पाकिस्तान, बांग्लादेश, चीन और वे सभी राष्ट्र अथवा संगठन जो भारत से या तो शत्रुता रखते हैं अथवा ईष्र्या करते हैं, क्या अशिक्षित और बेरोजगार हैं? क्या वे लोग जो भारत को पुन: इस्लामिक राष्ट्र बनाने के लिए सक्रिय हैं और यहां एक सुनियोजित रणनीति के अंतर्गत आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं वे अशिक्षित और बेरोजगार हैं? निस्संदेह नहीं। उनकी योजना उनकी सोच, उनका सपना और उनकी कार्यपद्घति सभी हमें यही बता रहे हैं कि वे बहुत ऊंचे मस्तिष्क से कार्य कर रहे हैं। उनका लक्ष्य कोई अनपढ़ या अशिक्षित व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।
यही कारण है कि ऐसे लोग न तो अशिक्षित हैं और न ही बेरोजगार हैं। यदि अशिक्षा और बेरोजगारी आतंकवाद के जनक होते तो पंजाब इसकी आग में न झुलस पाता। क्योंकि वहां की आर्थिक समृद्घि से सभी परिचित हैं। दूसरी बात यह है कि अशिक्षा और बेरोजगारी देश की सरकार के प्रति क्षोभ प्रकट करने के कारण बन सकते हैं, किंतु राष्ट्र के विघटन के कारण कभी नही बन सकते। इनकी मार झेलने वाली जनता अपने विलासी और अकर्मण्य शासक वर्ग के विरूद्घ विद्रोह कर सकती है, किंतु राष्ट्र का विघटन कदापि नहीं करा सकती। सन 1947 ई. में देश का जो ‘विभाजन’ हुआ वह मजहबी आधार पर होने वाला विभाजन था। यह भावनाओं की बाढ़ थी, जिसे साम्प्रदायिकता के गंदे नालों ने पूरे उफान पर ला दिया था। इस बाढ़ का नेतृत्व भी शिक्षितों के हाथ था और राष्ट्र विघटन के प्रबल समर्थक भी वही थे। यदि शिक्षा राष्ट्र के अखंडित रखने में सहायक होती तो जिन्नाह और उसके सभी समर्थक सदा भारत में रहने के लिए ही कार्य करते। किंतु हमने देख लिया कि शिक्षा भी जब साम्प्रदायिक हो जाती है तो वह शांत तालाब में भी आग लगा देती है। यही कारण रहा कि भारत को शिक्षित लोगों ने विभाजित करा दिया। इस विभाजन पर देश की ओर से अपनी सहमति देने वाले गांधी-नेहरू और उनके कई साथी भी वकालत की डिग्री लेने वाले उच्च शिक्षित लोग थे। आज भारत में जहां-जहां अलगाववाद है, वहां-वहां देखा जाए तो आपको ज्ञात होगा कि वहां की शिक्षा अलगाववादी है, साम्प्रदायिक है। जो राष्ट्रीय एकता का नहीं, अपितु राष्ट्र के विघटन का पाठ पढ़ाती है।
सीमानत जिलों में मदरसों की बाढ़
हम देखें कि साम्प्रदायिकता का पाठ पढ़ाने वाले मदरसे और चर्च राष्ट्र के सीमांत प्रांतों में कुकुरमुत्तों की भांति पनप रहे हैं। सीमांत जिलों की जनसंख्या में एक वर्ग विशेष की संख्या बढ़ रही है। यह सारा कार्य पूर्व नियोजित षडय़ंत्र के अंतर्गत हो रहा है।
जो लोग इसे कर रहे हैं वे भी अशिक्षित नहीं हैं। ये लोग वार्ता के लिए बाहरी देशों की मध्यस्थता की बात करते हैं। एक भूखा-नंगा अशिक्षित और बेरोजगार दूसरे देशों की सरकारों को अस्थिर करने की मूर्खतापूर्ण सोच कभी उत्पन्न भी नहीं कर सकता, क्योंकि उसे पता है कि यह तेरा दुस्साहस है।
वस्तुत: भारत के राजनीतिक नेतृत्व की यह विशेषता रही है कि वह समस्या के मूल को कभी न तो समझ सका है और न उसने समझने का प्रयास किया है और यदि कभी समझ भी गया तो प्रदर्शन सदा यह किया है कि जैसे वह कुछ नहीं समझता।
भारत की सारी समस्याओं की जड़ राजनैतिक नेतृत्व की यह ‘आपराधिक तटस्थता’ और राष्ट्रघाती सोच ही है। सारे संसार के राजनीतिज्ञ भारतीय राजनीतिज्ञों से इस विषय में मात खा जाएंगे कि ये राष्ट्रीय विषयों और समस्याओं से जनता का ध्यान भंग कर दूसरी ओर इतनी सावधानी से लगाते हैं कि अच्छे-अच्छे मनोवैज्ञानिक भी धोखा खा जाएं। इसीलिए भारत की संसद पर जब आतंकवादी हमला हुआ था तो बहुत से लोगों की राय बड़ी विचित्र थी। वे मानते थे कि इस हमले में अधिकतर नेताओं की बलि चढ़ जानी चाहिए थी, क्योंकि आतंकवाद के जनक और आतंकवाद को कुचलने में सर्वथा नकारा अगर ‘कोई जंतु’ भारत में तो वह ‘राजनीतिज्ञ’ नाम का ही जंतु है। इस सोच को लोगों का आक्रोश कह सकते हैं, और अपने नेताओं के प्रति बढ़ते अविश्वास का प्रतीक कह सकते हैं। लोकतंत्र में ऐसे आक्रोश और अविश्वास के होने का अभिप्राय है कि नेता जनता की भावनाओं का सम्मान करते हुए कार्य करने में असफल सिद्घ हो रहे हैं।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
मुख्य संपादक, उगता भारत