मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 26 ( क ) संधि प्रस्ताव और महाराणा प्रताप
संधि प्रस्ताव और महाराणा प्रताप
देश की स्वाधीनता के लिए महाराणा प्रताप जंगलों की खाक छानते रहे। उनकी एक ही धुन थी, एक ही लगन थी और एक ही प्रतिज्ञा थी कि चाहे जो हो जाए , अकबर के सामने सिर नहीं झुकाना है। उन्होंने अनेक कठिनाइयों और कष्टों को सहन करते हुए अपना समय व्यतीत किया। महाराणा प्रताप कुंभलगढ़ की ओर बढ़ गए थे। जहां पर कुछ मुगल सैनिक अभी भी रह रहे थे। यद्यपि इन मुगल सैनिकों को महाराणा प्रताप का डर सताता रहता था। जैसे ही उन्हें यह पता चला कि महाराणा प्रताप कुंभलगढ़ पहुंचने वाले हैं तो वे कुंभलगढ़ छोड़कर भाग गए। इसके पश्चात महाराणा प्रताप का कुंभलगढ़ पर पुनः अधिकार हो गया।
अकबर धीरे-धीरे मेवाड़ से अपना ध्यान हटाकर देश के दूसरे भागों की ओर चलने के लिए अपने सैनिकों और सेनानायकों को प्रेरित करने लगा था। उसने यह समझ लिया था कि चित्तौड़ में अधिक समय व्यतीत करने का अर्थ समय, धन और ऊर्जा को नष्ट करना है, क्योंकि महाराणा प्रताप कभी भी उसकी गिरफ्त में नहीं आ पाएंगे। अकबर की मानसिकता में हो रहे इस परिवर्तन को हमें इस दृष्टिकोण से भी देखना चाहिए कि यदि वह हल्दीघाटी के युद्ध में विजयी हो गया होता तो कदापि महाराणा प्रताप की मेवाड़ के प्रति उसका ऐसा दृष्टिकोण नहीं बनता। उसने यह भली प्रकार देख लिया था कि जहां महाराणा प्रताप को गिरफ्तार करना कठिन है, वहीं मेवाड़ की जनता को अपने शासन के अधीन रखना तो और भी अधिक कठिन है। यही कारण था कि अकबर अब और अधिक खतरा मोल लेना उचित नहीं मान रहा था। वह खतरों से खेलने की बजाए खतरों से बचने के विकल्प खोजने लगा था। जबकि महाराणा प्रताप खतरों को झेल भी रहे थे और खतरों से खेल भी रहे थे। वे खतरों को अपने से दूर रखने के पक्षधर नहीं थे, इसके विपरीत वह खतरों को आमंत्रित करने की बात करते थे।
खानखाना ने बनाया भामाशाह पर अनुचित दबाव
अकबर का एक दरबारी खानखाना मालवा अभियान के समय में भामाशाह पर बराबर यह दबाव डालता रहा था कि वह किसी प्रकार महाराणा प्रताप को अकबर के दरबार में उपस्थित होने के लिए सहमत कर ले। यद्यपि भामाशाह पर खानखाना के इस प्रकार के दबाव का कोई प्रभाव नहीं हुआ और उन्होंने स्पष्ट रूप से अकबर के उस दरबारी चाटुकार को यह संदेश दे दिया कि मेवाड़ का बच्चा – बच्चा समाप्त हो सकता है पर अपनी मातृभूमि और राष्ट्र की शान बने महाराणा प्रताप का सिर नहीं झुकने दिया जाएगा। उनके राष्ट्रीय संकल्प के साथ इस समय न केवल मेवाड़ बल्कि पूरा देश खड़ा है।
देश धर्म के दीवाने महाराणा के संग देश खड़ा।
नहीं झुकेंगे शीश हमारे दंड मिले चाहे हमें कड़ा।।
ऐसे में अपने महानायक का साथ देना ही हमारे लिए उचित है। इसके पश्चात भी खानखाना स्वामी भक्त भामाशाह पर दबाव बनाता रहा, परंतु उसे भामाशाह ने हर बार निराश ही किया। अंत में खानखाना को अपने बादशाह के पास खाली हाथ ही लौटना पड़ा था।
अकबर ने यद्यपि अब देश के दूसरे भागों की ओर सैनिक अभियान चलाने पर ध्यान देना आरंभ कर दिया था, परंतु इसके उपरांत भी उसके भीतर महाराणा का नाम आते ही एक अजीब सी सिहरन होती थी। वह अपने हृदय में उठने वाली टीस का उपचार खोजता था। ऐसे में अकबर ने एक बार फिर शहबाज खान को मेवाड़ की ओर भेजने का निर्णय लिया। उसने इस बार शहबाज खान को बड़ी सेना के साथ मेवाड़ की ओर बढ़ने का आदेश दिया।
शहबाज खान को भेजा अकबर ने
अब तक महाराणा प्रताप को कैद करने के जितने भर भी प्रयास किए गए थे वे सभी निरर्थक सिद्ध हुए थे। अकबर के लिए यह स्थिति बड़ी ही असहनीय थी, परंतु वह कुछ कर भी नहीं सकता था। वह चाहता था कि हिंदुस्तान का राज उसे निष्कंटक भोगने के लिए प्राप्त हो। पर इसमें सबसे बड़ी बाधा उसके लिए महाराणा प्रताप बन चुके थे। महाराणा प्रताप ने शहबाज खान के मेवाड़ से निकल जाने के पश्चात अकबर के कई थानों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। 1578 ई0 की इन घटनाओं के पश्चात अकबर महाराणा प्रताप को एक बार फिर कड़ा संदेश देना चाहता था। फलस्वरूप 1578 ई0 के दिसंबर माह में उसने शहबाज खान को फिर से मेवाड़ की ओर प्रस्थान करने का आदेश दिया।
अकबर ने अपने सेनापति शहबाज खान और उसके साथी गाजी खान मोहम्मद हुसैन को यह कड़ा संदेश भी दे दिया था कि यदि इस बार महाराणा प्रताप को वे अपने अधीन कर लाने में असफल रहे तो उनके सर उड़ा दिए जाएंगे। बात स्पष्ट थी कि महाराणा प्रताप की ओर बढ़ने वाले किसी भी मुगल सेनापति को या तो महाराणा प्रताप से लड़ते हुए सर कटवाना पड़ता था या फिर खाली हाथ लौट कर जाने पर अपने बादशाह के द्वारा सर उड़वाने के लिए तैयार रहना होता था। इस प्रकार के आदेशों की मानसिकता से यह पता चलता है कि अकबर के लिए महाराणा प्रताप कितने महत्वपूर्ण हो चुके थे ? अकबर के इस प्रकार के कड़े संदेश को सुनकर शहबाज खान अपने सैन्य दल के साथ मेवाड़ की ओर बढ़ा। इस बार का उसका सैन्य दल पहले सैन्य दल से भी बड़ा था। यद्यपि वह इस समय अपने आपको दो पाटों के बीच फंसा हुआ अनुभव कर रहा था।
मौत – कुआं के बीच में फंसा खड़ा शहबाज।
नहीं समझ आती उसे , बचेगी कैसे लाज।।
उधर महाराणा प्रताप को जब शहबाज खान के फिर से बड़े सैन्य दल के साथ मेवाड़ की ओर बढ़ते चले आने का संदेश मिला तो उन्होंने भी अपने आपको युद्ध ( गुरिल्ला ) के लिए तैयार करना आरंभ कर दिया। वह सावधान होकर तुरंत पहाड़ों की ओर चले गए। उस समय अरावली पर्वत ने महाराणा प्रताप की ही नहीं बल्कि पूरे देश की रक्षा करने में बड़ी सहायता की थी। यह पर्वत उस समय हमारे वीरों के लिए शेर की मांद बन चुका था।
यद्यपि यह बात भी सच है कि इस मांद का उपयोग केवल महाराणा प्रताप ही कर सकते थे, किसी मुगल के भीतर तो यह साहस भी नहीं था कि वह शेर की मांद में हाथ डाल सके या वहां पर थोड़े बहुत दिन के लिए प्रवास कर सके। शहबाज खान अपने शिकार की खोज में दो-तीन माह पर्वतों में टक्कर मारता रहा। उसने अपने बादशाह के आदेश को शिरोधार्य करते हुए और अपनी परीक्षा में सफल होने का भी भरसक प्रयास किया परंतु अंत में उसे इस बार भी निराशा ही हाथ लगी और उसे असफल होकर लौटना पड़ा। पर्वतों की ऊंचाई नापने में और महाराणा प्रताप का मस्तक झुकाने में यह मुगल सेनापति इस बार भी निराश होकर ही अपने बादशाह के पास लौट गया।
महाराणा प्रताप ने भी मुगल आधिपत्य के क्षेत्रों में किसानों को यह कड़ा निर्देश दे दिया था कि वह अपने खेतों में कोई फसल न बोएं और शत्रु के लिए खाने पीने की कोई भी वस्तु ना छोड़ें। उनके इस प्रकार के निर्देशों का उनकी जनता ने और विशेष रूप से किसानों ने अक्षरश: पालन किया। परिणामस्वरूप मेवाड़ के किसान अपने परिवारों सहित अन्य सुरक्षित स्थानों पर चले गए।
कथित संधि प्रस्ताव
अब एक दूसरी बात की ओर आते हैं। महाराणा प्रताप के स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ करते हुए और उन्हें अपमानित करने का प्रयास करते हुए कई लोगों ने उन पर यह आरोप लगाया है कि एक बार महाराणा प्रताप कष्टों से घबराकर अकबर के साथ संधि करने के लिए तैयार हो गए थे। इतना ही नहीं ,उन्होंने एक संधि प्रस्ताव भी अकबर के पास भेज दिया था। इस कहानी को बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। इसमें महाराणा प्रताप को अत्यंत विचलित हुआ दिखाया जाता है और संकटों से घबराकर संधि के लिए प्रस्ताव भेजते हुए प्रस्तुत किया जाता है। एक काल्पनिक कहानी इस संदर्भ में तैयार की गई है कि एक बार उनकी पुत्री के हाथ से एक जंगली बिलाव घास की रोटी छीनकर ले गया था। जिसका वृतांत उन्होंने अपनी धर्मपत्नी से सुना। तब उनकी आंखों से अश्रुधारा बह चली और उन्होंने अकबर के समक्ष उस समय शीश झुकाना ही एकमात्र विकल्प माना।
मलसीसर ठाकुर भूरा सिंह शेखावत ने ‘महाराणा यश प्रकाश’ के पृष्ठ संख्या 87 पर इस कहानी से अलग तथ्यात्मक बात कही है। उनकी यह बात सत्य के अधिक निकट दिखाई देती है। उनका कहना है कि एक दिन बादशाह ने बीकानेर के राजा रामसिंह के अनुज पृथ्वीराज से ( उपहासवश, परंतु गंभीर मुद्रा में ) बस यूं ही कह दिया कि अब तो आपका महाराणा भी हमें बादशाह कहने लगा है और वह हमारी अधीनता स्वीकार करना चाहता है। बस,इसी बात का बतंगड़ बनाकर उसे महाराणा प्रताप की ओर से भेजा गया प्रस्ताव मान लिया गया। जिससे अकबरपरस्त लोगों को मानसिक संतुष्टि हो सकती है, परंतु महाराणा प्रताप जैसे स्वाभिमानी व्यक्तित्व के प्रति थोड़ी सी भी ईमानदारी बरतने वाले व्यक्ति को इस प्रकार के किसी भी वृतांत पर विश्वास नहीं हो सकता।
पृथ्वीराज ने दिया अकबर को सही उत्तर
जब पृथ्वीराज ने अकबर के मुंह से ऐसे शब्द सुने तो अकबर की गंभीर मुद्रा को देखकर उन्होंने भी स्पष्ट शब्दों में उसे यह बता दिया कि यदि आपको ऐसा समाचार मिला है तो यह समाचार पूर्णतया मिथ्या है। आपको इसके संदर्भ में सही सूचना प्राप्त करनी चाहिए।
अकबर ! यह संभव नहीं राणा करे फरियाद।
तुर्क है तू उसके लिए, प्रण है उसको याद।।
तब पृथ्वीराज ने एक दोहे के माध्यम से महाराणा तक यह संदेश भिजवा दिया कि “महाराणा प्रताप सिंह यदि अकबर को अपने मुख से बादशाह कहे तो कश्यप का पुत्र सूर्य पश्चिम में उदित हो जाएगा। उनका अभिप्राय था कि जैसे सूर्य का पश्चिम में उदय होना असंभव है, वैसे ही आपके मुख से ‘बादशाह’ शब्द का सुना जाना हम सबके लिए असंभव है। हे महाराणा ! मैं अपनी मूंछों पर ताव दूं अथवा अपनी तलवार का अपने शरीर पर प्रहार करूं। दो में से एक बात लिख दीजिए।”
इस प्रकार के संदेश के माध्यम से वास्तव में पृथ्वीराज ने महाराणा प्रताप को इस बात के प्रति सचेत किया था कि आप की ओर से अकबर के दरबार में किस प्रकार की अफवाह फैल चुकी है ? यदि इसमें तनिक भी सच्चाई है तो यह मेरे जैसे लोगों के लिए अत्यंत दु:खदायक है। पृथ्वीराज यद्यपि इस बात को कहकर संधि प्रस्ताव का सत्यापन करवाना नहीं चाह रहा है , वह केवल एक ऐसी बात का सत्यापन चाहता है जो उसकी दृष्टि में मिथ्या है। वह देखना चाहता है कि इस सुनी सुनाई बात में कितना बल हो सकता है ? इस सत्यापन के माध्यम से वह अकबर को यह बता देना चाहता था कि महाराणा प्रताप के मुंह से तेरे लिए ‘बादशाह’ शब्द निकलना उतना ही असंभव है जितना पश्चिम से सूर्य का निकलना असंभव है।
महाराणा ने दिया संदेश का उत्तर
जब यह संदेश महाराणा तक पहुंचा तो उन्होंने इसे पढ़कर बहुत ही स्वाभिमान भरी भाषा में उसका पद्यात्मक शैली में उत्तर लिखकर भेजा। उनके द्वारा पद्यात्मक शैली में लिखे गए इस पत्र का अनुवाद इस प्रकार है :-
"पृथ्वीराज जी ! भगवान एकलिंग मेरे इस शरीर से तो आजीवन ( मृत्योपरांत की तो ईश्वर जाने ) बादशाह को केवल तुर्क ही कहलवायेंगे और आप सदा स्मरण रखें तथा स्वयं को गौरवान्वित भी अनुभव करें कि सूर्य का उदय जहां होता है, वहीं होता रहेगा।
हे वीर राठौड़ पृथ्वीराज ! जब तक प्रताप सिंह की तलवार यवनों के सिर पर है, तब तक आप अपनी मूंछों पर प्रसन्नता से ताव देते रहिए अर्थात आपको इस बात के लिए दु:खी होने की आवश्यकता नहीं है कि मैं बादशाह से किसी प्रकार की संधि का विचार रखता हूं। मैं अपने सिर पर सांड का प्रहार सह सकता हूं, क्योंकि अपने समान स्तरीय लोगों के यश को सहन करना कठिन होता है, वह विष के समान होता है।
हे वीर पृथ्वीराज ! तुर्क के साथ के वचन रूपी ( बादशाह अकबर की ओर संकेत है ) विवाद में आप भली-भांति विजयी हों।”
महाराणा प्रताप वीर के साथ साथ बुद्धिमान भी थे । उन्होंने अपनी तार्किक शैली से पृथ्वीराज चौहान को असीम प्रसन्नता प्रदान की। इसके पश्चात पृथ्वीराज ने महाराणा प्रताप से मिले इस पत्र को जाकर अकबर को भी दिखा दिया था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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मुख्य संपादक, उगता भारत