स्वामी सत्यानन्दजी ‘श्रीमद्दयानन्द प्रकाश’ की भूमिका के अन्त में लिखते हैं—
“स्वामी जी महाराज पहले महापुरुष थे जो पश्चिमी देशों के मनुष्यों के गुरु कहलाये । जिस युग में स्वामी जी हुए उससे कई वर्ष पहले से आज तक ऐसा एक ही पुरुष हुआ है जो विदेशी भाषा नहीं जानता था, जिसने स्वदेश से बाहर एक पैर भी नहीं रखा था, जो स्वदेश के ही अन्न-जल से पला था, जो विचारों में स्वदेशी था, आचारों में स्वदेशी था, भाषा और वेश में स्वदेशी था, परन्तु वीतराग और परम विद्वान् होने से सबका भक्ति-भाजन बना हुआ था। महाराज निरपेक्ष- भाव से समालोचना किया करते । सब मतों पर टीका-टिप्पणी चढ़ाते । परन्तु इतना करने पर भी उनमें कोई ऐसी अलौकिक शक्ति और कई ऐसे गुण थे जिनके कारण वे अपने समय के बुद्धिमानों के सम्मानपात्र बने हुए थे। महाराज के उच्चतम जीवन की घटनाओं का पाठ करते समय हमें तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि आज तक जितने भी महात्मा हुए हैं उनके जीवनों के सभी समुज्ज्वल अंश दयानन्द में पाये जाते थे । वह गुण ही न होगा जो उनके सर्वसम्पन्न रूप में विकसित न हुआ हो । महाराज का हिमालय की चोटियों पर चक्कर लगाना, विन्ध्याचल की यात्रा करना, नर्मदा के तट पर घूमना, स्थान-स्थान पर साधु-सन्तों के दर्शन और सत्संग प्राप्त करना मंगलमय श्रीराम का स्मरण कराता है। कर्णवास में कर्णसिंह के बिजली के समान चमकते खड्ग को देखकर भी महाराज नहीं काँपे, तलवार की अति तीक्ष्ण धार को अपनी ओर झुका हुआ अवलोकन करके भी निर्भय बने रहे और साथ ही गम्भीर भाव से कहने लगे कि आत्मा अमर है, अविनाशी है, इसे कोई हनन नहीं कर सकता । यह घटना और ऐसी ही अनेक अन्य घटनाएँ ज्ञान के सागर श्रीकृष्ण को मानस-नेत्रों के आगे मूर्तिमान् बना देती हैं। अपनी प्यारी भगिनी और पूज्य चाचा की मृत्यु से वैराग्यवान् होकर वन-वन में कौपीनमात्रावशेष दिगम्बरी दिशा में फिरना, घोरतम तपस्या करना और अन्त में मृत्युंजय महौषध को ब्रह्मसमाधि में लाभ कर लेना महर्षि के जीवन का अंश बुद्धदेव के समान दिखाई देता है ।
“दीन-दुःखियों, अपाहिजों और अनाथों को देखकर श्रीमद् दयानन्द जी क्राइस्ट बन जाते हैं । धुरन्धर वादियों के सम्मुख श्रीशंकराचार्य का रूप दिखा देते हैं । एक ईश्वर का प्रचार करते और विस्तृत भ्रातृभाव की शिक्षा देते हुए भगवान् दयानन्द ऋषि दयानन्द – मेरी दृष्टि में ‘आप्त राष्ट्रपुरुष’ जी श्रीमान् मुहम्मद जी प्रतीत होने लगते हैं। ईश्वर का यशोगान करते हुए स्तुति- प्रार्थना में जब प्रभु इतने निमग्न हो जाते हैं कि उनकी आँखों से परमात्म-प्रेम की अविरल अश्रुधारा निकल आती है, गद्गद-कण्ठ और पुलकित-गात हो जाते हैं तो सन्तवर रामदास, कबीर, नानक, दादू, चेतन और तुकाराम का समाँ बँध जाता है । वे सन्त शिरोमणि जान पड़ते हैं। आर्यत्व की रक्षा के समय वे प्रातःस्मरणीय प्रताप और शिवाजी तथा गुरु गोविन्दसिंह जी का रूप धारण कर लेते हैं ।
” महाराज के जीवन को जिस पक्ष से देखें वह सर्वांग सुन्दर प्रतीत होता है । त्याग और वैराग्य की उसमें न्यूनता नहीं है। श्रद्धा और भक्ति उसमें अपार पाई जाती है । उसमें ज्ञान अगाध है। तर्क अथाह है। वह समयोचित मति का मन्दिर है । प्रेम और उपकार का पुंज है। कृपा और सहानुभूति उसमें कूट-कूटकर भरी है । वह ओज है, तेज है, परम प्रताप है, लोकहित है और सकल कला-सम्पूर्ण है ।”
इस भक्तिभावाप्लावित कथन के बाद ऋषि के बारे में कुछ कहने की गुंजाइश
नहीं रहती। फिर भी श्रीमद्भगवद् गीता के शब्दों में यदि भाः सदृशी सा स्याद् भासस्तस्य महात्मनः ॥
दिवि सूर्य सहस्त्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
(गीता, एकादश अध्याय, श्लोक १२)
“यदि आकाश में हजारों सूर्य एक-साथ उदित हों तो उनकी जैसी आभा और दीप्ति होगी, कुछ-कुछ वैसी ही दीप्ति उस आप्त महापुरुष की होगी।”
हे भारत के (और मानवजाति के) भावी भाग्यविधाता ! पूर्ण आप्त राष्ट्रपुरुष ऋषि दयानन्द ! तेरी जय हो ! जय हो ! जय-जय हो !
[ ऋषि दयानन्द के १६८वें जन्म दिवस, १७ सितम्बर, १९६१ (भाद्रपद शुक्ला नवमी संवत् २०४८) पर वेद संस्थान, राजौरी गार्डन, नई दिल्ली में दिया गया भाषण । ]