महाराणा प्रताप की अंतिम समय की वेदना
हमारे देश में पृथ्वीराज चौहान का चरित्र चित्रण करते समय उन्हें वैसा दिखाया जाता है जैसा मोहम्मद गौरी के इतिहास लेखकों ने उन्हें दिखाया है। इसी प्रकार सल्तनत काल में भी हमारे इतिहास नायकों को सल्तनत काल के शासकों के चाटुकार दरबारी लेखकों की दृष्टि से दिखाने का प्रयास किया जाता है। अंत में यही स्थिति महाराणा प्रताप की भी है ,जिन्हें हमको अकबर और उसके चाटुकार इतिहास लेखकों की दृष्टि से दिखाए जाने का प्रयास और प्रबन्ध किया जाता है। दु:ख की बात यह है कि हममें से भी कई लोग हैं जो अपने इतिहास नायकों को विदेशी खलनायकों के इतिहास लेखकों की दृष्टि और दृष्टिकोण से देखने के अभ्यासी हैं।
महाराणा प्रताप को एक महानतम योद्धा और सच्चे जननायक के रूप में नहीं दिखाया जाता, जिसके वह वास्तविक अधिकारी हैं। वह एक ऐसे इतिहास नायक हैं जिन्होंने अपनी मातृभूमि के लिए सभी संप्रदायों के लोगों को साथ लेकर स्वाधीनता का आंदोलन जारी रखा। जिस महान व्यक्तित्व के कारण सभी लोग जाति ,वर्ग, संप्रदाय ,भाषा, क्षेत्र , प्रांत आदि की संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर एक घाट पर पानी पीने के लिए भीतर से प्रेरित हो सकें और ऐसा कार्य बड़ी स्वेच्छा से और स्वाभाविक रूप से करने के अभ्यासी हो जाएं, वह व्यक्तित्व असाधारण होता है। महाराणा प्रताप जैसे इतिहासनायक किसी भी देश या समाज को बड़े सौभाग्य से मिलते हैं। क्योंकि इन जैसे व्यक्तित्व के कारण सारे समाज और राष्ट्र को असीम ऊर्जा प्राप्त होती है। चेतना जागृत होती है और ऊर्जा व चेतना मिलकर सभी देशवासियों में नवजीवन का संचार करते हैं। सभी देशवासियों के भीतर नवजीवन का संचार होना बहुत बड़े पुरुषार्थ का प्रतीक होता है।
असीम ऊर्जा का स्रोत हो, वही है सच्चा वीर।
जगत गति को पा सके झुके दुश्मन की शमशीर।।
महाराणा प्रताप की वीरता हम देशवासियों के लिए कितनी अतुलनीय रही है ?- इसका प्रमाण यही है कि वह आज तक भी राष्ट्रभक्त देशवासियों के लिए प्रातः स्मरणीय बने हुए हैं। देशभक्ति के लिए लोग उनका उदाहरण देते हैं और उनके चित्र को देखकर भी उनके प्रति श्रद्धा भावना प्रकट करते हैं। स्वाभाविक रूप से जिस व्यक्तित्व के सामने मस्तक झुक जाए वह जननायक होता है और जिसके चित्र को देखकर मन भीतर से घृणा से भर जाए, वह खलनायक होता है। यदि कोई देश खलनायकों को अपने इतिहास का छद्म जननायक बनाकर ढोने का प्रयास करता है तो समझिए कि वह अपने आप मरने की तैयारी कर रहा है। यदि हम एक मरता हुआ राष्ट्र नहीं हैं, मरता हुआ समाज नहीं हैं,मरती हुई जाति नहीं हैं तो हमें अपने जननायकों का सम्मान करना ही होगा।
युद्ध के बलिदानियों को दिया सम्मान
महाराणा प्रताप के विषय में यह एक बहुत ही आदर्श उदाहरण है कि उन्होंने युद्ध में बलिदान होने वाले वीरों के उत्तराधिकारियों को अत्यंत आदर दिया। अपनी ओर से पितृतुल्य सम्मान और स्नेह देकर उनके पूर्वजों या बड़ों के बलिदान का सम्मान किया और अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की।
बलिदान देने वाले परिवारों के सदस्यों के पुनर्वास के लिए महाराणा प्रताप ने अपूर्व प्रयास किए । जिससे पता चलता है कि वह अपने समय के सबसे बड़े मानवाधिकारवादी थे। उनके भीतर कृतज्ञता का भाव था और अपने लोगों का सम्मान करना वे अपनी मर्यादा का पालन करने के समान समझते थे।
उन्होंने नारी के उत्थान के लिए भी कार्य किया। नारी के द्वारा किए जा रहे जौहर की प्रथा को बंद करने का भी उन्होंने प्रयास किया। नारी के प्रति उनका ऐसा सम्मान का भाव निश्चय ही प्रशंसनीय माना जाना चाहिए। इससे इस बात को स्थापित करने में हमें सहायता मिलेगी कि राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों से पहले महाराणा प्रताप के द्वारा ही सती प्रथा को समाप्त करने की कार्यवाही प्रारंभ हो चुकी थी।
लोगों में जननायक के रूप में लोकप्रिय थे
महाराणा प्रताप के जननायक स्वरूप का सम्मान मेवाड़ के लोग भी करते थे । इतना ही नहीं , मेवाड़ से बाहर भी उनके प्रति लोगों में सम्मान का भाव था। तभी तो आज तक भी सारे देश में उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। उनके जननायक होने के कारण ही शहबाज खान अपने प्रत्येक अभियान में असफल रहा था। यदि शहबाज खान को स्थानीय लोगों का सहयोग और समर्थन प्राप्त हो गया होता तो वह कब का महाराणा प्रताप को पकड़ चुका होता। पर स्थानीय लोगों ने शहबाज खान सहित किसी भी हमलावर को अपना सहयोग और समर्थन महाराणा के विरुद्ध नहीं दिया। इसका कारण केवल एक था कि लोग उन्हें अपना जननायक समझते थे। माना जाता है कि शहबाज का पहला अभियान अक्टूबर 1577 ईस्वी में, दूसरा दिसंबर 1578 ई0 में और तीसरा अभियान अर्थात आक्रमण नवंबर 1579 ई0 में हुआ था। तीनों अभियानों में उसे महाराणा प्रताप के सामने मुंह की खानी पड़ी थी। वास्तव में शहबाज खान की इस प्रकार की असफलता का एक कारण यह भी था कि पूरे मेवाड़ की जनता महाराणा प्रताप को प्राण प्रिय मानती थी।
हर बार परीक्षा में सफल हुए
महाराणा प्रताप ने जब से मेवाड़ की गद्दी संभाली थी तब से लेकर 1579 ई0 तक कोई भी वर्ष ऐसा नहीं गया था जब उनके पराक्रम और पौरुष की परीक्षा नहीं ली गई हो। यह केवल महाराणा प्रताप ही हो सकते थे जो हर बार की परीक्षा में सफल होते रहे। इसके अतिरिक्त छोटे-छोटे अनेक युद्ध उन्होंने इतनी बड़ी संख्या में लड़े कि यदि उनका आकलन किया जाने लगे तो उनके शासन काल के लगभग प्रत्येक माह में युद्ध होते रहने का खाका स्पष्ट रूप से खिंच जाएगा।
हर बार सफलता पाई थी राणा ने जंग के आंगन में।
जीत सका ना कोई शत्रु लड़ते राणा को समरांगण में।।
अपने शासनकाल में महाराणा प्रताप को जितने भी युद्ध लड़ने पड़े या फिर युद्धों के लिए सैन्य अभियान पर जाना पड़ा, स्पष्ट है कि उन सब अभियानों के लिए उन्हें धन की आवश्यकता पड़ती ही थी। महाराणा के लोग इन सैन्य अभियानों की सफलता के लिए या मुगलों की सेना से सामना करने के लिए धन प्राप्ति के लिए बाहरी क्षेत्रों में जाकर वहां से धन वसूलते थे। ये क्षेत्र सामान्यतः मुगल आधिपत्य वाले होते थे या मेवाड़ से शत्रुता मानने वाले होते थे।
दामोदर लाल गर्ग जी ने अपनी पुस्तक “महाराणा प्रताप” के पृष्ठ संख्या 81 पर लिखा है कि :- “इसी दौरान भामाशाह का भाई ताराचंद मालवा से धन वसूल कर रामपुरा को जा रहा था कि अचानक शहबाज की उस पर नजर पड़ी तो उसने उसे घेरने का प्रयास किया , किंतु घायल होकर वहां से भाग निकलने में सफल हो गया था ।” दामोदर लाल गर्ग जी आगे बताते हैं कि इस प्रकार की अनेक हरकतें करने के बाद भी अपने इस लंबे समय में भी कोई उपलब्धि शाहबाज खान प्राप्त नहीं कर सका।”
कुंवर अमर सिंह की योग्यता
महाराणा प्रताप का पुत्र अमर सिंह भी अपने पिता की भांति ही योग्य था। वह अपने पिता के प्रति गहरी निष्ठा भी रखता था। यही कारण है कि महाराणा प्रताप के शासन काल के समय अमर सिंह मुगलों की गतिविधियों पर बड़ी गंभीरता से ध्यान रखता था। 1580 – 81 ई0 में अकबर ने मेवाड़ मुकुट महाराणा प्रताप को अपने चरणों में लाने के लिए भारत के भाई और मां भारती के लाल महाराणा प्रताप सिंह के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई करने के लिए अब्दुर्रहीम खानखाना को भेजा था।
उस समय महाराणा प्रताप का पुत्र कुंवर अमर सिंह गोगुंदा में था। जैसे ही उसे खानखाना के आक्रमण की जानकारी हुई तो वह शेरपुर तक आ पहुंचा और शेरपुर पहुंचकर अपने शौर्य का परिचय देने का मन बनाया। महाराणा प्रताप को अमर सिंह ने इस हमले के प्रतिरोध से दूर रखा, वह स्वयं ही खानखाना का प्रतिरोध करने के लिए चल पड़ा। कुंवर अमर सिंह ने बहुत ही गोपनीयता और वीरता के साथ शत्रु पक्ष पर ऐसा घातक हमला बोला कि शत्रु पक्ष की सेना कुछ ही समय में भाग खड़ी हुई। इस प्रकार अकबर का मेवाड़ जीतने के लिए खानखाना के नेतृत्व में भेजा गया सैन्य दल भी निराश और हताश होकर लौट गया। इस बार खानखाना को अकबर के समक्ष प्रस्तुत होने पर बड़ी लज्जा अनुभव हुई।
मेवाड़ मेवाड़ बन गई थी देश के लिए एक अंगीठी
मुगलों ने भारत के लोगों के भीतर भय उत्पन्न करके शासन करने का बार-बार संकल्प लिया और अपने संकल्प की पूर्ति के लिए बार-बार अनेक नरसंहार किए, परंतु उनके नरसंहारों के भयानक दृश्यों को देखकर भी हिंदू जनमानस में और विशेष रूप से मेवाड़ के लोगों में मुगलों के प्रति किसी प्रकार का भय नहीं था। पूरी निर्भीकता और निडरता के साथ वे अपने स्वाधीनता आंदोलन को चलाते रहे। लोगों के भीतर इस प्रकार की निडरता और निर्भीकता के कारण ही पराभव के उस काल में भारत अपने आपको बचाने में सफल रहा। जैसे जाड़े में ठिठुरते हुए लोग अंगीठी के पास बैठकर रात काट लेते हैं और उन्हें रजाई की आवश्यकता नहीं होती, वैसे ही कोई जाति या कोई देश या कोई राष्ट्र आपत्ति काल में किसी एक महापुरुष या किसी क्षेत्र के कुछ लोगों के भरोसे रात काट लेता है। कहना न होगा कि उस समय देश के लिए मेवाड़ एक अंगीठी हो गई थी। जिसके नाम सुमरने मात्र से ही लोगों में जोश और देशभक्ति का लावा धधकने लगता था।
ताप से मिटने लगा, लोगों का संताप।
मेवाड़ अंगीठी बन गई, काटण लागी पाप।।
महाराणा प्रताप और उनके वीर सैनिकों ने 1576 से लेकर 1581 तक हर वर्ष मुगलों को पराजय का स्वाद चखाया। यह सारा चमत्कार महाराणा प्रताप के नेतृत्व में ही संपन्न हो सकता था। मुगलों का प्रतिकार और प्रतिरोध करके महाराणा प्रताप और उनके वीर देशभक्त सैनिकों ने उसे यह आभास कराया कि वह अपने आपको निष्कंटक न माने। चुनौती उसके लिए बनी हुई है और जब तक मेवाड़ वालों के प्राणों में प्राण हैं, तब तक उसके लिए चुनौती निरंतर खड़ी रहेगी।
स्वाधीनता आंदोलन की जो लपटें उस समय मेवाड़ से उठ रही थीं, उनको देश में दूर बैठे लोग देख रहे थे और भारत उनको देखकर मचल रहा था। उसे इस बात की बहुत बड़ी प्रसन्नता थी कि इसी भूमि के एक कोने में स्वाधीनता का प्रचंड आंदोलन चल रहा है। उसकी लपटें उस समय सारे देश के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गई थीं। महाराणा प्रताप का शौर्य और साहस देश के लोगों के लिए प्रेरणास्पद और अनुकरणीय हो गया।
आग से फैलती है आग
1580 - 83 ई0 में बंगाल और बिहार में मुगलों के विरुद्ध स्वाधीनता आंदोलन उठ खड़ा हुआ। ये आंदोलन बड़े व्यापक स्तर पर हुए थे और अकबर को इन आंदोलनों को दबाने के लिए राजा टोडरमल सहित अपने कई सेनापतियों को सेना के साथ अलग-अलग कई बार भेजना पड़ा था। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि आग से आग ही फैलती है और आग होती भी खेलने के लिए ही है। आग को आप छुपा कर नहीं रख सकते और यदि रखोगे तो जैसे ही सावधानी हटेगी वैसे ही वह बड़े व्यापक रूप में विस्फोट करेगी। तब उसके विस्फोट को संभालना कठिन हो जाएगा। जिस देश या जाति के भीतर आग नहीं होती, वे राख बनकर मिट जाते हैं। पर जिनके भीतर आग होती है वे देश कभी भी अपने आप को मिटने नहीं देते हैं। भारत उन्हीं देशों में से एक रहा है जिसके पास आग रही है। हमारे देश की आग हमारे वीर योद्धाओं के तेज, शौर्य और साहस में प्रकट होकर शत्रु का काल बनकर आई है।
जब अकबर बंगाल और बिहार की ओर जाकर वहां की आग को बुझाने में लग गया तो उसका ध्यान मेवाड़ की ओर से अपने आप भंग हो गया। उसका परिणाम यह हुआ कि इसके पश्चात महाराणा प्रताप को निष्कंटक होकर राज्य करने का अवसर प्राप्त हो गया। फलस्वरूप मेवाड़ में धीरे-धीरे शांति स्थापित होने लगी और जन सामान्य का जीवन पटरी पर लौटने लगा। इसी समय महाराणा प्रताप ने अपने साम्राज्य विस्तार पर काम करना आरंभ कर दिया। महाराणा को गोगुंदा, उदयपुर और मांडलगढ़ जैसे क्षेत्रों पर अधिकार करने का अवसर प्राप्त हो गया। जिसका प्रतिरोध करने के लिए कोई शत्रु उनके सामने नहीं था। इसी प्रकार पहाड़ी क्षेत्रों पर भी महाराणा प्रताप ने मुगल थानों को समाप्त करने की योजना पर काम करना आरंभ कर दिया।
इस संबंध में दामोदर लाल गर्ग ने लिखा है कि :- “रही बात पहाड़ी भाग के मुगल थानों की , इन्हें समाप्त करने के लिए महाराणा प्रताप सिंह ने एक सेना इकट्ठी की। रसद और हथियारों का प्रबंध किया और सैनिकों को ध्यान देकर उत्साहित किया। इस व्यवस्था के साथ ही राणा ने सिरोही ,ईडर तथा जालौर आदि क्षेत्रों के सहयोगियों में उत्साह का संचार किया। अच्छी नस्ल के घोड़े खरीदे और नवयुवकों की एक सेना भर्ती की। यह सभी काम राणा प्रताप ने इस ढंग से किए और कराए कि शत्रु को इन सब बातों की कोई भनक भी नहीं लग सकी। राणा प्रताप ने शत्रुओं को भ्रमित करने के लिए यह अफवाह भी फैला दी कि वह तो अब मेवाड़ छोड़कर अन्यत्र जा रहे हैं। इस अफवाह का यह प्रभाव हुआ कि मेवाड़ की पहाड़ी में स्थित मुगल चौकियां निश्चिंत हो गई। उनमें सजगता के विपरीत शिथिलता एवं कर्म के प्रति उदासीनता का वातावरण उत्पन्न होने लगा।”
महाराणा प्रताप को इस समय भील लोगों का बड़ा भारी समर्थन प्राप्त हुआ। महाराणा प्रताप ने अपने विश्वसनीय साथियों के साथ मिलकर मुगल सेना से कई भयंकर युद्ध लड़े और अनेक स्थानों से मुगलों को मार काटकर भगा दिया। महाराणा प्रताप ने इस काल में 36 थानों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इस प्रकार यहां से महाराणा के जीवन में एक नई ज्योति प्रकाशित हुई।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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मुख्य संपादक, उगता भारत