समकालीन इतिहास के एक दैदीप्यमान नक्षत्र वेद प्रताप वैदिक जी का अवसान हो गया है। भारत की राष्ट्रवादी पत्रकारिता के लिए उनका अवसान निश्चय ही दु:खद है। उन जैसे राष्ट्रवादी चिंतक पत्रकार का जाना पत्रकारिता जगत के लिए अपूर्णनीय क्षति है। उन्होंने पत्रकारिता जगत में रहते हुए भारत के इतिहास के गौरवपूर्ण पक्ष, भारत के वैदिक चिंतन और हिंदी की समृद्धि के लिए भरपूर लिखा। उनके लेख सदा संक्षिप्त और सारगर्भित होते थे। कम शब्दों में कड़ी चोट मारना उनके लेखन की निराली शैली थी।
अब से 4 वर्ष पहले दिल्ली के प्रगति मैदान में लगे विश्व पुस्तक मेले में भारत के सुप्रसिद्ध प्रकाशन डायमंड पॉकेट बुक्स की ओर से आयोजित किए गए एक विशेष कार्यक्रम में माननीय वेद प्रताप वैदिक जी के द्वारा मेरे द्वारा लिखित पुस्तक “भारत के 1235 वर्षीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास” के भाग 1,2,3 का लोकार्पण किया गया था। तब उन्होंने हम सब उपस्थित लोगों को हिंदी में हस्ताक्षर करने और लेखन में हिंदी के शुद्ध शब्दों को अपनाने की प्रेरणा दी थी। उस समय पर विराजमान कई लोगों ने हिंदी दिवस के अवसर पर उर्दू का बखान किया था और एक सज्जन ने तो हिंदी को उर्दू की बुआ तक कह दिया था। इसी प्रकार किसी ने मौसी कहा था। तब मैंने सबसे अंतिम वक्ता के रूप में अपना उद्बोधन देते हुए कहा था कि यह दुर्भाग्यपूर्ण विषय है कि अंतरराष्ट्रीय हिंदी दिवस के अवसर पर हम उर्दू का गुणगान कर रहे हैं । हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि घर मौसी का हो या बुआ का हो, अंत में आना तो मां के पास ही पड़ता है इसलिए मां को नहीं भूलना चाहिए। हिंदी को उर्दू की मौसी या बुआ कहने वालों के प्रति अपनी पूर्ण असहमति रखने वाले वैदिक जी ने तब मेरी पीठ थपथपाई थी।
आज वह हिंदी हितैषी महान पत्रकार हमारे बीच नहीं रहे। इस समाचार को सुनकर उनके सभी प्रशंसक स्तब्ध रह गए हैं। अभी पिछले दिनों 25 फरवरी से 5 मार्च तक दिल्ली के प्रगति मैदान में कई वर्ष पश्चात जब पुस्तक मेला लगा तो उसमें भी वह भ्रमण पर आए थे। हिंदी भाषा के उन्नयन के साथ-साथ वैदिक मूल्यों के प्रति भी उनकी अटूट निष्ठा बनी रही। मैंने जब भी कभी उनके साथ मंच साझा किया तो देखा कि उन्होंने हिंदी को लेकर विशेष चिंता व्यक्त की। वह कहते थे कि उन्होंने बचपन में ही हिंदी में हस्ताक्षर करने की प्रतिज्ञा ली थी। जिसे वह आजीवन निभाते रहे । इसी प्रकार वह अन्य उपस्थित लोगों का आवाहन करते थे कि वे सभी आज से हिंदी में हस्ताक्षर करने का संकल्प लें। उनका कहना होता था कि कल ही बैंक में जाकर अपने हस्ताक्षर हिंदी में करने का संकल्प लीजिए। वह हिंदी को संस्कृत निष्ठ भाषा मानते थे और इस दृष्टिकोण के थे कि संस्कृत के पश्चात हिंदी ही सर्वाधिक वैज्ञानिक शब्दों वाली भाषा है। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि हिंदी का विकास संस्कृत से हुआ है। कोई भी बोली हिंदी भाषा की जननी नहीं हो सकती, जैसे कि कई तथाकथित मूर्ख विद्वानों ने धारणा बनाकर हिंदी साहित्य में इस मिथ्या धारणा को स्थापित करने का प्रयास किया है। वैदिक जी की मान्यता रही कि भारतवर्ष में प्रत्येक बोली हिंदी भाषा का अवशिष्ट भाग है।
जिस समय उन्होंने मेरी पुस्तकों का लोकार्पण किया था, उस समय भी उन्होंने इस बात को लेकर अपने विशेष स्पष्ट विचार रखे थे कि संस्कृत भाषा सभी भाषाओं की जननी है। हिंदी के भीतर वह शक्ति एवं सामर्थ्य है जो संपूर्ण देश को एकता के सूत्र में पिरो सकती है। इसलिए भाषाई विवादों को समाप्त कर सभी देशवासियों को अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति समर्पण का भाव दिखाना चाहिए।
उन्होंने मुझसे व्यक्तिगत बातचीत में उस समय कहा था कि भाषा केवल अभिव्यक्ति का ही साधन नहीं है , यह हमारे राष्ट्रीय मूल्यों, राष्ट्र नायकों, राष्ट्र के मौलिक साहित्य और राष्ट्र की चेतना से हमारा सीधा संबंध स्थापित कराती है। जिस राष्ट्र के पास अपनी भाषा नहीं होती वह कभी भी अपनी मूल चेतना से तारतम्य स्थापित नहीं कर पाता है। वह अंग्रेजी के विरोधी नहीं थे पर अंग्रेजी हमारी राष्ट्रभाषा पर शासन करे और पटरानी की भूमिका में रहे, इसे वह कभी भी पसंद नहीं करते थे। वह वैदिक सिद्धांतों, उपनिषदों की उदात्त भावना, स्मृतियों के गहन चिंतन, रामायण की पवित्र भावना और महाभारत के पवित्र चिंतन को हिंदी के माध्यम से जन जन तक पहुंचाने के समर्थक थे। निश्चित रूप से इस काम को हिंदी ही कर सकती है ।अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा कभी भी वह चिंतन प्रस्तुत नहीं कर सकती जिससे हमारी अपनी राष्ट्र चेतना का विकास हो सके।
वैदिक जी ने हिंदी को संपुष्टि दी, वैदिक मूल्यों की पुष्टि की और राष्ट्रवादी चिंतकों की तुष्टि की। उन्होंने हिंदी को स्वाभिमान के साथ अपनाया और हर मंच पर हिंदी में बोलकर अपने स्वाभिमान को अभिव्यक्ति दी। उन्होंने हिंदी को राष्ट्र-अभिमान के साथ जोड़कर यह संदेश देने का प्रयास किया कि यदि राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता को बलवती करना है तो हिंदी के साथ जुड़ना सबके लिए अनिवार्य है।
स्वाधीनता के पश्चात नेहरू वादी चिंतन के कारण हिंदी की वैज्ञानिकता को समाप्त करने का एक सुनियोजित षडयंत्र रचा गया। इस षड्यंत्र के अंतर्गत अनेक लोगों ने यह प्रचारित प्रसारित करने का प्रयास किया कि भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम है। ऐसी मूर्खतापूर्ण अवधारणा के कारण आज हिंदी में बोलते हुए व्याकरण का या शब्दों के उच्चारण का कोई ध्यान नहीं रखा जाता। हिंदी में इंग्लिश, उर्दू और संसार भर की किसी भी भाषा के शब्द को डालने का अतार्किक और बुद्धिहीन परिश्रम किया गया है। जिसके कारण भाषा की वैज्ञानिकता और उसका आत्मचिंतन विकृत हुआ है। वैदिक जी हिंदी को व्याकरण और उच्चारण के प्रत्येक प्रकार के दोष से बाहर निकालकर उसे आत्मचिंतन की गहराई से परिचित कराने के समर्थक थे। वे चाहते थे कि हिंदी पर-भाषा के शब्दों को अपनाकर अपनी दीनता बोध की भावना से बाहर निकले और उसे एक समृद्ध, सुसंस्कृत और वैज्ञानिक भाषा के रूप में स्थापित किया जाए।
उनका मानना था कि भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोण को पुष्ट करती है और सिद्धांतों के लिए जीने वाले वैदिक जी ने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। कई मुद्दों पर उनकी आलोचना भी हुई परंतु उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि:-
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः स्थिरा भवतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥
नीति में निपुण मनुष्य निंदा करें या प्रशंसा करें, लक्ष्मी आये या गंभीर जाये, आज ही मृत्यु हो जाए या युगों के बाद हो परन्तु धैर्यवान मनुष्य कभी भी न्याय के मार्ग से अपना कदम नहीं हटाते। कहने का अभिप्राय है कि संसारी लोग चाहे गाली दें या स्तुति करें, धन आए या जाए, वे आज मरें या सौ वर्ष जिएं, लेकिन धैर्यवान मनुष्य न्याय के मार्ग से कभी नहीं हटते।
आज जब वैदिक जी हमारे बीच नहीं हैं तब हमें उनके हिंदी के प्रति अनुराग का समर्थन करना चाहिए और स्वयं को हिंदी हितैषी के रूप में स्थापित व प्रदर्शित करने का प्रयास करना चाहिए।ईश्वर उनकी आत्मा को शांति व सद्गति प्रदान करें।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक ‘भारत को समझो’ अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता और सुप्रसिद्ध इतिहासकार हैं)
मुख्य संपादक, उगता भारत