बिखरे मोती-भाग 192
इनका स्वामी तो केवल वही परमपिता परमात्मा है। इसीलिए ऋग्वेद के ऋषि ने भी उसे ‘स्ववान’ कहा है। ‘स्व’ कहते हैं धन को और वान कहते हैं स्वामी को अर्थात जो समस्त सृष्टि के ऐश्वर्य का स्वामी है। जो सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, पृथ्वी आदि का रचने हारा है, जो पर्वत, पठार, सरिता, सागर, अन्न, औषधि, वनस्पति, वायु, जल, अग्नि, आकाश व विभिन्न प्रकार के खनिज पदार्थ और विविध प्रकार के जीव जंतु, मनुष्य इत्यादि की रचना करता है, वह इनका स्वामी भी कहलाता है। समस्त सृष्टि की संपन्नता अथवा ऐश्वर्य का वह अधिष्ठाता है। इसलिए ऋग्वेद ने उसे ‘स्ववान’ कहा है। वस्तुत: इस समस्त सृष्टि का स्वामी वह ‘स्ववान’ ही है अर्थात परमपिता-परमात्मा ही है, अन्य कोई नहीं।
सुबह शाम परमात्मा से भावपूर्ण हृदय से कहो-
सोओ तो कहो शुक्रिया,
जो कुछ दीना मोर।
यादगार बन जाए प्रभु,
मेरे जीवन की भोर ।। 1124 ।।
व्याख्या :-मनुष्य की कामनाएं (तृष्णाएं) आकाश की तरह अनंत हैं। ये जितनी पूरी होती जाती हैं-उससे भी अधिक बढ़ती जाती हैं, जैसे सागर से लहर समाप्त नही होती हंै, ठीक इसी प्रकार मन से कामनाएं कभी समाप्त नहीं होती हैं। परिणाम यह होता है कि मनुष्य ‘मन की शांति’ के लिए तरसता है। मन को सुकून मिले-इसके लिए सीधा सरल उपाय यह है कि जब शाम को सोने लगो तो परमपिता-परमात्मा से आज की गलतियों के लिए क्षमा मांगो और भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति न हो-इसके लिए दृढ़ संकल्प कीजिए। परमात्मा से भावपूर्ण हृदय से प्रार्थना कीजिए- हे प्रभु! जो प्राप्त है, वह पर्याप्त है। इसका क्षेम (रक्षण) कीजिए। हे प्राण प्रदाता ओ३म्! इसके लिए तेरा तहेदिल से शुक्रिया। लाख-लाख शुक्रिया!!
सुबह उठो, तो परमपिता परमात्मा से भावपूर्ण हृदय से कहो- हे प्रभु! मुझे आज तेरी कृपा से रात ठीक बीती, दिन भी ठीक बीते। मुझे आज ऐसी शक्ति देना-यह तन ऊर्जा से भरा हो, मन उत्साह से भरा हो, वह शुभ संकल्प वाला हो, आत्मा आनंद से भरी हो, बुद्घि सही निर्णय में रत हो। आज का दिन शुभ दिन बन जाए अर्थात यादगार बन जाए, मेरा चित्त और चेहरा कमल की तरह खिल जाए, वाणी उद्घेगरहित हो जाए, हे पिता! मेरी सब प्रकार की दुर्बलताएं दूर करो। ऐसी कृपा करो। कृपा करो।।
क्रोध क्षोभ को त्याग दें,
दोनों ही वापिस आयें।
भय तनाव चिंता बढ़ै,
रिश्ते बिगड़ते जाएं ।। 1125 ।।
व्याख्या-दूसरों का अनिष्ट करने के लिए अंत:करण में जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है-वह क्रोध है, किंतु जब तक अंत:करण में दूसरों का अनिष्ट करने की भावना पैदा नही होती, तब तक वह क्षोभ है, क्रोध नहीं। गंभीरता से चिंतन करने पर ज्ञात होता है कि दोनों का स्वभाव मिलता जुलता है। दोनों की तरंगें मन को पीड़ा पहुंचाने वाली हैं। इतना ही नहीं जिस मन अथवा चित्त में इनका उदय होता है। पुन: वे अपने उद्गम स्थान पर लौटकर आती हैं और पहले से अधिक वेगवान होती हैं, पीड़ादायक होती हैं, भय, तनाव (अवसाद) और चिंता के विषाणु तो इनसे मन -मस्तिष्क में ऐसे फैलते चले जाते हैं जैसे हैजा के विषाणु फैलते चले जाते हैं। सोओ तो कहो शुक्रिया, जो कुछ दीना मोरक्रमश: