मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 24 ( क ) हल्दीघाटी युद्ध के रोमांचकारी दृश्य
हल्दीघाटी युद्ध के रोमांचकारी दृश्य
जब हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा जा रहा था तो उस समय महाराणा प्रताप की सेना के महानायक रामशाह का युद्ध कौशल शत्रु को बहुत ही दुखी करने वाला था। महाराणा प्रताप के प्रति अपनी निष्ठा को व्यक्त करते हुए उस देशभक्त सेनानायक ने युद्ध क्षेत्र को शत्रुओं से खाली कर दिया था। अल बदायूंनी ने आंखों देखे दृश्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि :- “इस लड़ाई में चित्तौड़ वाले जयमल (राठौड़ रामदास) और ग्वालियर का राजा रामशाह अपने पुत्र शालिवाहन सहित बड़ी वीरता के साथ लड़कर मारे गए। तंवर खानदान का कोई भी वीर पुरुष बचने नहीं पाया।”
माधव सिंह के साथ लड़ते समय राणा पर तीरों की बौछार की गई और हकीम सूर जो शहीदों की ओर से लड़ रहा था भागकर राणा से मिल गया। इस प्रकार राणा के सैन्य बल के दोनों विभाग पुनः एकत्र हो गए। तब राणा लौटकर पहाड़ों में जहां चित्तौड़ की विजय के पश्चात वह रहा करता था और जहां वह किले के समान सुरक्षित रहता था, भाग गया। उष्ण काल के मध्य के इस दिन गर्मी इतनी पड़ रही थी कि खोपड़ी के भीतर भी मगज उबलता था।
ऐसे समय लड़ाई प्रातः काल से मध्यान्ह तक चली और 500 व्यक्ति खेत रहे, जिनमें 120 मुसलमान और शेष 380 हिंदू थे। 300 से अधिक मुसलमान घायल हुए। उस समय आग के समान लू चल रही थी। हमारे सैनिकों में चलने फिरने की भी शक्ति नहीं रही थी और सैनिकों में खबर फैल गई कि राणा छल के साथ पहाड़ के पीछे खड़ा होगा।”
यहां पर अल बदायूंनी के ये शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं कि इस युद्ध में 120 मुसलमान और 380 हिंदू मारे गए। बदायूंनी के इस प्रकार लिखने से स्पष्ट होता है कि यह युद्ध हिंदू मुस्लिम नाम की दो संस्कृतियों के मध्य हो रहा था। यही कारण था कि अकबर का यह इतिहास लेखक उस समय महाराणा प्रताप और अकबर के सैनिकों के शवों की गिनती नहीं कर रहा था बल्कि वह हिंदू मुस्लिमों के शवों की गिनती कर रहा था। यद्यपि अबुल फजल जैसे चाटुकार इतिहास लेखक की अपेक्षा बदायूंनी ने कहीं अधिक निष्पक्षता से लिखा है , परंतु इसके उपरांत भी हमारा मानना है कि बदायूंनी यहां जिस प्रकार यह मान रहा है कि हमारे सैनिकों में चलने फिरने की शक्ति नहीं रही थी , उससे यह स्पष्ट होता है कि मुगल सैनिकों की प्राण हानि इस युद्ध में अधिक हुई थी।
रामशाह ढूंढता रहा मानसिंह को
सच्चाई यह थी कि मुग़ल उस समय इतने अधिक भयभीत थे कि उन्हें महाराणा प्रताप की छाया तक से भी डर लग रहा था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप के लिए यह अत्यंत दु:खद समाचार था कि उनका रामशाह जैसा वीर सेनानायक वीरगति को प्राप्त हो गया। रामशाह उस दिन मानसिंह को ढूंढ रहा था। उसने मानसिंह को उस समय महाराणा प्रताप का नहीं बल्कि देश का शत्रु मान लिया था। यही कारण था कि मानसिंह को मार डालना उसकी प्राथमिकता थी। यद्यपि वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाया और उससे पहले ही वह वीरगति को प्राप्त हो गया । अल बदायूंनी ने उसके बलिदान और साहस की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है।
मानसिंह को खोज रहा, रामशाह रण बीच।
नजर पड़े पर मारता , देता उसको भीच।।
जिस प्रकार रामशाह उस दिन मान सिंह को ढूंढता रहा ,उसी प्रकार महाराणा भी युद्ध के समय मानसिंह को ही ढूंढ रहे थे। एक बार महाराणा प्रताप मानसिंह के पास पहुंच भी गए, परंतु उसे मुगल सेना की पूरी सुरक्षा मिली हुई थी। यही कारण था कि उसके निकट पहुंच कर भी उस पर प्राणलेवा हमला करने में महाराणा प्रताप सफल नहीं हो पाए।
महाराणा प्रताप और सलीम के बीच युद्ध?
यहां पर हम यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि महाराणा प्रताप और अकबर के पुत्र सलीम के बीच भी हल्दीघाटी के मैदान में युद्ध होना लिखा गया है परंतु यह कहानी केवल काल्पनिक है। क्योंकि सलीम हल्दीघाटी के युद्ध के समय लगभग 8 वर्ष का बालक था और वह इस युद्ध में अपनी बाल्यावस्था के कारण सम्मिलित भी नहीं हुआ था। इसके उपरांत भी कल्पना के आधार पर यह कह दिया गया है कि इस युद्ध का नेतृत्व सलीम कर रहा था और उससे महाराणा प्रताप का युद्ध हुआ था। यह कहानी केवल सलीम को महिमामंडित करने के लिए लिख दी गई लगती है। वास्तविकता यह थी कि सलीम और उसका बाप अकबर दोनों ही युद्ध से अलग थे। इस विषय में हम पूर्व में भी स्पष्ट कर चुके हैं।
महाराणा प्रताप स्वयं भी हल्दीघाटी के युद्ध में घायल हुए थे । उनके घावों के कारण शरीर से रक्त भी पर्याप्त बह गया था। इसके उपरांत भी वह महाराणा संग्राम सिंह के आदर्श को सामने रखकर लड़ाई लड़ते रहे थे। ज्ञात रहे कि महाराणा संग्राम सिंह 80 घावों के उपरांत भी युद्ध करते रहे थे। महाराणा प्रताप के सैनिक अपने नेता अर्थात महाराणा प्रताप के लिए मर मिटने को तैयार थे उनके लिए राष्ट्र और महाराणा प्रताप एक रूप हो गए थे।
रक्त बदन से बह रहा, नहीं कोई परवाह।
मानसिंह को खोजना, एक यही थी चाह।।
आर्य / हिंदू योद्धाओं की यह विशेषता रही है कि उन्होंने कई अवसरों पर अपने नेता को मैदान से हटाकर अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान देने को राष्ट्रहित में उचित माना है। इसका कारण केवल एक रहा कि हमारे वीर योद्धाओं की दृष्टि में इतिहास के उस महानायक का जीवित रहना उनकी अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण था, जो राष्ट्र के भीतर वीरता का संचार कर सके और अधिक से अधिक योद्धाओं को अपने नेतृत्व में लाकर शत्रु का सामना कर सके। महाराणा प्रताप भी उस समय राष्ट्र की अस्मिता का प्रतीक बन चुके थे। यही कारण था कि उनके सैनिक उन्हें युद्ध के मैदान से हट जाने के लिए दबाव बनाने लगे थे। महाराणा का युद्ध क्षेत्र में राजच्छत्रविहीन करने का उनके सैनिकों ने कई बार प्रयास किया। राजच्छत्रविहीन कर देने के पश्चात महाराणा प्रताप को युद्ध के मैदान से निकल जाने का अवसर उपलब्ध होना था। परंतु महाराणा प्रताप युद्ध के मैदान से हटना उचित नहीं मान रहे थे।
झालाराव मन्ना सिंह
महाराणा प्रताप की सेना के एक देशभक्त वीर योद्धा झालाराव मन्ना सिंह ने साहसिक पहल करते हुए महाराणा प्रताप को शत्रुओं से घिरे हुए देखा तो उन्होंने पलक झपकते ही एक महत्वपूर्ण निर्णय ले लिया। झालाराव मन्ना सिंह ने महाराणा प्रताप की जय - जयकार करते हुए महाराणा के पास आने की बुद्धिमत्तापूर्ण युद्ध नीति का सहारा लिया। उन्होंने अपनी योजना को बड़ी फुर्ती से सिरे चढ़ाया। जिस प्रकार वह शोर मचाते हुए महाराणा प्रताप की ओर बढ़े आ रहे थे उससे मुगल सैनिकों का ध्यान भंग हो गया और वे इधर-उधर देखने लगे।
इससे पूर्व कि मुगल सैनिक झालाराव को समझ पाते, झाला ने पलक झपकते ही महाराणा प्रताप का राजछत्र और चंवर हटाकर अपने ऊपर लगा लिया। इसके बाद उन्होंने महाराणा प्रताप से निवेदन किया कि "आप हमारी जाति ( हिंदू ) और मातृभूमि के गौरव हैं । हम सबकी शक्ति के प्रेरणा स्रोत हैं। अतः आप शीघ्रता से यहां से निकल जाइए, आप के स्थान पर मैं शत्रुओं से संघर्ष करूंगा।"
दूर चले जाओ राणा जी , मेरे मन की सुनो पुकार।
निज बलिदान करूंगा रण में मच जाएगी हाहाकार।।
अब महाराणा प्रताप के सामने युद्ध के मैदान से बाहर चले जाने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं था। फलस्वरूप महाराणा प्रताप युद्ध के मैदान से निकल चले। मन्ना सिंह के ऊपर लगे राजछत्र को देखकर सभी मुगल सैनिक छले गए। यही कारण रहा कि वह झालाराव को ही महाराणा मानकर उस पर टूट पड़े। उस दिन के उस भयंकर युद्ध में मुगल सैनिकों के लिए अब वह शुभ अवसर आ चुका था जिसकी प्रतीक्षा में वे लंबे समय से थे अर्थात महाराणा को घेर कर मारने के पल। यह अलग बात है कि वह जैसे महाराणा प्रताप मान रहे थे वह महाराणा न होकर झाला राव मन्ना सिंह थे।
मन्ना सिंह ने भी जीवन के अंतिम क्षणों में अपनी वीरता का परिचय देने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी। जिस प्रकार दीपक बुझने से पहले एक बार ऊंची लौ करके प्रकाश देने का अंतिम प्रयास करता है , वैसे ही झालाराव मन्ना सिंह भी बुझने से पहले ऊंची लौ के साथ अपना अंतिम प्रकाश फैला देना चाहते थे। उनकी सोच थी कि मेरी इस अंतिम लड़ाई से आने वाली पीढ़ियां शिक्षा लें और जब जब भी उन्हें विदेशी आक्रमणकारियों या संस्कृतिनाशकों के विरुद्ध युद्ध करने की आवश्यकता अनुभव हो तो उसे प्रेरणा के स्रोत के रूप में जानें।
यही कारण था कि वह आज अपनी वीरता में किसी प्रकार की कमी छोड़ देना नहीं चाहते थे। उन्हें यह भली प्रकार ज्ञात था कि आज वह इतिहास का अंतिम पृष्ठ लिख रहे हैं ,जिसमें किसी भी प्रकार की कमी रहने नहीं दी जानी चाहिए।
वीर झाला का बलिदान
झालाराव मन्ना सिंह के जीवन का यह अंतिम युद्ध इस समय बहुत ही रोमांचकारी हो उठा था। मुगल सैनिकों के अनेक हमलों से उनका शरीर छलनी हो चुका था, पर वह इसके उपरांत भी मां भारती के सम्मान के लिए हथियार हाथ में लिए युद्ध करते जा रहे थे। अंत में वह शूरवीर अपनी अंतिम लड़ाई लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो ही गया। सत्य के लिए और देश की रक्षा स्वाभिमान के लिए लड़ते हुए वीर मन्ना सिंह ने इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया। उन्होंने संसार को यह संदेश दिया कि जब देश भक्ति सामने खड़ी होकर बलिदान मांग रही हो तो उससे भागना नहीं चाहिए अपितु सहर्ष बलिदान के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए।
महाराणा प्रताप अपने इस महान बलिदानी साथी के द्वारा किए गए इस प्रकार के महान उपकार को जीवन में कभी भूल नहीं पाए थे। यही कारण था कि उन्होंने मन्ना सिंह के परिजनों को राजछत्र सहित अपने साथ बैठने का भी विशेष अधिकार प्रदान किया था। उन्हें यह अधिकार भी दिया गया था कि वे राजछत्र साथ रखते हुए राज महल के मुख्य द्वार तक नौबत बजाते हुए आया करें। महाराणा ने मन्ना के परिजनों को जागीर और आभूषण आदि देकर भी सम्मानित किया। इस प्रकार महाराणा प्रताप ने मन्ना सिंह के किए गए उपकार का कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए ऋण चुकाने का सराहनीय और प्रेरणास्पद कार्य किया।
अल बदायूंनी का कहना है कि “बादशाह अकबर को जब हल्दीघाटी के युद्ध में मिली सफलता की सूचना दी गई तो यह सुनकर बादशाह सामान्य रूप से तो प्रसन्न हुआ परंतु राणा का पीछा ना कर उसको सुरक्षित जाने दिया गया, इस पर वह बहुत क्रुद्ध हुआ। अमीरों ने विजय के लिखित वृतांत के साथ रामप्रसाद हाथी को जो लूट में हाथ लगा था और जिसे बादशाह ने कई बार महाराणा से मांगा था, परंतु दुर्भाग्य से वह नटता ही रहा था, बादशाह के पास भेजना चाहा।”
अकबर मानता था अपनी पराजय
बदायूंनी का इस प्रकार लिखना यह बताता है कि अकबर महाराणा प्रताप के जीवित बच जाने को अपनी पराजय मानता था। उसका उद्देश्य महाराणा प्रताप का विनाश करना था, पर उसके सैनिक महाराणा को जीवित या मरा हुआ किसी भी प्रकार लाने में असफल रहे। अतः आधी अधूरी मिली सफलता को अकबर ने अपने लिए अपशकुन से कम नहीं माना। उसे पता था कि महाराणा जीवित रहते हुए कभी भी उसे चैन से सोने नहीं देगा। अतः अपनी पराजय को भी विजय में परिवर्तित करके दिखाने के उसके सैनिकों ने चाहे जितने भी प्रयास किए हों,पर वह उन प्रयासों से छला नहीं गया था।
हम पूर्व में ही बता चुके हैं कि महाराणा प्रताप जब हल्दीघाटी के युद्ध के मैदान से दूर निकल गए थे तो किस प्रकार उनके चेतक नाम के घोड़े ने उन्हें एक 26 फीट की चौड़ाई वाले नाले को कुदवाकर अपना बलिदान दिया था और किस प्रकार वहां जाकर उनके अनुज शक्ति सिंह ने दो मुगल सैनिकों का प्राणांत कर अपने भाई की प्राण रक्षा की थी ? शक्तिसिंह से विदा लेकर तब महाराणा प्रताप कोल्यारी गांव की ओर चले गए थे। उनके लिए चित्तौड़गढ़ को लेना बहुत ही अनिवार्य था। चित्तौड़गढ़ को लेने के लिए उन्होंने जीवन भर संघर्ष किया। वह जानते थे कि जब तक उनके पूर्वजों की राजधानी चित्तौड़गढ़ उनके पास नहीं है तब तक वह राजा होकर भी राजा नहीं हैं।
उधर अकबर ने मानसिंह के साथ क्या किया ? इसके बारे में अल बदायूंनी के माध्यम से हमें मालूम होता है कि अकबर ने मानसिंह और आसफ अली पर अपनी गहरी अप्रसन्नता व्यक्त की थी। “तबकात ए अकबरी” का लेखक अहमद बख्शी लिखता है :- “मान सिंह को अकबर ने वापस गोगुंदा से लौट आने की आज्ञा दी। मानसिंह चार माह वहां रहने पर भी महाराणा को कैद नहीं कर पाया था । आज्ञा पाते ही दरबार में उपस्थित हुआ। हल्दीघाटी के युद्ध में मुगल सेना की परेशानियों के संबंध में जांच की गई तो पाया गया कि सैनिक बहुत बड़ी आपत्ति में थे तो भी कुंवर मान सिंह ने राणा कीका के प्रदेश को लूटने की आज्ञा नहीं दी। इससे बादशाह उस पर अप्रसन्न हुआ और कुछ समय के लिए उसे दरबार से निकाल दिया।” (संदर्भ : तबकात – ए- अकबरी, इलियट एंड डॉउसन, जिल्द 5, पृष्ठ 400 – 401)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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