इतिहासकार डॉ गोपीनाथ शर्मा का मत
इसी संदर्भ में इतिहासकार डा.गोपीनाथ शर्मा अपनी पुस्तक “राजस्थान का इतिहास” के पृष्ठ 233-34 पर लिखते हैं कि- “विपत्ति काल के संबंध में एक जनश्रुति और प्रसिद्ध है। बताया जाता है कि जब महाराणा के पास सम्पत्ति का अभाव हो गया तो उसने देश छोड़कर रेगिस्तानी भाग में जाकर रहने का निर्णय किया, परन्तु उसी समय उसके मंत्री भामाशाह ने अपनी निजी सम्पत्ति लाकर समर्पित कर दी। जिससे 25 हजार सेना का 12 वर्ष तक निर्वाह हो सके।
इस घटना को लेकर भामाशाह को मेवाड़ का उद्धारक तथा दानवीर कहकर पुकारा जाता है। यह तो सही है कि भामाशाह के पूर्वज तथा स्वयं वे भी मेवाड़ की व्यवस्था का काम करते आये थे, परन्तु यह मानना कि भामाशाह ने निजी सम्पत्ति देकर राणा को सहायता दी थी, ठीक नहीं। भामाशाह राजकीय खजाने को रखता था और युद्ध के दिनों में उसे छिपाकर रखने का रिवाज था। जहाँ द्रव्य रखा जाता था, उसका संकेत मंत्री स्वयं अपनी बही में रखता था। संभव है कि राजकीय द्रव्य भी जो छिपाकर रखा हुआ था, लाकर समय पर भामाशाह ने दिया हो या चूलिया गांव में मालवा से लूटा हुआ धन भामाशाह ने समर्पित किया हो|”
इस कथन से स्पष्ट है कि डॉक्टर गोपीनाथ शर्मा भी इस बात से सहमत नहीं है कि भामाशाह ने स्व- अर्जित धन देकर महाराणा प्रताप की मुसीबत के समय में सहायता की थी।
इतिहासकार तेज सिंह तरुण का मत
इसी प्रकार तेजसिंह तरुण अपनी पुस्तक “राजस्थान के सूरमा” के पृष्ठ 99 पर लिखते हैं – हल्दीघाटी की विफलता के बाद की परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हुए लिखते है-“भामाशाह मालवा की सीमा पर स्थित रामपुरा चले गए। अब तक ताराचंद भी यहाँ पहुँच गया था। 1578 ई. में दोनों भाइयों ने मेवाड़ की बिखरी सैनिक शक्ति को एकत्रित कर अकबर के सूबे मालवे पर ऐसा धावा बोला कि पूरे सूबे में खलबली मच गई। मुग़ल सत्ता को भनक भी नहीं लगी और वहां से 25 लाख रूपये से अधिक राशि वसूलकर पुन: मेवाड़ आये। इस धनराशि से प्रताप को बहुत बड़ा सहारा मिला और वे पुन: मुगलों से संघर्ष को तैयार हो गए।
यही वह धनराशि थी जिससे भामाशाह, भामाशाह बने और हिंदी शब्दकोष को एक नया शब्द “भामाशाह” (अर्थात संकट में जो काम आये) दे गये। कई किंवदंतियों को जन्म मिला। कुछेक कलमधर्मियों व इतिहासकारों ने उक्त राशि को भामाशाह की निजी धनराशि मानकर भामाशाह को एक उदारचेता व दानवीर शब्दों से सम्मान दर्शाया, लेकिन वास्तविकता में यह धनराशि मालवा से लूटी हुई धनराशि थी।”
कर्नल टाड ने भी हमें बताया है कि भामाशाह अपने महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वाह महाराणा प्रताप के काल तक करता रहा। ओझा जी हमें बताते हैं कि भामाशाह अपनी एक बही अपने पास रखता था और उसमें अपने गुप्त राजकोष की जानकारी रखता था। उस बही में राजकोष से संबंधित धनराशि का ही विवरण होता था । उसमें भामाशाह की स्व अर्जित या उसके परिवार की संपत्ति का कोई विवरण नहीं हो सकता था। देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए या जनसाधारण के लिए किए जाने वाले कल्याणकारी कार्यों के दृष्टिगत जब भी कभी आवश्यकता पड़ती थी, तब – तब ही भामाशाह इस राजकोष से धन ले लिया करता था। वह व्यक्तिगत जीवन में बहुत ही अधिक ईमानदार था । उसके भीतर राष्ट्र प्रेम का लावा धधकता था। यही कारण था कि राजकोष से एक पैसा भी वह अपने लाभ के लिए नहीं लेता था।उसे वह राष्ट्र की संपत्ति माना करता था। जब महाराणा प्रताप को आवश्यकता पड़ी तो इस राष्ट्रभक्त ने एक बीजक की चाबी अपने स्वामी के पास अपनी पत्नी के द्वारा भिजवा दी थी।
महाराणा को बीजक किसने सौंपा ?
बीजक की चाबी को अपनी पत्नी के माध्यम से महाराणा तक पहुंचाने की बात भी जंचती नहीं है। क्योंकि मालवा से जीत कर लाई धनराशि को एक सेनापति के रूप में भामाशाह स्वयं ही सौंप सकता था ना कि उसकी पत्नी उस धनराशि को महाराणा प्रताप को सौंपती। इसके अतिरिक्त यदि बीजक से भी धनराशि कभी निकाली जाती होगी तो उसे भी भामाशाह स्वयं ही जाकर देते रहे होंगे।
महाराणा को बीजक को देते हुए भामाशाह को एक वृद्ध व्यक्ति दिखाना और उसकी वेशभूषा को व्यापारी जैसी वेशभूषा बनाना भी उसके साथ अन्याय करना है। हमें इस संदर्भ में यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि महाराणा प्रताप का जन्म जहां 1540 ईस्वी में हुआ था वहीं भामाशाह का जन्म 1547 ईस्वी में हुआ था। कहने का अभिप्राय है कि महाराणा प्रताप भामाशाह से 7 वर्ष बड़े थे। जब मालवा को जीत कर भामाशाह ने वहां से लाई गई धनराशि महाराणा प्रताप को दी थी तो उस समय अर्थात 1578 ई0 में उसकी अवस्था 31 वर्ष थी। इससे पता चलता है कि महाराणा प्रताप को तथाकथित दान को सौंपते हुए जिस भामाशाह का चित्र एक वृद्ध व्यक्ति के रूप में दिखाया जाता है वह पूर्णतया एक काल्पनिक चित्र है। इस चित्र के स्थान पर भामाशाह का चित्र एक गठीले शरीर वाले नवयुवक का दिखाया जाना चाहिए, जिसकी वेशभूषा भी सेनापति जैसी होनी चाहिए।
महाराणा को मिली बड़ी राहत
कर्नल टाड ने हमें बताया है कि भामाशाह ने जिस बीजक को महाराणा प्रताप को दिया था उस बीजक से महाराणा 12 वर्ष तक 25 हजार सेना को लेकर युद्घ कर सकते थे। कर्नल टॉड के बारे में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वह एक विदेशी लेखक था । जिसने भारत में अपने प्रवास के समय में महाराणा प्रताप या राजस्थान के इतिहास नायकों पर कोई गहन अध्ययन नहीं किया था। अतः उसकी हर बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ऐसी एक नहीं अनेक बातें हैं जिनका विवरण या वर्णन देकर उसने वास्तविकता को मिट्टी में मिला दिया है।
अंत में हम यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हमारा उद्देश्य भामाशाह की दानशीलता को कम करके आंकना नही है, वह तो राष्ट्रभक्त थे। उन्होंने जीवन भर देशभक्ति के कार्य किए। बीजक को सुरक्षित रखकर सही समय पर उसे राष्ट्र के लिए समर्पित करने में भी उनकी असीम सत्य निष्ठा दिखाई देती है। गुप्त राजकोष के बारे में महाराणा प्रताप बहुत अधिक नहीं जानते होंगे, परंतु इसके उपरांत भी भामाशाह ने गुप्त राजकोष को समय-समय पर महाराणा को ला लाकर दिया, यह उनकी सत्य निष्ठा ही थी।
हमारा मानना है कि इस गुप्त बीजक के पीछे भी राणा उदय सिंह की योजना छिपी थी। वह इस बीजक को गुप्त रखने में ही भलाई समझ रहे थे। 1567 ई0 में अकबर द्वारा चित्तौड़ को छीन लेने के पश्चात जिस समय मेवाड़ की कोई राजधानी नहीं थी , उस समय इस बीजक को गुप्त रखने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं था। यदि उस समय किसी भी व्यक्ति को इसकी जानकारी हो गई होती तो राणा उदय सिंह और महाराणा प्रताप के लिए तब शासक रह पाना भी कठिन हो गया होता। क्योंकि बिना अर्थ के सब व्यर्थ हो जाता। कहने का अभिप्राय है कि महाराणा उदय सिंह ने उस समय दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने विश्वसनीय व्यक्ति को यह बीजक सौंपा।
कोष सौंपते राणा की बुद्धि का कोई तोड़ नहीं।
समझ गए भामा जैसा दुनिया में कोई और नहीं।।
आज सच का पता लगाने में महाराणा उदय सिंह की उस दूरदर्शिता की उपेक्षा क्यों की जाए? उस आपत्ति काल में बीजक को छुपाकर रखना बड़ा कठिन था। विशेष रूप से तब जबकि मेवाड़ का कहीं पर भी कोई स्थाई राजकोष नहीं था और ना ही उसकी कोई राजधानी थी। तब बीजक की रक्षा करना भी अपने आप में बहुत बड़ी बात थी।
क्या महाराणा भामाशाह से दान ले सकते थे ?
महाराणा प्रताप के विषय में भी हमें स्मरण रखना चाहिए कि वे भामाशाह से कभी उसकी निजी धन संपदा को लेकर अपने भृत्य के धन से निर्वाह करने की भूल कदापि नही कर सकते थे। अपने किसी भी भृत्य के निजी धन से राजकाज चलाना आर्य परंपरा के विरुद्ध है। महाराणा प्रताप इस बात को भली प्रकार जानते थे। एक उदाहरण है राणा शक्ति सिंह और महाराणा प्रताप का। जब हल्दीघाटी के युद्घ के बाद दोनों भाइयों का पुर्नमिलन हो गया तो मुगल शासक अकबर की सेना से विधिवत बाहर निकलने के उपरांत शक्ति सिंह बड़े भाई से एक बार फिर मिलने गये। रास्ते में विचार आया कि भाई महाराणा प्रताप एक शासक हैं और यदि मैं उनके पास जा रहा हूं तो ऐसे ही अवस्था में उनको भेंट क्या दी जाए ? तब उसने निर्णय लिया कि मार्ग में पड़ने वाले फसरूर के किले को विजय कर लिया जाए और उसकी चाबी चित्तौड़ के शासक महाराणा प्रताप की सेवा में जाकर दी जाए। शक्ति सिंह ने यही किया और फसरूर के किले को अपने अधीन कर लिया।
जब शक्ति सिंह महाराणा प्रताप के पास पहुंचा तो उसने फसरूर के किले की चाबी अपने ज्येष्ठ भ्राता महाराणा प्रताप को सौंपी। जब उस चाबी का रहस्य महाराणा प्रताप ने पूछा तो शक्ति सिंह ने सारा वृतांत कह सुनाया। तब महाराणा ने वह चाबी लेकर भी प्रेम से छोटे भाई को लौटा दी कि छोटों को तो दिया जाता है, उनसे कभी लिया नही जाता है। अत: जिन महाराणा प्रताप ने अपने छोटे भाई शक्ति सिंह से दान के रुप में कुछ नहीं लिया उनसे यह अपेक्षा कैसे की जा सकती थी कि वह भामाशाह से कुछ ले सकते थे? निश्चित रूप से भामाशाह से उन्होंने तभी लिया होगा जब यह स्पष्ट हो गया होगा कि ये धन भामाशाह का नही अपितु उनके पिता उदय सिंह का है या मालवा से लूट कर लाया गया है।
राष्ट्रभक्त भामाशाह का जन्म राजस्थान के मेवाड़ राज्य में वर्तमान पाली जिले के सादड़ी गांव में 28 जून 1547 को एक जैन परिवार में हुआ था। उनके पिता भारमल एक सुप्रसिद्ध वीर योद्धा थे। महाराणा संग्राम सिंह के जीवन काल में भारमल रणथम्भौर के किलेदार थे। अपने पिता भारमल की भांति ही भामाशाह का सहयोग , समर्पण और सेवा भाव महाराणा परिवार के प्रति यथावत बना रहा। अपने पिता पिता से प्रेरणा पाकर वे सदा देश भक्ति के मार्ग पर चलते रहे। कहा यह भी जाता है कि एक बार अकबर ने उन्हें लालच देकर तोड़ने का प्रयास किया था। पर उन्होंने ऐसा करने से स्पष्ट इनकार कर दिया था। उन्होंने महाराणा प्रताप की सहायता करते हुए योजनाओं पर ढंग से कार्य किया और मेवाड़ को नई दिशा और दशा देने का कार्य किया।
महाराणा स्वरूप सिंह एंव फतेह सिंह ने इस परिवार के लिए सम्मान स्वरुप दो बार राजाज्ञाएँ निकाली थीं कि इस परिवार के मुख्य वंशधर का सामूहिक भोज के आरंभ होने के पूर्व तिलक किया जाये । जैन श्रेष्टी भामाशाह की भव्य हवेली चित्तौड़गढ तोपखाना के पास आज जीर्ण शीर्ण अवस्था में है। सन 1600 में इस महानायक का देहांत हो गया था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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