मुगलिया लेखकों की विश्वसनीयता
औरंगजेब को भी भारतीय इतिहास में सम्मानपूर्ण स्थान देने वाले कुछ छद्म धर्मनिरपेक्षी इतिहासकारों ने उसके जीवन संबंधी मिथ्या तथ्यों, किस्से-कहानियों को भी पूर्णत: सत्य माना है। जबकि भारतीय राजा महाराजाओं के बहुत से सत्य वर्णनों को भी उनके चाटुकार दरबारी कवियों, लेखकों के अतिश्योक्तिपूर्ण कथानक कहकर उपेक्षित कर दिया है। औरंगजेब के ‘आलमगीरनामा’ की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए एच.एम. इलियट का कहना है :-
”उस कृति के प्राक्कथन से ही स्पष्ट नही है कि लेखक को उस कृति के संपादन में प्रोत्साहन मिलता, अपितु यह भी कि जहां भी बादशाह के व्यक्तिगत चरित्र को प्रभावित करने वाली घटना हो-उसके वर्णन पर तो तनिक भी विश्वास न किया जाए। यही बात लगभग सभी समकालीन इतिहासकारों पर लागू होती है जो उबाने वाली प्रशंसा तथा चाटूक्ति युक्त शीर्षकों से भरे होते हैं। इतिहासकार को स्वयं बादशाह द्वारा छानबीन करने के लिए पृष्ठों को जमा करना पड़ता था तथा संदेहास्पद स्थलों पर स्वयं बादशाह द्वारा निर्देशित होना पड़ता था कि क्या रखा जाए और क्या निकाल दिया जाए? शाही स्रोता से स्वयं अपराधी बनने की आशा नही की जा सकती। अत: हमें सदैव ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे सभी इतिहास एकपक्षीय वृतांत हैं-जिन पर किसी भी दशा में भरोसा नही किया जा सकता।” (संदर्भ : ‘मध्यकालीन यावन इतिहास का सप्तम खण्ड’- पृष्ठ 174-175)
यदि निष्पक्षता से भारतीय इतिहास का लेखन और अध्ययन हो तो हमें विश्वास है कि पूरा प्रचलित इतिहास ही पलट जाएगा। हम देखेंगे कि तब हमारा राष्ट्रीय आंदोलन भी 1857 से 1947 की अवधि से खिसककर 712 ई. तक चला जाएगा और वही हमारा राष्ट्रीय इतिहास बन जाएगा।
अपने मूल विषय पर…..
हम दुर्गादास राठौड़ और उनके साथी स्वतंत्रता सैनानियों के विषय में चर्चा कर रहे थे। पूर्व के आलेख में हमने खण्डेला के युद्घ का वर्णन किया था। अब वहां से आगे चलते हैं। खण्डेला से शाही सेना जीणमाता के मंदिर की ओर बढ़ी। वहां पर भारतीय पक्ष का साथ प्रकृति ने भी दिया। इस मंदिर में एक स्थान पर मधुमक्खियों का विशाल छाता रखा था। किसी कारण से ये मधुमक्खियां बिगड़ गयीं और उन्होंने शाही सेना पर आक्रमण कर दिया। जिससे उत्तेजित होकर शाही सेना खाटू श्याम जी के मंदिर की ओर बढ़ी, पर वहां लोगों ने खाटूश्याम की मूत्र्ति को पहले ही मिट्टी में छुपा दिया था जिससे वह टूटने से बच गयी। यहां पर राजा बहादुरसिंह के साथियों ने शाही सेना के साथ जमकर संघर्ष किया था। जिसमें कितने ही वीरों ने अपना प्राणोत्सर्ग किया।
हिंदूवीर राजसिंह की प्रतिज्ञा
जब शाही सेना अपने पूर्ववत्र्तियों (मुस्लिम सुल्तानों और बादशाहों) का अनुकरण करते हुए चारों ओर मूत्र्ति विध्वंस के खेल में लगी हुई थी और हिंदुओं के मंदिर तोडक़र उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण करना उसके लिए नित्यप्रति की बात हो गयी थी, तब हिंदू योद्घाओं में भी देशभक्ति का भाव इस प्रकार ऊंचाई पर चढ़ता जा रहा था कि अनेकों हिंदू वीर अपने धर्मस्थलों की रक्षार्थ या उनके पुनरोद्घार का संकल्प ले रहे थे। इसके लिए लोग भांति-भांति की सौगंध उठाते थे। कोई कहता कि-‘मैं जब तक अमुक मंदिर का पुनर्निर्माण नही करा दूंगा तब तक धरती पर ही सोऊंगा।’ कोई दूसरा कहता कि-‘मैं अपने घर ही तब लौटूंगा जब यह कार्य पूर्ण कर दूंगा इत्यादि।’
ऐसी ही प्रतिज्ञा रियां के ठाकुर प्रतापसिंह गोपालदास के छोटे पुत्र राजसिंह आलनियावास ने की। उसने कहा कि-‘मैं जब तक मारवाड़ में स्थित मस्जिदों को धराशायी कर उनके स्थान पर अपने वैभवशाली पूजा स्थलों का पुन: निर्माण नही करा दूंगा और जब तक अपने पूजा स्थलों में पूर्व की भांति पूजा-पाठ का विधिवत शुभारंभ नही करा दूंगा तब तक अन्नग्रहण नही करूंगा और पलंग के स्थान पर धरती पर शयन करूंगा।’
(संदर्भ : ‘अतिजोदय’ नामक ग्रंथ)
समय आने पर प्रतिज्ञा पूर्ण करके दिखाई
राजसिंह के इस संकल्प के फलस्वरूप अगस्त 1679 ई. में शाही सेना से उसका जमकर संघर्ष हुआ। इस युद्घ में उसके क्रांतिकारी साथियों में बाघसिंह सुंदरदासोत चांदावत, अजबसिंह बिट्ठल दासोत चाम्पावत, शिवदानसिंह चांपावत, जगमालोत सूरसिंह जैसे अनेकों वीर योद्घाओं ने सहयोग किया। शाही सेना का नेतृत्व सादुल्ला खां कर रहा था। तब मेड़तिया सरदार उस की ओर बढ़े तो सादुल्ला खां उनकी वीरता का अधिक समय तक सामना नही कर सका। उसे युद्घभूमि से भागना पड़ा और मेड़ता के मालकोट दुर्ग में जाकर छिप गया।
मेड़तिया सरदार भी किले की ओर लपके और उन्होंने मालकोट के दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया। शत्रु भयभीत होकर चुपचाप भीतर ही छिपा रहा। तब अगले दिन भारत के शेरों ने सीढिय़ों से चढक़र दुर्ग में प्रवेश करना आरंभ किया, जबकि दूसरी ओर जयसिंह चांदावत मेड़तियां ने दुर्ग के लकड़ी के द्वार को जलाकर उधर से रास्ता बना लिया। अब हिंदू वीर दनादन भीतर प्रवेश कर गये उन्होंने सादुल्ला खां को पकड़ लिया और उसका वध कर दिया। मेड़ता की मस्जिद को गिरा दिया गया और मंदिरों में पुन: पूजा-पाठ, आरती-कीत्र्तन आदि का कार्य विधिवत आरंभ हो गया।
इस प्रकार भारतीय अस्मिता की रक्षार्थ भारत के शेरों ने जिस प्रतिज्ञा को लिया था उसे पूर्ण कर दिखाया। औरंगजेब मन मसोसकर रह गया। राठौड़ ने सुजानसिंह के नेतृत्व में सिवाना के शाही किलेदार कोचगबेग को उसे 85 सैनिकों के साथ युद्घ में परास्त कर उनका अंत कर दिया और 1 अक्टूबर 1679 को सिवाना राठौड़ के अधिकार में आ गया। इसके पश्चात सारे जोधपुर राज्य में औरंगजेब के क्रूर शासन से मुक्ति पाने के लिए स्वतंत्रता की ज्वाला भडक़ उठी। जिसके विषय में सुनकर औरंगजेब को असीम कष्ट हुआ। उसने जोधपुत्र को अपने अधिकार में लेने के लिए बख्शी सर बुलंद खां को भेजा पर वह कुछ भी नही कर सका।
आइए, कुछ जानें अपने पुष्कर तीर्थ के विषय में
पुष्कर दीर्घकाल से हिंदुओं का तीर्थस्थल रहा है। इस स्थान का बाल्मीकि रामायण के बालकांड में (61/3-4) उल्लेख आता है। जिसमें यहां विश्वामित्र के तप करने की बात कही गयी है। महाभारत के वन पर्व में पुष्कर को महानतीर्थ और तप: स्थली कहकर महिमामंडित किया गया है।
लोगों की ऐसा भी मान्यता है कि पाण्डवों ने अपने वनवास काल के कुछ दिन यहां व्यतीत किये। महर्षि अगस्त्य और राजा भर्तृहरि की गुफाएं यहां आज भी उपलब्ध हंै। महाभारत ‘वन-पर्व’ (89/16-17) के अनुसार प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना (अर्थात सृष्टि आरंभ में) के समय यहां एक विशाल यज्ञ किया था। वह यज्ञकुण्ड ही कालांतर में विशाल सरोवर के रूप में परिवर्तित हो गया। इसीलिए यहां ब्रह्मा जी का विशाल मंदिर आज भी विद्यमान है।
पुष्कर का ऐतिहासिक युद्घ
बौद्घकाल में भी इस स्थल की पवित्रता बनी रही। बादशाह जहांगीर ने सन 1613 ई. में यहां भ्रमण किया। तब उसने राणा अमरसिंह के चाचा सागर के द्वारा निर्मित एक मंदिर को तुड़वाकर तालाब में फिंकवा दिया था। (‘जहांगीरनामा’- पृष्ठ 98-99, ‘अरावली प्रकाशन जयपुर’)।
औरंगजेब के काल में सूबेदार तहब्बरखां 3000 की सेना के साथ पुष्कर की ओर चला। मेड़तियों, उदावते चाम्पावतों और कूंपावत शाखा के राठौड़ों ने यहां स्थित मस्जिद को तोडऩे की योजना बनायी। यह मस्जिद औरंगजेब के आदेश से बनवायी गयी थी, जिस पर पूर्व में केशवराम जी का मंदिर रहा था। नवाब तहब्बर खां ने हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए एक सौ गायों की बलि कराके मस्जिद में नमाज अदा करायी। जिससे हिंदुओं में और भी अधिक विद्रोही भावना जाग्रत हो गयी।
अपने धर्म के इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए हिंदू शक्ति का बड़ी तीव्रता से ध्र्रुवीकरण होने लगा। इसमें राजसिंह आलनियावास, राजसिंह उदावत रायपुर और महासिंह केशरीसिंहहोत चाम्पावत जैसे सरदारों ने विशेष भूमिका निभाई और ंिहंदू लोग इनके नेतृत्व में एकत्र होने लगे। तहब्बर खां अपने साथ (हरविलास साहड़ा के अनुसार) एक सौ गायों को यहां बलि देने के लिए साथ लेकर आया था।
पुष्कर में दोनों पक्षों में घोर संग्राम आरंभ हो गया। शाही सेना के हाथियों पर जब हिंदू योद्घाओं ने तीव्राघात करने आरंभ किये तो वे असंकित होकर भागने लगे। तहब्बरखां के धनुष की प्रत्यंचा टूट गयी और उसका हाथी युद्घ भूमि से भाग निकला। निरंतर तीन दिन तक यह युद्घ होता रहा। इस युद्घ में मेड़तियों के सरदार सर्वाधिक मारे गये। अंत में तहब्बर खां को युद्घ भूमि से भागना पड़ गया।
मुगलों को मिली पराजय
‘अजीत विलास’ ग्रंथ में लिखा है:-”आज उदावत मारवाड़ के अधराजिया (राज्य में आधा भाग) सिद्घ हुए। मेड़तियां मारवाड़ के मुकुट में दर्शित हुए जैतावत कूंपावात और चाम्पावातों ने भी उन्हीं के समान अपने को प्रकट किया। इस प्रकार राठौड़ों की विभिन्न शाखाओं के वीर स्थान-स्थान से शस्त्र सज्जित होकर अजमेर स्थित शाही सेनानायक नवाब तहब्बर खां पर टूट पड़े। ठाकुर राजसिंह के नेतृत्व में इन राठौड़ योद्घाओं ने असुरों पर तलवारों के प्रहार कर हिंदुत्व को चरितार्थ करते हुए हिंदू धर्म की दुहाई फिराई। बादशाह ने मंदिरों को गिराकर मस्जिदें बनायी थीं, उन मस्जिदों को नष्ट कर वहां पुन: मंदिर बनाये गये। राठौड़ रूपी सिंहों के प्रहारों से विचलित होकर तहब्बर खां भाग गया, और मारवाड़ में सर्वत्र हिंदुत्व की जय-जयकार के बोल गूंजने लगे।”
यद्यपि मुगल कालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने इस युद्घ में तहब्बर खां का विजयी होकर जाना बताया है। पर सारे राजस्थान के तत्कालीन इतिहासकारों ने तहब्बर खां की पराजय का उल्लेख किया है। इतना तो निश्चित है कि इस युद्घ में मुगल शक्ति को भारी धक्का लगा और बड़ी संख्या में हिंदू योद्घा भी काम आये। ‘औरंगजेब नामा’ में इस युद्घ का समय अगस्त 1674 ई. लिखा है।
दुर्गादास राठौड़ इन दिनों अपने घावों का उपचार करा रहा था और सलावे में निवास कर रहा था। वह घायलावस्था में ही अपने हिंदू सरदारों से जाकर मिला। उसके साथ यादवण रानी भी थी।
महाराणा राजसिंह को याद किया गया
इस युद्घ के पश्चात हिंदू योद्घाओं को अपमानित व प्रताडि़त करने का क्रम मुगलों की ओर से और भी अधिक बढ़ गया। तब बहुत से सरदार एकत्र होकर सालावे में जाकर (अक्टूबर 1679 ई. में) दुर्गादास से मिले। जहां इन लोगों ने मुगल अत्याचारों से मुक्ति पाने में महाराणा राजसिंह उदयपुर की सहायता लेने का निर्णय किया। जिसके लिए उन्होंने महाराणा को एक पत्र लिखा। उस पत्र को लेकर कई प्रमुख सरदार महाराणा के पास गये।
महाराणा ने अपेक्षा के अनुसार उन सरदारों का अच्छा स्वागत सत्कार किया और बालक अजीतसिंह के लिए अपनी ओर से बारह गांवों की जागीर देने की घोषणा की। इस स्वागत सत्कार में महाराणा राजसिंह का धर्मप्रेम, देशप्रेम और अतिथि प्रेम तीनों ही झलकते हैं। हिंदुओं पर बाल-बार पारस्परिक फूट का आरोप भी महाराणा के इस सर्वस्व प्रेमभाव के समक्ष स्वत: मिथ्या सिद्घ हो जाता है।
इसके अतिरिक्त महाराणा राजसिंह ने अपने अतिथियों को मुगलों का मिलकर सामना करने का आश्वासन भी दिया और उन्हें सम्मानपूर्वक अपने राज्य से विदा किया।
बादशाह महाराणा पर हुआ क्रुद्घ
जब बादशाह औरंगजेब को महाराणा राजसिंह के विषय में यह जानकारी मिली कि उसने राठौड़ों को सहायता देने का आश्वासन देकर एक काल्पनिक बच्चे को अजीतसिंह मानकर (क्योंकि बादशाह अभी तक उसी बच्चे को वास्तविक अजीतसिंह मान रहा था जो उसे दिया गया था) उसकी सहायता जागीर देकर की है तो वह महाराणा के प्रति क्रोध से भर गया। उसने महाराणा पर एक के पश्चात एक निरंतर तीन शाही आदेश भिजवाये कि अजीतसिंह को यथाशीघ्र वह बादशाह को सौंप दे।
महाराणा राजसिंह जिस कुल परंपरा के शासक थे, उसमें ऐसी गीदड़ भभकियों का कोई प्रभाव नही होना था, इसलिए महाराणा राजसिंह भी अपने लिए गये निर्णय पर अडिग रहे। जिससे औरंगजेब और भी अधिक क्रोध में आ गया। यद्यपि बादशाह को यह भली प्रकार पता था कि यदि मारवाड़ को मेवाड़ का साथ मिल गया तो परिणाम क्या हो सकता है? इसलिए परिस्थितिवश वह अभी चुप ही रहा। उसने मारवाड़ और मेवाड़ के साथ मिलते ही संपूर्ण राजस्थान के एक साथ खड़े हो जाने की स्थिति का पूर्वानुमान कर लिया था। इसे आप यूं भी कह सकते हैं कि हिन्दू शक्ति की एकता को देखकर औरंगजेब जैसा बादशाह भयभीत हो गया था।
महाराणा राजसिंह को भी इस समय अपने जातीय लोगों के सहयोग की आवश्यकता थी। वह भी मुगल सत्ता से मन ही मन घृणा करता था। इसलिए मारवाड़ के सरदारों से भेंट होने से पूर्व शाहजहां के काल में महाराणा ने चित्तौड़ के किले का उद्घार कराना आरंभ कर दिया था। इसे शाहजहां ने जहांगीर और मेवाड़ के मध्य हुए समझौते की अवज्ञा माना था। तब बादशाह ने अपनी सेना भेजकर उस मरम्मत के कार्य को न केवल रूकवा दिया, अपितु जहां निर्माण कार्य हो गया था उसे गिरवा भी दिया था। इसलिए अब मारवाड़ के सरदारों से मिलकर महाराणा को भी ऊर्जा मिल गयी थी।
हाड़ी रानी का बलिदान
भारत का इतिहास हमारी वीरांगनाओं के बलिदानों से भी भरा पड़ा है। हाड़ी रानी एक ऐसी ही वीरांगना थी। वह रूपनगर (किशनगढ़) के शासक की पुत्री थी। जिसे औरंगजेब ने अपने से विवाह करने के लिए प्राप्त करना चाहा और इस विषय में इस रूपवती कन्या के भाई पर अनुचित दबाव बनाया।
कन्या का भाई राजा मानसिंह बादशाह के प्रस्ताव को सुनकर डर गया। तब उस चारूमती नामक राजकन्या ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए महाराणा राजसिंह के लिए पत्र लिखा कि-‘मैं आपको अपने मन में अपना पति स्वीकार कर चुकी हूं, पर बादशाह औरंगजेब मुझे अपनी बेगम बना लेना चाहता है। जिसके लिए उसकी सेना मेरे पिता के राज्य की ओर आ रही है। मेरे पिता दुर्बल हैं, यदि समय रहते आपकी सहायता नही मिली तो अनर्थ हो जाएगा।’
चारूमती ने यह भी लिख दिया कि-‘यदि औरंगजेब के महल में मेरा डोला गया तो यह रूपनगर के राजा की कन्या का डोला न होकर महाराणा राजसिंह की पत्नी का डोला होगा।’
महाराणा इस पत्र को पढक़र कुछ धर्म संकट में फंस गया। तभी किसी सरदार ने साहस करके पूछ लिया कि महाराज इस पत्र में अंतत: ऐसा क्या लिखा है जिसने आपको चिंतित कर दिया है? तब महाराणा ने वह पत्र उस सरदार की ओर कर दिया। सरदार ने पत्र पढक़र सभी को सुना दिया। पर महाराणा अब भी वैसे ही चुप बैठे थे। तब उस सरदार ने कडक़कर कहा कि महाराज इस पत्र से आपके चिंतित होने का क्या संबंध है? महाराज ने स्थिति को संभालते हुए कहा-‘उस कन्या को लाने के लिए मैं योजना बना रहा हूं और कोई बात नही है।’
तब महाराणा ने एक पान का बीड़ा दरबार के मध्य में एक तलवार की नोंक पर रख दिया। उसने कह दिया कि जिसमें साहस है वह इस बीड़ा को उठा सकता है पर उसे अपनी वीरता सिद्घ करने के लिए औरंगजेब की सेना को बीच में रोकना होगा और हम तब तक चारूमती से विवाह कर उसे यहां ले आएंगे। इस शर्त को सुनकर सभी मौन रह गये।
तभी सरदार चूड़ावत उठा और उसने वह बीड़ा उठा लिया। इस सरदार का अभी विवाह होकर आया था। वह अपनी सेना को युद्घ के लिए तैयार करने चला गया युद्घ के लिए प्रस्थान करने से पूर्व उसके मन में अपनी नई नवेली पत्नी को एक बार देखने का मन आया। अत: वह अपने भवन पहुंच गया। हाड़ी रानी ने इस प्रकार असमय अपने स्वामी के आने का कारण पूछा जिसे सुनकर वह प्रसन्न हो गयी कि उसका पति कितना वीर है? उसने गर्व के साथ अपने पति को विदा किया।
पर सरदार चूड़ावत ने यूं ही कह दिया कि यदि मुझे कुछ हो गया तो? तब रानी ने स्पष्ट कर दिया कि महाराज आपकी यह सेविका उस समय के अपने कत्र्तव्य को जानती है। इसलिए आप निस्संकोच युद्घ के लिए जाएं।
सरदार चूड़ावत आगे बढ़ गया, पर उसका मन अपनी पत्नी में ही अटका था। इसलिए उसने अपने एक सैनिक को फिर रानी के पास भेज दिया कि कोई निशानी रानी से लेकर आओ।
सैनिक के पुन: लौटकर आने का प्रयोजन समझकर हाड़ी रानी ने समझ लिया कि पति पर उसका प्यार उसके कत्र्तव्य मार्ग में बाधा बनकर सवार हो गया है। इसलिए वह भीतर गयी और एक थाल लेकर द्वार पर खड़े सैनिक के पास आयी। उससे कहा कि-‘मैं जो कुछ तुम्हें दूं उसे अपने महाराज को सम्मान पूर्वक रूमाल से ढंककर ले जाना और अपने स्वामी को ससम्मान जाकर सौंप देना और मेरी ओर से कह देना कि महाराज रानी ने तो अपना काम कर दिया है-अब आप करें।’
इतना कहकर हाड़ी रानी ने अपनी कटारी से अपना सिर काटा और गिरने से पहले उसे थाली में रखकर सैनिक की दिशा में आगे बढ़ा दिया। सैनिक यह दृश्य देखकर दंग रह गया।
सैनिक ने रूमाल से ढककर उस निशानी को सरदार चूड़ावत को जाकर दिया। रूमाल हटाते ही सरदार के भीतर वीररस छा गया। उसने रानी के लंबे बालों की माला बनाकर उसके सिर को अपने गले में लटका लिया और पागल होकर शत्रु सेना को काटने लगा।
इस भीषण युद्घ में चूड़ावत का बलिदान हुआ पर वह अपने लक्ष्य में सफल रहा, तब तक राणा राजसिंह रूपनगर (रूपनगर) की राजकुमारी को ले आया था। इस प्रकार एक कन्या की रक्षा के लिए एक रानी ने अपना और अपने सुहाग का बलिदान दे दिया। यह है भारत की नमनीय वीर परंपरा। यहां धर्म-देश और संस्कृति की रक्षा के लिए लोगों ने अपना सर्वस्व दांव पर लगाया है।
क्रमश:
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