पूजनीय प्रभो हमारे……भाग-64
स्वार्थभाव मिटे हमारा प्रेमपथ विस्तार हो
गतांक से आगे….
निस्संदेह यह प्रेम ही था जो आपको वहां ले गया जो संकीर्ण सीमाओं के बंधन से परे है। प्रेम के सामने प्रांत, देश, महाद्वीप, महासागर, संप्रदाय, भाषा, रंग-रूप, धन संपदा आदि सबके सब तुच्छ हैं।
एक विद्वान लिखते हैं-”प्रेम सब प्रकार की संकीर्णताओं को भस्मसात कर देता है। संसार के अंधकारमय वातावरण में प्रेम ही एक प्रकाश स्तंभ है। यही सन्मार्ग का प्रकाशक होता है। इसी में पथभ्रष्ट व्यक्ति सन्मार्ग पर चलता है। तभी तीर्थ स्थानों में जल से भी पवित्र यदि कुछ है तो वह है प्रेम। प्रेम विपत्ति का सामना तो भले ही कर ले, परंतु वह अवहेलना सहन नहीं कर सकता। संसार का बड़े से बड़ा ऐश्वर्य और बड़े से बड़ा वैभव प्रेम के साम्राज्य के आगे तुच्छ है। प्रेम की आधारशिला दृढ़ता है शिथिलता नहीं। प्रेम में स्वयं कोमलता पायी जाती है। परंतु वह कठोरता पर सदा विजय प्राप्त करता है। आत्मा की सच्ची तृप्ति का यदि कोई कारण है तो प्रेम। प्रेम अनन्यता का पोषक होता है। उसमें अनन्यता का कोई स्थान नहीं। जब हृदय में प्रेम झरना बहने लगता है तो मानो मनुष्य के हृदय में ईश्वरीय प्रेरणा काम कर रही होती है। सच्चे प्रेम में वासना का कोई स्थान नहीं होता। प्रेम वह रसमय काव्य है जिसमें शुष्कता का कोई स्थान नहीं है। प्रेम का अर्थ है सरसता और रसमयता। प्रेम सदाबहार है प्रेम के राज्य में शिशिर ऋतु का समावेश नहीं है।”
प्रेम के इसी सदाबहार रसमयी स्वरूप का जितना ही अधिक विस्तार होगा, संसार की संकीर्णताएं उतने ही अनुपात में उतनी ही शीघ्रता से धूलि धूसरित होती जाएंगी।
डा. विक्रम साराभाई के जीवन की घटना है। सन 1948 में अहमदाबाद के महात्मा गांधी विज्ञान संस्थान में दो विद्यार्थी प्रयोगशाला में प्रयोग कर रहे थे। तभी प्रयोग करते समय अधिक विद्युत प्रवाह हो जाने से यंत्र जल गया। दोनों विद्यार्थी यह देखकर डर गये। उन्हें लगा कि अब गुरू जी की डांट पड़ेगी। थोड़ी देर में गुरूजी भी उधर ही आते दिखायी दिये। उनमें से एक बोला गुरूजी आ रहे हैं, उन्हें बता दो कि यंत्र में आग लग गयी है।”
दूसरे ने कहा कि मैंने यह नुकसान नहीं किया है इसलिए तुम स्वयं बता दो।
तब तक गुरूजी और भी निकट आ गये थे। उन्होंने दोनों विद्यार्थियों के बीच संवाद सुन लिया था। इसलिए उन्होंने स्वयं ने ही कहा-क्या बात है?
डरते-डरते एक विद्यार्थी ने कह दिया कि ”विद्युत प्रवाह अधिक हो जाने से विद्युत मोटर जल गया है गुरूजी।”
”गुरूजी ने बड़ा प्रेरणास्पद उत्तर दिया। बस इतनी सी बात है? इसकी चिंता मत करो। यह तुम्हारी परीक्षा का काल है, प्रयोगों के समय ऐसा अक्सर होता है, गलतियों से हमें कुछ सीखना चाहिए। भविष्य में सावधानी रखना।”
प्रेम ने संकीर्णताओं को काट दिया, चिंतन और बौद्घिक क्षमताओं को खुला छोड़ दिया, उन्हें और भी विस्तार दे दिया। कह दिया कि विद्युत मोटर जल गया तो कोई बात नहीं-विद्युत मोटर के स्वार्थभाव को छोडक़र तुम अपना बौद्घिक विस्तार करो। ऐसे महान विचार के पीछे गुरूजी के हृदय में अपने विद्यार्थियों के प्रति प्रेम का अथाह सागर लहरा रहा था। यदि वह उस सागर में न सराबोर होते या उस प्रेमरस के रसिक न होते तो उनके अनेकों विद्यार्थियों का निर्माण बाधित हो जाता, या विक्रजी के लिए विद्युत मोटर ही महत्वपूर्ण हो जाती तो उनके द्वारा अनेकों प्रतिभाओं का निर्माण किया जाना संभव नही होता। इस प्रकार प्रेम प्रतिभा निर्माण कराता है, प्रतिभाओं के निर्माण के सारे अवसर उपलब्ध कराता है। व्यक्ति को एक दूसरे के प्रति संवेदनशील, सहयोगी ओर शुभचिंतक बनाकर जोड़ता है।
जब प्रेम हृदय को अपने रंग में पूर्णत: रंग लेता है तो हृदय से निकले शब्द दूसरे के हृदय को प्रभावित करते हैं। लोककल्याण से अभिभूत महात्मा बुद्घ चले जा रहे थे, किसी जंगल की ओर। अचानक कुछ लोगों ने उन्हें जंगल की ओर जाने से रोका। कहने लगे-”इधर एक भयानक राक्षस डाकू अंगुलिमाल रहता है। वह लोगों को मारकर उनकी एक अंगुली काटकर उसे अपनी माला में पिरो लेता है, इस प्रकार वह सौ व्यक्तियों की माला बनाकर पहनना चाहता है। अब तक वह अनेकों लोगों की हत्या कर चुका है।…..आप इधर न जाइये, कहीं अंगुलिमाल मिल गया तो कुछ भी संभव है।”
महात्मा बुद्घ रूके नहीं। उन्होंने विनम्रता से उन लोगों को अपने सामने से हटा दिया, और पूर्ववत अपने गंतव्य की ओर बढऩे लगे। अंगुलिमाल भी अपने शिकार की खोज में ही था। उसने दूर से महात्मा बुद्घ को आते देख, मन ही मन प्रसन्नता व्यक्त की। उसे लगा कि शिकार सीधा आ रहा है, इसे तो मारने के लिए भागना दौडऩा भी नहीं पड़ेगा। जैसे महात्मा बुद्घ अंगुलिमाल के निकट आये, अंगुलिमाल ने उन्हें रूकने के लिए कहा पर बुद्घ रूके नहीं। अंगुलिमाल को क्रोध आ गया उनके ना रूकने को उसने अपनी प्रतिष्ठा के विरूद्घ समझा। इसलिए वह महात्मा बुद्घ को मारने के लिए दौड़ पड़ा। वह चिल्लाकर बोला-‘ठहरो!’ महात्मा बुद्घ ने तुरंत बड़ी विनम्रता से प्रेमपूर्ण शब्दों में कहा-”मैं तो ठहर गया पर तुम कब ठहरोगे?” बुद्घ के शब्दों में जो आकर्षण था वह आज से पूर्व अंगुलिमाल ने किसी के भी शब्दों में देखा सुना नहीं था। बुद्घ के शब्द कानों में गूंजते हुए उसे भीतर तक हिला गये। आज उसे पहली बार लगा कि शब्दों की शक्ति क्या होती है?
क्रमश: