निजी सुरक्षा के नाम पर अर्थशक्ति का अपव्यय, भाग-2

सुरक्षा बनाम विकासवाद
एक दो हजार की जनसंख्या वाले गांव के लिए एक योजना में एक अस्पताल, एक प्राथमिक विद्यालय, एक पानी की टंकी, बिजली की व्यवस्था करने और अन्य विकास कार्य करने पर यदि एक करोड़ रूपया भी व्यय हो तो अकेले उत्तर प्रदेश में एक वर्ष के अंदर 200 गांवों का उद्घार तो मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के लिए मिले इस सुरक्षातंत्र को हटाने से ही उपलब्ध हो सकता है।
पूरे पांच वर्ष में इनकी संख्या एक हजार गांव की होगी। जिस प्रदेश में एक योजना में एक हजार गांवों का कायाकल्प हो जाए, उसका विकास देश के लिए ही नहीं विश्व के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है।
साथ ही इस विकास से कितने ही डॉक्टरों को, अध्यापकों को, बिजलीकर्मियों को, उनके अधीनस्थ कर्मचारियों को तथा अन्य विभागों के कर्मियों को रोजगार के नये अवसर उपलब्ध होंगे। यह संख्या निश्चित रूप से हजारों में होगी।
इस प्रकार सारी बातों पर यदि विचार किया जाए तो हमारे गणमान्य जनप्रतिनिधि हमारे विकास और रोजगार के अवसरों को छीनने वाले लोग ही बनकर रह गये हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य हमारा और क्या होगा? इसी को ‘रक्षक का भक्षक’ हो जाना कहा जाता है।
सुरक्षा का तंत्र के प्रकार
अब थोड़ा सा इन गणमान्य जनप्रतिनिधियों के सुरक्षा तंत्र के विषय में भी विचार कर लिया जाए। हमारे जन-प्रतिनिधियों को कई प्रकार से वर्गीकृत किया गया है। जितना ऊंचा पद या हैसियत है उस व्यक्ति को उतनी ही ऊंची सुरक्षा उपलब्ध करायी जाती है।
इस वर्गीकरण के आधार पर नेताओं को जो सुरक्षा उपलब्ध है-उसमें पांच प्रकार की सुरक्षा व्यवस्था सम्मिलित है। जो इस प्रकार है-एक्स श्रेणी, वाई श्रेणी, जैड श्रेणी, जैड स्पेशल श्रेणी और व्यक्तिगत सुरक्षा।
‘एक्स श्रेणी’-इसमें दो सुरक्षाकर्मी (स्वचालित हथियारों से लैस) होते हैं।
‘वाई श्रेणी’-इसमें दो अत्याधुनिक हथियार बंद सुरक्षाकर्मियों के साथ-साथ एक हैड कांस्टेबल और आधा दर्जन सिपाही प्रदान किये जाते हैं।
‘जैड श्रेणी’-इस श्रेणी के लोगों को आधा दर्जन सशस्त्र सुरक्षाकर्मी मिलते हैं, साथ ही दो हैड कांस्टेबल तथा आठ सिपाहियों का दल मिलता है। जबकि सरकार की ओर से कार और पेट्रोल की व्यवस्था पूरे दस्ते के लिए अलग से उपलब्ध होती है।
‘जैड स्पेशल श्रेणी’-इसमें हमारे गणमान्यों के लिए हर समय आधा दर्जन कमांडो सुरक्षाकर्मी होते हैं, जिनकी ड्यूटी में हर आठ घंटे में परिवर्तन हो जाता है। कई दरोगा और एक इंस्पेक्टर, कई सिपाही व एक उपाधीक्षक स्तर का अधिकारी भी उपलब्ध होता है।
‘व्यक्तिगत सुरक्षा’-कुछ हल्के स्तर की होती है। यह सुरक्षा सामान्यत: किसी दल विशेष के पहुंच वाले भूमाफिया, घोटालेबाज या पार्टी पदाधिकारी तक को भी उपलब्ध हो जाती है। जो जिला स्तर पर जिलाधिकारी एवं वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के द्वारा भी यह सुरक्षा मिल जाती है।
सुरक्षा की आवश्यकता कब होती है?
एक रिक्शा चालक को आप देखिये या किसी कृषक को आप देखिये। दोनों अपने-अपने कार्य में जब थक जाते हैं तो एक अपने रिक्शे को ही किसी पेड़ की छाया में खड़ा करके नींद ले लेता है, जबकि कृषक अपने खेत में ही खड़े किसी वृक्ष की शीतल छाया में लेटकर नींद की आगोश में इस प्रकार छिप जाता है जैसे कोई बच्चा हार थककर मां की गोद में आकर सो गया है। इन दोनों को खुले में सोने पर भी अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं है। क्योंकि दोनों के कर्म अच्छे हैं। इसलिए भीतर से किसी प्रकार का भय नहीं है। भय और कर्म का चोली दामन का साथ है। निष्पक्ष हृदय में भय अथवा तनाव नहीं होता। एक संत बियावान जंगल में झोंपड़ी बनाकर इसलिए रह लेता है जबकि एक पापी हृदय व्यक्ति ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं के मध्य भी स्वयं को असुरक्षित अनुभव करता है।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)

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