हम यह मानते हैं कि शासक वर्ग के लिए सुरक्षा की आवश्यकता होती है। उसके उत्तरदायित्वों के अनुसार समाज में उसके शत्रु भी होते हैं। राजकीय कार्यों में विघ्न डालने वाले भी होते हैं, इसलिए शासन को उसकी सुरक्षा का पूर्ण दायित्व लेना अपेक्षित है। किंतु ऐसा कहना अद्र्घसत्य ही है-पूर्णसत्य नहीं।
इस अद्र्घसत्य को आप वह मौलिक सत्य भी कह सकते हैं, जिसकी आड़ में हमारे राजनीतिज्ञ पापपूर्ण कार्य करते हैं और सुरक्षातंत्र प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं। आप देखें यहां-
राजनीतिक हत्याएं होती हैं।
राजनीतिज्ञ अबलाओं को तंदूर में भून देते हैं।
राजनीतिक प्रतिस्पद्र्घा को समाप्त कर दिया जाता है।
राजनीतिक प्रॉपर्टी डीलिंग कर रहे हैं।
भू माफियाओं को शरण दे रहे हैं।
कमीशन खाकर अपनी आवंटित निधि से पैसा दे रहे हैं।
अपराधियों को पालते हैं।
हर दुष्टतापूर्ण कार्य यथा दंगा, फसाद, अपराध, हत्या आदि के पीछे किसी न किसी राजनीतिज्ञ का वरदहस्त अवश्य छिपा हुआ होता है।
तब ऐसी परिस्थितियों में जो उसे सुरक्षा उपलब्ध होती है समझो कि वह उसका पात्र नहीं है। क्योंकि यदि ऐसे दुष्कर्म करते हुए उसके प्राणों को संकट है तो यह उसके पापकर्म हैं जिनसे जूझने के लिए उसे अकेला छोड़ दिया जाना चाहिए।
हां! राजनीतिक निर्णयों के लेने और उन्हें क्रियान्वित करने से जो प्राण संकट उत्पन्न होता है-वह सुरक्षा प्राप्त करने का पर्याप्त कारण हो सकता है।
यथा जो लोग यहां छदम धर्मनिरपेक्षता के विरूद्घ राष्ट्रभक्तिपूर्ण कार्य कर रहे हैं, वह भी कई लोगों की ‘हिटलिस्ट’ में होते हैं, उनकी हैसियत और पद की गरिमा के अनुकूल उन्हें सुरक्षा उपलब्ध कराया जाना नितांत आवश्यक है।
ऐसे ही अन्य ठोस आधार ढूंढक़र सुरक्षा उपलब्ध कराने की कार्यनीति यहां तैयार की जा सकती है।
जनसाधारण की सुरक्षा का संकट
अभी बिहार में लालू प्रसाद यादव के शासन का अंत होकर राष्ट्रपति शासन चल रहा है। राबड़ी-शासन के समय बिहार में लगभग अस्सी हजार हत्याएं हुई और 42 हजार बलात्कार के मामले प्रकाश में आये।
ये आंकड़े सरकारी हैं। जो हमेशा वास्तविकता से न्यून ही हुआ करते हैं। सच क्या हो रहा होगा? इसका पता वहां के थानों में दर्ज रिपोर्टों के आधार पर भी नहीं चल सकता, क्योंकि रपट दर्ज कराने के लिए वहां जाने देने का अर्थ है-एक और हत्या। ऐसी स्थिति में सच का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।
जहां का नेता भयाक्रांत हो वहां की प्रजा तो स्वाभाविक रूप से ही भयभीत होने को बाध्य हो जाती है। नेता को प्राणों का संकट है तो जनसाधारण को कितना संकट होगा?-यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
दिल्ली के लिए सभी समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुआ है कि वहां दस लाख बांग्लादेशी मुस्लिमों को नियंत्रण में रखना पुलिस के लिए भारी सिरदर्द बन चुका है। हत्या, लूट, डकैती की घटनाएं बढ़ रही हैं। गनर व पूरे सुरक्षा काफिले के साथ जब हमारे जनप्रतिनिधि किसी ऐसी घटना के पश्चात घटनास्थल पर पहुंचते हैं तो रटे-रटाये कुछ वक्तव्य हवा में उछालकर चले आते हैं, यथा-
इस घटना के लिए उत्तरदायी संगठन या लोगों को बख्शा नहीं जाएगा।
दोषियों के विरूद्घ कठोर कार्यवाही की जाएगी।
सरकारी ऐसी घटनाओं में लिप्त लोगों को अब और सहन नहीं करेगी इत्यादि।
जो राजा स्वयं चूहे की भांति बिल में घुस रहा हो और बिल्ली बाहर विध्वंस मचा रही हो तो वह अपराधियों के विरूद्घ क्या कठोर कार्यवाही करेगा? जनता को मरना है, इसलिए उसे मरने के लिए खुला छोड़ दिया गया है और साथ ही बिल्ली को भी विध्वंस करने के लिए खुला छोड़ दिया गया है।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
मुख्य संपादक, उगता भारत