कर्नल टॉड का कथन है ….
इस प्रसंग में कर्नल टॉड के एक काल्पनिक कथन को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। उसने महाराणा के प्रवास काल के विषय में लिखा है :-
” कुछ ऐसे अवसर आए जब अपनी अपेक्षा से भी अधिक प्रिय व्यक्तियों की आवश्यकताओं ने महाराणा को विचलित कर दिया। उसकी महारानी पहाड़ों की चट्टानों या गुफाओं में सुरक्षित नहीं थी और ऐश्वर्य संपन्न रहकर पलने के योग्य उसके बच्चे भोजन के लिए चारों ओर रोते रहते थे, क्योंकि अत्याचारी मुगल उनका इस प्रकार पीछा करते रहते थे कि महाराणा को बना बनाया भोजन पांच बार छोड़ना पड़ा। एक समय उसकी रानी तथा कुंवर अमर सिंह की स्त्री ने जंगली अन्न के आटे से ( यहां भी घास की रोटी नहीं लिखी है ) रोटियां बनाई और प्रत्येक के भाग में एक – एक रोटी आई। आधी रोटी उस समय के लिए और आधी दूसरे समय के लिए।
प्रताप उस समय अपने दुर्भाग्य पर विचार करने में डूब गया था कि उसकी लड़की के हृदय से निकली चीत्कार ने उसे चौंका दिया। बात यह हुई कि एक जंगली बिल्ली लड़की की रखी हुई रोटी उठा ले गई, जिससे वह मारे भूख के चिल्लाने लगी। उस समय प्रताप सिंह का धैर्य विचलित हो गया। अपने पुत्रों और संबंधियों के प्रसन्नता पूर्वक रणक्षेत्र में अपने साथ रहते हुए देखकर यही कहा करता था कि राजपूतों का जन्म इसलिए ही होता है, परंतु भोजन के लिए अपने बच्चों की चिल्लाहट के कारण उसकी दृढ़ता स्थिर न रह सकी। ऐसी स्थिति में राज्य करना उसने शाप तुल्य समझा और अकबर को अपनी कठिनाइयां कम करने के लिए लिखा।”
इस काल्पनिक कहानी में यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि चाहे जो भी परिस्थितियां रही थीं, पर महाराणा प्रताप कम से कम घास की रोटी नहीं खा रहे थे । वह जंगली वनस्पतियों के अन्न से बनी रोटी खा रहे थे। स्पष्ट है कि जंगली अन्न में चना, ज्वार, बाजरा, मक्का सभी आते हैं, और यही हमारा राजस्थानी विशेष भोजन है। इस काल्पनिक कहानी पर विचार करते समय हमें यह बात फिर ध्यान रखनी चाहिए कि जिस महाराणा के लिए मेवाड़ के लोग अपना सर्वस्व समर्पित करने के लिए तत्पर रहते थे, उसे वह इस प्रकार दाने-दाने के लिए मोहताज कभी नहीं कर सकते थे।
हीराचंद ओझा जी का कथन है ….
इस संबंध में गौरी शंकर हीराचंद ओझा के उस कथन को भी हमें ध्यान में रखना चाहिए ,जिसमें वह कहते हैं कि :- “यह संपूर्ण कथन अतिशयोक्ति पूर्ण और कपोल कल्पना मात्र है। महाराणा प्रताप को कभी कोई ऐसी आपत्ति सहनी नहीं पड़ी थी। उत्तर में कुंभलगढ़ से लगाकर दक्षिण में ऋषभदेव से परे तक अनुमान 90 मील लंबा और पूरब में देबारी से लगाकर पश्चिम में सिरोही की सीमा तक करीब 70 मील चौड़ा पहाड़ी प्रदेश जो एक के पीछे एक पर्वत श्रेणियों से भरा हुआ है, महाराणा प्रताप के अधिकार क्षेत्र में था। महाराणा तथा सरदारों के बाल बच्चे आदि इसी सुरक्षित क्षेत्र में रहते थे। आवश्यकता पड़ने पर उनके लिए अन्नादि लाने को गोडवाड़ ,सिरोही, ईडर और मालवा की ओर से मार्ग खुले हुए थे। उक्त पहाड़ी प्रदेश में जल तथा फल वाले वृक्षों की अधिकता होने के अतिरिक्त बीच-बीच में कई स्थानों पर समान भूमि आ गई है और वहां सैकड़ों गांव आबाद हैं। ऐसे ही वहां कई पहाड़ी किले तथा गढ भी बने हुए हैं और पहाड़ियों पर हजारों भील बसे हुए हैं। वहां मक्का, चने, चावल आदि अन्न अधिकता से होते हैं और गायें, भैंसें आदि जानवरों की अधिकता के कारण घी, दूध आदि पदार्थ पर्याप्त मात्रा में मिल सकते हैं।”
ओझा जी के इस कथन से स्पष्ट है कि महाराणा प्रताप 6300 वर्ग मील क्षेत्रफल के राजा तो सदा रहे। ऐसी स्थिति में उनके लिए भूखे मरने की स्थिति नहीं आ सकती थी।
महाराणा प्रताप यह भली प्रकार जानते थे कि वह जिस कार्य योजना को क्रियान्वित करने में लगे हुए हैं , उसको पूर्ण करने के लिए कितने और किस प्रकार के संकट उनके लिए आ सकते हैं? उन्हें यह भली प्रकार ज्ञात था कि इस डगर पर चलने वाले लोगों के लिए प्राण संकट सदा बना रहता है। उनकी इस प्रकार की परिस्थितियों को मेवाड़ के लोग भी समझते थे। यही कारण था कि महाराणा के साथ उनके अनेक देशभक्त साथी सदा साथ रहते थे जो अरावली के चप्पे-चप्पे में बिखरे रहते थे और किसी भी संदिग्ध मुगल को या किसी भी व्यक्ति को देखकर उसकी सूचना तुरंत महाराणा प्रताप तक पहुंचा दिया करते थे। अपने जागरूक गुप्तचर विभाग की सक्रियता के कारण ही महाराणा प्रताप कभी अकबर की पकड़ में नहीं आ पाए थे। महाराणा प्रताप के जागरूक गुप्तचर विभाग के कारण ही मुगल सेना पहाड़ों में प्रवेश करने से भी बस्ती थी।
महाराणा प्रताप के गुरिल्ला सैनिक
महाराणा ने अपने सैनिकों को गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया हुआ था । उन्हें जहां भी कोई मुगल सैनिक दीख जाता था उसे तो यमलोक पहुंचा ही देते थे यदि किन्ही विशेष अवसरों पर मुगल सेना भी कहीं पहाड़ी क्षेत्र में दिखाई दे गई तो उसे भी वह गाजर मूली की भांति काटकर समाप्त कर पहाड़ों में जाकर छुप जाया करते थे। इस योजना को क्रियान्वित करने में महाराणा प्रताप ने जिस प्रकार का कौशल दिखाया था, वह अत्यंत सराहनीय है। उनके इसी प्रकार के कार्य का अनुकरण आगे चलकर शिवाजी महाराज द्वारा तत्कालीन मुगल सत्ता के विरुद्ध किया गया था।
महाराणा प्रताप द्वारा जीवन भर चित्तौड़ की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया गया। उन्होंने चित्तौड़ को मुगलों से वापस लेने के लिए अपनी प्रजा को जो वचन दिया था, उसे निभाने के लिए वह संघर्ष करते रहे। यह बात सही है कि कई बार उनके परिवार वालों को तो उनकी प्रतिज्ञा के चलते कष्ट अनुभव हुआ पर उन्होंने स्वयं ने कभी कष्टों को कष्ट नहीं समझा।
कुंवर अमर सिंह को लगाई मीठी फटकार
एक बार की बात है कि उनके पुत्र अमर सिंह से उसकी पत्नी ने पूछा कि जिस प्रकार की अप्रत्याशित कठिनाइयों और आपत्तियों को हम झेल रहे हैं, क्या स्वामी इनका कभी अंत भी आएगा या यह यूं ही चलता रहेगा ? इस पर अमर सिंह ने कह दिया कि पता नहीं, इन कष्टों का अंत कब होगा ? क्योंकि पिताश्री ने एक बड़े बादशाह से शत्रुता मोल ले ली है और अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए उन्होंने सारे राजकीय सुखों को तिलांजलि दे दी है। उनके इस प्रकार के हठीले व्यवहार के कारण लगता नहीं कि सूर्य शीघ्र उग आएगा। वास्तव में महाराणा प्रताप के पुत्र और पुत्रवधू के बीच के इस संवाद से यह पता चलता है कि वे कठिनाइयों के दौर से दु:खी हो चुके थे। कहीं ना कहीं उनके भीतर कोई ऐसी बात पनप रही थी कि अब इन दु:खों से मुक्ति मिलनी चाहिए और पिताश्री को अकबर से शत्रुता न पालकर मित्रता कर लेनी चाहिए। मित्रता का अभिप्राय संधि कर लेना ही था और संधि का अर्थ था अकबर के सामने जाकर नतमस्तक हो जाना। जिसे महाराणा प्रताप कदापि स्वीकार नहीं करने वाले थे।
महाराणा प्रताप ने स्वयं ने पुत्र और पुत्रवधू का यह संवाद सुन लिया था। अपने पुत्र के मुंह से ऐसे शब्दों को सुनकर उन्हें बड़ा कष्ट हुआ। अपने सभी सरदारों के समक्ष उन्होंने अपने पुत्र कुंवर अमर सिंह को बुलाया और कह दिया कि अमर सिंह बहुत ही सुविधा भोगी राजकुमार है। अतः उससे उन्हें कोई विशेष अपेक्षा नहीं है। वह नहीं कह सकते कि मेरी मृत्यु के उपरांत अमर सिंह स्वाधीनता के इस आंदोलन को आगे बढ़ा सकेगा ? मुझे लगता है कि वह तुर्कों की खिलअत पहन कर उनके समक्ष शीश झुकाने में विलंब नहीं करेगा।
निश्चय ही महाराणा प्रताप ने यह शब्द बड़े दु:खी मन से कहे थे। इन शब्दों का प्रभाव अमर सिंह के हृदय पर सीधा हुआ। यही कारण था कि जब उसने अपने पिता के इन शब्दों को सुना तो वह आत्मग्लानि से भर उठा। “वीर विनोद” ( भाग – 2 , पृष्ठ 164 ) से हमें पता चलता है कि इसके पश्चात महाराणा के पुत्र कुंवर अमर सिंह ने संकल्प धारण कर लिया कि चाहे जो हो जाए परंतु वह अपना शीश कभी मुगल दरबार में जाकर नहीं झुकाएगा। इस प्रकार महाराणा प्रताप का तीर सही निशाने पर जाकर लगा और उनकी मीठी फटकार पुत्र को सही रास्ते पर ले आई।
पिता की पड़ी फटकार अमर पर बुद्धि हुई ठिकाने।
मुगलों को ना शीश झुकाऊं चल दिया वचन निभाने।।
महाराणा प्रताप को गिरफ्तार करने में असमर्थ रहे शाहबाज खान ने जब जाकर अकबर को एक बार फिर अपनी असफलता के बारे में बताया तो अकबर उस पर इस बार भी बहुत अधिकतर प्रसन्न हुआ। अकबर ने उसे देखते ही नजरें टेढ़ी कर ली थीं। उसने अनुमान लगा लिया था कि शहबाज खान इस बार भी खाली हाथ ए रहा है तो निश्चय ही महाराणा उसकी पकड़ में नहीं आ सके हैं। अकबर ने जैसे ही वस्तुस्थिति के बारे में शहबाज खान से सही जानकारी ली तो उसने तुरंत अपनी अप्रसन्नता प्रकट करते हुए शाहबाज खान से उसका पद छीन कर रुस्तम खान को दे दिया। रुस्तम खान को अजमेर का प्रांत पति बनाया गया और उसे उसकी नियुक्ति के कुछ माह पश्चात ही कछवाहे हिंदुओं ने समाप्त कर दिया। कछवाहों ने अपनी ग
वीरता और पराक्रम का प्रदर्शन कर अपनी स्वाधीनता के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करते हुए यह कार्य किया। अकबर ने महाराणा प्रताप को गिरफ्तार करने में असमर्थ रहे शहबाज खान के प्रति अपनी भड़ास निकालते हुए उसे कई स्थानों पर अपमानित किया।
वास्तव में जिस प्रकार शहबाज खान को महाराणा प्रताप को गिरफ्तार करने में बार-बार असफलता मिल रही थी, उसके दृष्टिगत वह स्वयं भी अपने भाग्य को कोसता होगा। वह यह भी सोचता होगा कि यह काम बार-बार उसे ही क्यों दिया जाता है ? यद्यपि उसी की भांति अकबर के कई ऐसे ‘रत्न’ रहे जिन्हें महाराणा प्रताप को खोजने का काम दिया गया, पर वे सभी इस कार्य में असफल होकर ही लौटे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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मुख्य संपादक, उगता भारत