मुसलमानों से सीधे संवाद का समय
भारत की अधिकांश विकट समस्याएं हिन्दू-मुस्लिम संबंधों से जुड़ी रही हैं। खलीफत आंदोलन से शुरू होकर सांप्रदायिक दंगे, देश-विभाजन, कश्मीर, पाकिस्तान से चार युद्ध, जिहादी आतंकवाद, सेक्यूलर-सांप्रदायिक विवाद, अयोध्या-काशी-मथुरा पर अतिक्रमण, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण से लेकर अभी चल रहे ‘नागरिकता संशोधन कानून’ पर विरोध, हर समस्या की मूल फाँस वहीं है, लेकिन इसे यथावत् छोड़कर सारी राजनीतिक गतिविधियाँ चलती रही हैं। वह फाँस एक भारी वैचारिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक असंतुलन दर्शाती है। उसे खोलना ही एक मात्र उपाय है।
गत सौ वर्षों से हमारे विविध नेताओं, बौद्धिकों ने नकली काम बहुत कर लिए। एक बार असली भी करके देखें। उस राह पर चलें जो स्वामी विवेकानन्द, श्रीअरविन्द, टैगोर जैसे सच्चे मनीषियों ने बतायी थी। यह मार्ग निःशुल्क, शान्तिपूर्ण और सत्यनिष्ठ है। केवल भारतीय इतिहास को बेबाक रूप से पढ़ने, पढ़ाने की जरूरत है। विशेष अध्येताओं के लिए पिछले हजार साल का इतिहास तथा प्रत्येक हिन्दू और मुसलमान के लिए पिछले सौ साल का इतिहास। संयोगवश स्व. सीताराम गोयल की ‘भारत में इस्लामी साम्राज्यवाद की कहानी’ (वॉयस ऑफ इंडिया, 2020) में यह इतिहास संक्षिप्त, पर प्रमाणिक रूप से उपलब्ध है।
वैसे भी, यदि कोई पिछले सौ सालों में भारत के बड़े मुस्लिम और हिन्दू नेताओं के तमाम बयानों, कामों, आदि को व्यवस्थित रूप से सामने रख कर देखे तो वह असंतुलन साफ झलकेगा। एक बार उसे समझ लेने पर उसे संतुलित करने का उपाय विवेकशील हिन्दू मुसलमान स्वयं ढूँढ लेंगे। अभी तो यह समस्या ही छिपाए रखी गई है। इसीलिए वह समय-समय पर तरह-तरह विकृत रूपों में उभरती रहती है।
वह फाँस एक समुदाय में अपने ताकतवर, विशेषाधिकारी, अंतर्राष्ट्रीय और स्वभाव से ही शासक होने की घमंडी भावना है। यह अपने लिए दूसरों से अधिक, कुछ विशेष पाने का दावा रखती है। दूसरे धर्मों को झूठा, हीन, आदि बताते हुए भी अपने लिए बेशर्त आदर की माँग करती है। वह समान मानवीय नैतिकता को स्वीकार नहीं करती। इस घमंडी मानसिकता के सिद्धांत-व्यवहार-इतिहास से लगभग अपरिचित रहते हुए दूसरा समुदाय अपने अज्ञान व उदारता के अहंकार में जीता है। फलतः बार-बार व्यर्थ, और हानिकर उपाय या प्रतिक्रिया करता है। मजहबी उग्रता को किन्हीं व्यक्तियों की भूल मानकर तरह देना, शाब्दिक उत्तर देने से भी बचना, तुष्टीकरण, तात्कालिक समस्या को किसी तरह टालना और विषय बदल कर दूसरी लफ्फाजियाँ करना, आदि उसी अज्ञान के रूप हैं।
यही वह असंतुलन और संवादहीनता है जिसने पिछले सौ सालों से हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को खराब किया और वैसा ही रखा है। कांग्रेस का नेतृत्व गाँधीजी द्वारा लेने के बाद यह असंतुलन व विकृति दिनो-दिन बढ़ती चली गई।
आज ‘नागरिकता कानून’ पर चल रहे विरोधी विचारों और नारों में भी उसी की झलक है। यहाँ मुसलमानों को साफ झूठी बातों पर भी बरगलाया जा सकता है। नागरिकता कानून पर संविधान-सम्मत क्या है? इस पर संविधान विशेषज्ञों या न्यायालय की भी परवाह नहीं की गई। मुस्लिम नेता अपने समुदाय को जैसे चाहें वैसे उठाते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच संवाद नहीं है। इसलिए, अपने नेताओं की मनमानी, झूठी नारेबाजी पर भी मुसलमान विश्वास कर लेंगे। यदि दोनों समुदायों के बीच सीधा, खुला विमर्श रहता तो ऐसी जिद और मनमानियाँ नहीं चल पातीं।
हिन्दुओं की मुस्लिम समुदाय के साथ संवादहीनता हमारे राष्ट्रीय जीवन की एक बड़ी कमी रही है। कभी संवाद हुआ भी तो आडे-तिरछे, जिसे ‘क्रॉस-परपस’ कहते हैं। एक पक्ष किसी विषय पर बोल रहा है, तो दूसरा अन्य पर। इस में हिन्दू पक्ष अधिक दोषी रहा है। मुसलमानों द्वारा मजहबी दावे होने पर हिन्दू नेता, बौद्धिक उसे लाग-लपेट कर कृत्रिम रूप दे देते हैं या फिर मौन रहते हैं। सीधी बात नहीं करते। फिर, विभिन्न पार्टियाँ हर मुद्दे पर अपनी-अपनी रोटी सेंकने में लग जाती है। किसी भी विषय में दलीय हित से ऊपर उठकर राष्ट्रीय दृष्टि से विचार नहीं करती।
जबकि मुस्लिम मामलों पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाना ही एक मात्र उपाय है। ऐसा न करने से भारी हानियाँ होती रही है। दलीय कमजोरियों का लाभ उठाकर ऐसे अनेकानेक कार्य हुए जिस से राष्ट्रीय हितों और समाज को चोट पहुँची। इसी का छद्म नाम वोट-बैंक राजनीति है, जिस का अर्थ सभी जानते हैं, पर बोलते नहीं। फलतः सेक्यूलरवाद, अल्पसंख्यक-हित, आदि नामों से विविध हानिकर काम होते हैं। यह स्थिति बदलनी चाहिए। वरना कश्मीर से केरल और गुजरात से असम तक एक ही बुराई नए-नए रुपों में आती रहेगी।
वह बुराई मूलतः अज्ञान जनित है। सारी दुनिया के इतिहास और वर्तमान अनुभवों को सामने रखकर दो-टूक कहा जा सकता है कि हिंसा, विशेषाधिकार, एकतरफापन, अलगाववाद, और दोहरी नैतिकता से अंततः किसी का भला नहीं हो सकता। अब मुस्लिमों में भी यह समझने वाले बढ़ रहे हैं कि हर देश में मुस्लिम अशान्ति या पिछड़ेपन का कारण दूसरों को देते रहना गलत है। तब यहाँ हिन्दुओं को हिचक छोड़ कर ऐसे स्वरों को बल पहुँचाना चाहिए। इसका सब से अच्छा उपाय है खुला विमर्श चलाना।
इस कार्य से बचना या टालना विपरीत फलदायी रहा है। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास, शिकायतें, गलतफहमियाँ, और खुशफहमियाँ बढ़ती गई हैं। इसी का फायदा कट्टरपंथियों ने ही उठाया। हालिया उदाहरण लें, तो कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने पर कही गई बातों में कश्मीरी पंडितों का मामला गुम रखा गया। मानो, उस अनुच्छेद से केवल कश्मीरी मुस्लिमों को नुकसान हो रहा था! उन्हें विकास, आरक्षण, विविध कानून, आदि के लाभ नहीं मिल रहे थे, आदि। मानो कश्मीरी हिन्दुओं को अपने ही घर से मार भगाना कोई मुद्दा न हो! ऐसे रुख से गलत संदेश जाता है। गलत काम को, उस में हिस्सा लेने वालों, उस से फायदे उठाने वालों को उस के दोष बताने ही चाहिए। तभी उस पर नैतिक दबाव पड़ता है, जो सामाजिक सामंजस्य बनाने के लिए जरूरी है।
सच पूछें, तो ‘नागरिकता संशोधन कानून’ की कैफियत में भी बचने, कतराने वाली प्रवृत्ति रही। इसीलिए दुनिया में भारत और हिन्दुओं के बारे में गलत छवि बनाने की मुहिम चल सकी। क्योंकि भारत-भूमि पर पिछले सौ सालों से धार्मिक दृष्टि से पीड़ित, वंचित की तुलनात्मक सच्चाई रखने में कोताही की गई। हिन्दू पीड़ितों की हालत और आवाज को कभी, कहीं स्वर नहीं दिया गया। चाहे कानूनी भेद-भाव हो या आतंकवाद। फलतः एकतरफा नरेटिव बनाया गया, जिस से दिग्भ्रमित हिन्दू भी नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध आंदोलित देखे जा रहे हैं।
इन सब का दोष केवल विरोधी पार्टियों पर देना भी भगोड़ापन है। यहाँ किसी पार्टी में क्षमता नहीं कि मुसलमानों का मनचाहा इस्तेमाल करे। उन्हें उनके अपने नेता ही उठाते हैं, जो किसी पार्टी के बंधक नहीं। वे मजहबी हितों को सर्वोपरि रखते हैं। किसी पार्टी से मिला कोई लाभ, स्वार्थ भी उन्हें नहीं डिगाता। इस कटिबद्धता की जड़ से उलझने के बदले दलबंदी आरोप-प्रत्यारोप में लगे रहना राष्ट्र-हित में नहीं है। लफ्फाजी, तुष्टीकरण या झूठे उपाय मूल समस्या को जस का तस छोड़ देते हैं। घाव ठीक नहीं होता, केवल छिपा रहता है। इस से देश की हानि हुई है।
इसे खुले, पर सदभावपूर्ण विमर्श से सुधारा जा सकता है। इस में सेक्यूलर, वामपंथी, गाँधीवादी मतवादियों को बिचौलिया बनने का अवसर न दिया जाए। उन्होंने अब तक स्थिति को बिगाड़ा ही है। हिन्दू-मुसलमानों के बीच सीधा संवाद ही इसे ठीक कर सकता है। इतिहास और वर्तमान की संपूर्ण सचाई सामने रखकर यह संभव है। ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, तकनीकी, सैनिक, आर्थिक, और नैतिक आंकड़े रखकर संपूर्ण आकलन हो। दोनों पक्ष वस्तुस्थिति की ठोस समीक्षा कर विवेकपूर्ण निर्णय लें। उसी से समान और न्यायपूर्ण व्यवहार तय हो सकेगा। यह तुरत तय नहीं होगा। पर होने का मार्ग खोलेगा।
– डॉ. शंकर शरण