स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में मानवाधिकारवादी संगठन भी खड़े हुए हैं। भारत में एक मानवाधिकार आयोग भी गठित किया गया है। लोकतांत्रिक देशों में यह एक स्वस्थ परंपरा है कि लोगों के अधिकार दिलाने और समझाने के लिए एक आयोग गठित किया जाए। किंतु इस प्रकार के मानवाधिकार आयोग के गठन से पूर्व इस महत्वपूर्ण बिंदु पर विचार कर लेना भी आवश्यक है कि मनुष्य के अधिकार ही होते हैं अथवा कुछ कत्र्तव्य भी होते हैं?
अधिकार पहले या कत्र्तव्य?
यदि अधिकारों के साथ-साथ मानव के कत्र्तव्य भी हैं तो कत्र्तव्य और अधिकार में से कौन सा महत्वपूर्ण है? सामाजिक समरसता से कत्र्तव्य उत्पन्न होंगे या अधिकार? इस पर विचार होना चाहिए।
हर युग में, हर काल में इसी बात की अधिक आवश्यकता रही है और रहेगी कि मानव को पहले मानव बनाया जाए। कत्र्तव्यवादी होकर ही मानव-मानव बन सकता है। एक कत्र्तव्यवादी व्यक्ति दूसरों के अधिकारों का ध्यान रखता है। वह दूसरों के लिए पथ छोड़ता ही नहीं, अपितु बनाता भी है। उसे अपने अधिकारों की नहीं, अपितु सदैव कत्र्तव्यों की चिंता रहती है। उनका हृदय मानवता से भरा हुआ होता है। उसका जीवन धर्म-रस के मधु का छत्ता बन जाता है जिससे दानवता से जलती मानवता के भयंकर और असाध्य रोगों की चिकित्सा होना भी संभव होता है।
भारत का अतीत गौरवपूर्ण इसलिए था कि उसे उस समय सत्य का पता था कि मानवता के प्रचार-प्रसार के लिए और श्रेष्ठ मानव समाज की संरचना के लिए मानव को कत्र्तव्यवादी बनाना नितांत आवश्यक है। जब मानव अपने अधिकारों के लिए छीना-झपटी करने लगता है, तो मानव समाज में सभ्यता आने लगती है और विकृति प्रविष्ट हो जाती है। मानव हिंसक हो जाता है और वह दूसरों के अधिकारों का दमन और शोषण करने वाला बन जाता है।
कत्र्तव्य प्रधान संगठन का अभाव
स्वतंत्र भारत के कर्णधार हमारे राजनीतिज्ञ मानवाधिकारवादी संगठनों को प्रोत्साहन दे रहे हैं, किंतु मानव कत्र्तव्यवादी बने इस ओर उनका ध्यान नहीं है। इसलिए मानव का नैतिक पक्ष दुर्बल से दुर्बलतर होता जा रहा है। परिणामस्वरूप समाज का नैतिक पतन पूर्व के हर काल से अधिक अब हो रहा है। स्थिति यह है कि मानव के अधिकारों को दिलाने के लिए रेडियो और टी.वी. तथा कुछ अन्य संगठन जितना अधिक शोर मचाते हैं उतना ही अधिक इन अधिकारों का उल्लंघन होता जा रहा है।
समाचार पत्र इस तथ्य की नित्यप्रति पुष्टि करते हैं, क्योंकि समाचार-पत्रों में लूट, हत्या, डकैती और बलात्कार की इतनी घटनाएं होती हैं कि रचनात्मक समाचारों के लिए स्थान कम पड़ जाता है। हम भारत के उस पुराने समय का स्मरण करें जब पुत्री का पहले तो पिता और उसके पश्चात भाई सदा ध्यान रखता था। प्रत्येक अवसर पर उसकी आर्थिक सहायता की जाती थी। उसके घर आने पर भाई उसकी समस्याओं को सुनता था और तत्पश्चात उनके समाधान के लिए पूर्ण प्रयास करता था। यहां तक कि कुछ पर्वों पर तो उसके लिए भाई खाने-पीने के सामान सहित वस्त्रादि का भी सहयोग किया करता था।
आज पुत्री को संपत्ति में समानाधिकार दिलवाये जा रहे हैं। हरियाणा जैसे प्रांत में तो वह ऐसे अधिकार प्राप्त भी कर चुकी है। किंतु हम देख रहे हैं कि पूर्व की आदर्श व्यवस्था की हत्या हो चुकी है। पारिवारिक समरसता और एक दूसरे के प्रति सहयोग और सदभाव का वातावरण विषाक्त होता जा रहा है। बहन भाई का प्रेम मधुर नहीं रहा है। ऐसी परिस्थितियों में कल क्या होगा? कुछ भी कहना कठिन है। यदि किसी कारणवश पूर्व की आदर्श व्यवस्था विद्रूपित सी होती भी जान पड़ रही थी तो उसके परिष्कार की आवश्यकता थी न कि उसे समूलोच्छेदित कर देने की।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715

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