ञात नहीं हो पाता।
अपराधीकरण के इस रूप परिवर्तन के पश्चात इनका ‘पापबोध’ इन्हें अपने सुरक्षा चक्र को और सुदृढ़ करने के लिए प्रेरित करता है। आप देख सकते हैं हमारे उन जनप्रतिनिधियों को जो जनसेवा को आज भी व्रत के रूप में निभा रहे हैं। उन्हें किसी सुरक्षा की आवश्यकता नहीं होती। जो काले कारनामों से अपने परिवार और देश का नाम रोशन कर रहे हैं। -उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता और इच्छा होती है।
आज स्थिति यह हो गयी है कि जनता भी नेता उसी को मानने लगी है जिसके साथ कई गनर हों, सुरक्षाकर्मी हों, गाडिय़ों का पूरा काफिला हो। यह देखकर कभी-कभी तो यह निर्णय करने में भी बुद्घि चकरा जाती है कि हम आज प्रजातंत्र में जी रहे हैं अथवा राजतंत्र के अधिनायकवादी काल में जी रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में सुरक्षाकर्मी
उत्तर प्रदेश में अब शासकीय नियमों के अंतर्गत प्रत्येक विधायक और सांसद को दो सुरक्षाकर्मी उपलब्ध कराये जाते हैं। ये सुरक्षाकर्मी उत्तर प्रदेश में ही नहीं, अपितु पूरे देश में ही हमारे विधायकों और सांसदों का ‘स्टेटस सिम्बल’ बन चुके हैं।
नई सरकारें आती हैं और कई भूतपूर्व मंत्रियों, सांसदों, अथवा विधायकों से उनके सुरक्षाकर्मी चाहकर भी वापस नहीं ले पातीं। इसका परिणाम यह हुआ है कि अकेले उत्तर प्रदेश में ही ऐसे सुरक्षाकर्मियों की संख्या 7500 से भी अधिक है, जिनका कार्य विशिष्ट जनों की प्राणरक्षा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
बताया जाता है कि इनमें से ढाई हजार से अधिक सुरक्षाकर्मी तो राज्यपाल, मुख्यमंत्री और मंत्री, सांसद या विधायकों को ही मिले हुए हैं, जिनमें जिलों के जिलाधिकारी भी सम्मिलित हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में में इन सुरक्षाकर्मियों के भत्ते के रूप में सरकार को हर वर्ष चालीस करोड़ रूपये से अधिक का राजकोषीय व्यय वहन करना पड़ता है। वेतन इस व्यय से अलग है। सरकार एक सुरक्षाकर्मी को लगभग सोलह हजार रूपये प्रदान कर रही है।
इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कितना रूपया ऐसे सुरक्षाकर्मियों को वेतन देने पर व्यय हो जाता है? निश्चित रूप से यह संख्या एक वर्ष में लगभग डेढ़ अरब हो जाती है। फिर इसी प्रकार देश के अन्य प्रदेशों और केन्द्र सरकार के मंत्रियों, सांसदों आदि पर इसराशि का अनुमान लगाएंगे तो जो आंकड़े सामने आएंगे वे आश्चर्यजनक होंगे।
जिस देश में अरबों रूपया उस देश के गणमान्य जनप्रतिनिधियों की सुरक्षा पर व्यय हो रहा हो और एक बहुत बड़ी जनसंख्या दो वक्त की रोटी के लिए तरस और तड़प रही हो उस देश का विकास कैसे संभव है? यह यक्ष प्रश्न है।
जनता के धन को निजी आवश्यकताओं या निजी सुरक्षा पर इस प्रकार व्यय करना किसी लोकतांत्रिक देश के लोकतांत्रिक नेताओं के आचरण के विरूद्घ है। यह राजतंत्रीय व्यवस्था है। जिसका लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं है। लोकतंत्र में भी कुछ सीमा तक राजनीतिज्ञों की सुरक्षा आवश्यक होती है-यह हम मान सकते हैं। परंतु आज जैसी स्थिति है उसमें तो राजनीतिज्ञों की चोर प्रवृत्ति और उनके भ्रष्टाचारी कार्यों के कारण उन्हें सुरक्षा दी जाती है। इस अवस्था को लोकतंत्र के लिए अपशकुन ही माना जाएगा।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)