हिंदी अस्मिता के भीष्म पितामह* *डॉ वेद प्रताप वैदिक जी का जाना मर्माहत कर गया*
मैं अब किससे लडूंगा, कूडा-करकट किसको कहूंगा/ विनम्र श्रद्धांजलि
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आचार्य श्री विष्णुगुप्त
डॉ वेद प्रताप वैदिक जी पत्रकारिता के भीष्म पितामह थे। वे हिन्दी, अंग्रेजी, जर्मन, पश्तो और उर्दू सहित कई भाषाओं के जानकार थे। राममनोहर लोहिया और राजनारायण जी के सहयोगी और सहचर की तरह थे। पीवी नरसिंहाराव से लेकर कई प्रधानमंत्रियों के निकटवर्ती भी रहे थे। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के घनिष्ठ मित्रों में थे, अफगानिस्तान के पूर्व राष्टपति हामिद करजई के वे पंसदीदा मार्गदर्शक भी थे। कुख्यात आतंकवादी हाफिज सईद का उन्होंने साक्षात्कार लेकर भारत और पाकिस्तान में तहलका मचा दिया था।
वैदिक जी हिन्दी में पहला पीएचडी करने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने जेएनयू से पीएचडी किया था। उनके पहले कोई हिन्दी में पीएचडी नहीं कर सकता था। हिन्दी में पीएचडी करने के लिए उन्होंने लंबी लड़ाई लडी थी। उनके पीएचडी को लेकर संसद में कई दिनों तक हंगामा हुआ था। राममनोहर लोहिया ने संसद में इस प्रश्न को उठाया था। उसके बाद ही हिन्दी में पीएचडी करने की अनुमति मिली थी। उसके पहले सिर्फ अंग्रेजी में ही पीएचडी करने की अनुमति होती थी। वैदिक हिन्दी और भारतीय भाषाओं के बड़े प्रतापी थे, वे अंग्रेजी की दासता से मुक्ति के अभियानी थे।
हमसे वे उम्र में बहुत बडे थे। फिर भी हमारी मित्रता लड़ाई-झगडे और नोक-झोंक की थी। मैं उन्हें कहता था कि आपको न तो राजनीति की समझ है और न ही वैश्विक प्रसंग की, आप जो लिखते हैं वह सब कूड़ा करकट ही होता है। वे कहते थे कि आप मेरे कूड़ा-करकट को क्यों पढते हैं। वे कहते थे कि लिखने के लिए अब मुझे आपसे से सिखना पडेगा? मैं कहता था कि हां, आपको मुझसे ही सिखना होगा। फिर वे मुझसे बातचीत बंद नहीं करते थे। वे जब पाकिस्तान जाकर कुख्यात आतंकवादी हाफिज सईद का साक्षात्कार लिया था तब मैं उन्हें देशद्रोही कहा था। देशद्रोही कहने पर हमलोगों के बीच खूब तकरार हुई थी, गाली गलौज की स्थिति बन गयी थी। तीन साल तक संवाद स्थगित हो गया था।
वैदिक में वे तुरंत लिखने वाले पत्रकार थे। हिन्दी या फिर अन्य भाषाओं में तुरंत लिखने वाले पत्रकार बहुत ही कम हैं। उनमें वे चैम्पियन थे। वे प्रतिदिन अपना कॉलम लिखते थे जो हिन्दी के असंख्य अखबारों में प्रकाशित होते थे।
मित्र इतनी भी जल्दी क्या थी। अभी तो आप 78 वर्ष के ही थे। अभी भी आपके अंदर बीस साल की पत्रकारिता बची थी। मैं अब किससे लडूंगा, किस पर इतनी कड़ी और अशिष्ट टिप्पणी करूंगा और मेरी टिप्पणी को स्वीकार करने की शक्ति किसमें हैं। आज के लेखक और पत्रकार तो तुनुकमिजाजी और वाद से ग्रसित हैं जिनमें संयम हैं कहां? मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि स्वीकार करो मित्र।
आचार्य श्री विष्णुगुप्त
New Delhi