हमने वैदिक धर्मोपदेशक पं. रुद्रदत्त शास्त्री, देहरादून को देखा है”

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ओ३म्

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हम सन् 1970 में आर्यसमाज धामावाला, देहरादून के सम्पर्क में आये थे और सन् 1974 में इसके सदस्य बने थे। हमने इस समाज में कुछ स्थानीय एवं बाहर से आने वाले विद्वानों को देखा व उनके उपदेशों वा व्याख्यानों को सुना है। इनमें से कुछ नाम हैं स्वामी अमर स्वामी, स्वामी डा. सत्य प्रकाश सरस्वती, पं. विश्वनाथ विद्यालंकार वेदोपाध्याय, डा. भवानी लाल भारतीय, शास्त्रार्थ महारथी पं. ओम्प्रकाश शास्त्री, खतौली, स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती, प्रो. रत्नसिंह जी, महात्मा आर्य भिक्षु जी, स्वामी सत्यपति परिव्राजक जी आदि। एक वि़द्वान पं. रुद्रदत्त शास्त्री जी, देहरादून भी आर्यसमाज धामावाला देहरादून के उत्सवों एवं आयोजनों में कथायें किया करते थे। पं. रुद्रदत्त शास्त्री जी देहरादून में लक्ष्मण-चौक क्षेत्र में निवास करते थे। वह गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर के स्नातक थे। वह आर्यसमाज के महोपदेशक थे और देश भर में जाकर वेद कथायें एवं बाल्मीकि रामायण पर कथायें करते थे। हमने देहरादून में अनेक अवसरों पर उनके श्रीमुख से उनके उपदेश एवं रामायण की कथायें सुनी हैं। वह जब रामायण की कथा करते थे तो हमें अनुभव होता था कि जैसे पण्डितजी राम चन्द्र जी के समकालीन हों और इन्होंने उस समय की अयोध्या तथा लंका आदि स्थानों को देखा हुआ है। इन स्थानों का वह सजीव चित्रण करते थे जिससे श्रोता उनके मनोभावों के अनुरूप अपने आप को बंधा हुआ पाते थे। एक बार कथा करते हुए उन्होंने कहा था कि लंका में सभी वृक्ष आदि भी स्वर्ण धातु से बने वा ढके हुए थे। पूरी लंका सोने की बनी हुई थी। हमें उनके विचार सुनकर आश्चर्य हुआ था परन्तु उनकी वर्णन शैली और जिस प्रकार से उन्होंने कथा की थी हमें सुखद अनुभव हुआ था जिसमें अविश्वास जैसी कोई बात नहीं थी।

पं. रुद्रदत्त शास्त्री जी ने एक बार देहरादून में अथर्ववेद एवं सामवेद भाष्यकार तथा अनेक वैदिक ग्रन्थों के प्रणेता वा लेखक पं. विश्वनाथ वेदोपाध्याय जी के निवास स्थान पर सन् 1986 में चतुर्वेद पारायण यज्ञ कराया था। यह यज्ञ पण्डित विश्वनाथ विद्यालंकार जी के निवास की छत पर हुआ था। इस यज्ञ में पं विश्वनाथ जी सपत्नीक अर्थात् माता कुन्ती देवी जी सहित यजमान बने थे और यज्ञ के ब्रह्मा थे पं. रुद्रदत्त शास्त्री जी। पंण्डित रुद्रदत्त शास्त्री जी की धर्मपत्नी जी भी पण्डित जी के साथ ब्रह्मा के साथ उनकी दायीं ओर आसन पर विद्यमान थी। इस अवसर पर हमने मन्त्रोच्चार को सुना था और पण्डित रुद्रदत्त शास्त्री जी ने जो उपदेश किया था उसे भी हमने सुना था। इसके साथ ही यज्ञ की पूर्णाहुति की पूरी प्रक्रिया को भी हमने देखा था। पूर्णाहुति में नगर की आर्यसमाजों के अनेक बन्धु सम्मिलित हुए थे। इस अवसर पर सभी बन्धुओं के लिए भोजन की व्यवस्था भी की गई थी। हमने भी इस अवसर पर भोजन किया था। इसके बाद से हम यदाकदा पं. विश्वनाथ विद्यालंकार जी के निवास पर उनके दर्शन करने जाते थे। पहली बार हम अपने आर्य विद्वान मित्र श्री गिरीशचन्द्र पाण्डेय जी के साथ पण्डित जी के निवास पर गये थे जो प्रायः पण्डित विश्वनाथ जी के पास जाते रहते थे और उनसे वेदों पर चर्चा करते थे। पण्डित विश्वनाथ विद्यालंकार जी की मृत्यु के बाद हमारा उनके निवास पर जाना जारी रहा था। मृत्यु से पूर्व वह अथर्ववेद का भाष्य कर रहे थे। मृत्यु के बाद उनके द्वारा रचित अथर्ववेद प्रथम काण्ड की पाण्डुलिपि मिल नहीं रही थी। कई महीनों तक प्रयत्न करने के बाद लगभग एक वर्ष बाद मिली थी। तब हम उस पाण्डुलिपि को लेकर प्रकाशनार्थ रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ गये थे। दूसरे तथा तीसरे काण्ड की पाण्डुलिपि हम पण्डित जी की मृत्यु के बाद ही पण्डित जी की सुपुत्री श्रीमती इन्दिरा खन्ना जी से लेकर ट्रस्ट जाकर दे आये थे, जिसका बाद में ट्रस्ट की ओर से प्रकाशन कर दिया गया था। अब पण्डित जी का किया हुआ अथर्ववेद का पूरा भाष्य ट्रस्ट सहित परोपकारिणी सभा, अजमेर एवं गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार से भी मुद्रित व प्रकाशित हुआ मिलता है। यह भी बता दें कि पं. रुद्रदत्त शास्त्री जी की धर्मपत्नी गुरुकुल की स्नातिका थीं। वह देहरादून के प्रसिद्ध महाविद्यालय महादेवी कन्या पाठशाला में संस्कृत की शिक्षिका रही थी। शास्त्री जी के एक जामाता इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जस्टिस थे।

पण्डित रुद्रदत्त शास्त्री जी का हमने एक बार अपने कार्यालय भारतीय पेट्रोलियम संस्थान, देहरादून में उपदेश भी कराया था। इस अवधि में हमने अनेक आर्य विद्वानों व सन्ंयासियों यथा स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्वती, पूर्व सांसद एवं स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, अलवर, प्रा. अनूप सिंह, आचार्य यज्ञोमित्र आदि के प्रवचन भी कराये थे। पं. रुद्र दत्त शास्त्री जी को आमंत्रित करने हम उनके निवास पर अपने मित्र श्री चन्द्र दत्त शर्मा जी के साथ गये थे। पण्डित जी का भारतीय पेट्रोलियम संस्थान में दिया गया व्याख्यान श्रोताओं ने बहुत पसन्द किया था।

पण्डित जी की मृत्यु लगभग सन् 1990 के निकट हुई थी। हमें आर्यसमाज के माध्यम से उनकी मृत्यु व श्रद्धांजलि सभा की जानकारी मिली थी। हम उनकी श्रद्धांजलि सभा में सम्मिलित हुए थे। वहां हमें जानकारी मिली थी कि मृत्यु से पूर्व लम्बे समय तक पण्डित जी विक्षिप्त अवस्था में रहे थे। वह किसी को पहचानते नहीं थे और न ही बातें करते थे।

पं. रुद्रदत्त शास्त्री जी से जुड़ी यह कुछ स्मृतियां हमारे मस्तिष्क में थी। आज आर्यसमाज के कर्मठ नेता श्री प्रेम प्रकाश शर्मा, मंत्री, वैदिक साधन आश्रम, देहरादून ने पण्डित रुद्रदत्त शास्त्री जी के बारे में चर्चा की और इन स्मृतियों को लिखने की प्रेरणा की जिसका परिणाम इस लेख की पंक्तियां है। हमें पण्डित रुद्रदत्त शास्त्री जी का चित्र उपलब्ध नहीं हो सका। अतः हम इस लेख के साथ उनका चित्र नहीं दे पा रहे हैं। इसका हमें खेद हैं। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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