सन् 2000 में बिहार में ही राज्यपाल विनोद चंद्र पांडेय ने अति उत्साह का परिचय देते हुए नीतीश कुमार को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया। बाद में विधायकों का जुगाड़ पूरा न होने पर सत्ता की सुंदरी ने नीतीश कुमार को ठेंगा दिखा दिया और पुन: राबड़ी ही ‘रबड़ी’ का स्वाद चखने लगीं। राज्यपाल का उतावलापन पुन: एक बार चर्चा में आया और सबकी आलोचना का पात्र बना। वास्तव में राज्यपाल का यह कार्य राजनीति से प्रेरित था। उन्होंने ऐसा करके संविधान की मूल भावना का निरादार किया था।
अभी पिछले दिनों हमने झारखण्ड और गोवा में राज्यपालों को एक बार पुन: अपनी संवैधानिक भूमिका से अलग हटकर कार्य करते हुए देखा है। जिससे यह संवैधानिक पद पुन: चर्चा का विषय बना। भाजपा के मनोहर परिकर की सरकार को राज्यपाल एसजी जमीर ने बलि चढ़ा दिया, किंतु लोकतंत्र के सौभाग्य से वहां भी अलोकतांत्रिक ढंग से बनी प्रताप सिंह राणे की कांग्रेस सरकार को सत्ता गंवानी पड़ी। इन परिस्थितियों में मनोहर पार्रिकर की सरकार पुन: सत्ता में आई है, उनसे स्पष्ट हो गया कि राज्यपाल की भूमिका दलगत राजनीति में फंसी हुई थी। किंतु फिर भी लोकतंत्र वहां जिस प्रकार गंभीर रूप से घायल हुआ है उसके घावों से बहने वाले रक्त के धब्बों से तो राजभवन देर तक कलंकित रहेगा। रक्त के इन धब्बों को जो भी देखेगा वही कहेगा कि कभी यहां भी राज्यपालों ने आत्मघात किया है। राज्यपालों की ऐसी भूमिका को देखकर कभी-कभी यह प्रश्न मन-मस्तिष्क में कौंधता है कि ‘क्या राज्यों में राज्यपाल का पद अनिवार्य है?’
इस प्रश्न के उत्तर के परिप्रेक्ष्य में जो वैचारिक ज्वार अंत:करण में उठता है उससे पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणन की वह बात भी एक प्रश्न बनकर सामने आती है कि हम यह देखें कि ‘संविधान असफल हुआ अथवा संविधान को लागू करने वाले असफल रहे हैं।’ विचार मंथन से जो निष्कर्ष निकलता है उससे यही स्पष्ट होता है कि संविधान निर्माताओं की भावना को हमने समझकर भी उपेक्षित किया है। राज्यपाल के पद का सृजन हमारे संविधान निर्माताओं ने सोच-समझकर किया था। वह किसी भी राज्य सरकार को उच्छ्रंखल नहीं होने देना चाहते थे। राष्ट्र की एकता और अखण्डता अक्षुण्ण रहे इसके लिए आवश्यक था कि राज्यपाल केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करें। किंतु इन सबके उपरांत भी हमारे संविधान निर्माताओं की यह सोच कदापि नहीं थी किराज्यपाल अपने अधिकारों का दुरूपयोग करेंगे और लोकतंत्र की भावना का अनादर करते हुए कार्य करेंगे। सत्ताधारी दल बेईमानी के बल पर पार्टी हित में राजभवनों में केन्द्र के एजेंट नहीं अपितु एक दल विशेष के एजेंट भेजने के अभ्यासी हो गये हैं जो बहुत गहरा षडय़ंत्र है। इसलिए राष्ट्रहित में नहीं अपितु दलगत हितों को दृष्टिगत कर राजभवनों में लोकतंत्र की बलि ली जा रही है।
दलगत हितों को राष्ट्रहित का लबादा ओढ़ाया जाता है, और संविधान के अनुच्छेद 356 की आड़ में किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का गला घोट दिया जाता है। राष्ट्र के 60 वर्षों के पिछले इतिहास में राजभवनों की भूमिका के जहां कुछ उल्लेखनीय पहलू रहे हैं, वहीं उपरोक्त उदाहरण इनकी भूमिका को संदिग्ध भी बनाते हैं। फिर भी जो भयावह स्थिति दीख रही है वह हमारे द्वारा स्वनिर्मित है न कि संविधान निर्मित। अत: संविधान को दोष देने के स्थान पर स्वयं अपने आचरण को टटोलें। राजनीति की चली चलायी तोपों से नहीं अपितु राजनीति से विरत और सर्वथा दूर रहने वाली विशिष्ट प्रतिभाओं से ही राष्ट्र का भला हो सकता है। इसलिए उन्हें ही राजभवनों में भेजा जाना सुनिश्चित किया जाना चाहिए। तभी राजभवनों से लोकतंत्र की रक्षा संभव हो सकेगी।
राजनीति के घिसे-पिटे और थके मांदे मौहरे राजभवनों में भेजे जाएंगे, तो वे केन्द्र में बैठे अपने नेताओं की चापलूसी के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पाएंगे।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715
मुख्य संपादक, उगता भारत