वेद उस घाट का नाम है जहां पूरा हिन्दू समाज जाकर अपनी ज्ञान की प्यास बुझाता है। इस घाट से कोई भी व्यक्ति बिना तृप्त हुए नहीं लौटता। सभी स्नातक होकर लौटते हैं, अर्थात स्नान कर लौटते हैं और यह स्नान आत्मिक ज्ञान का स्नान है। जिसमें आत्मा पूर्णानन्द की अनुभूति करता है।
ऐसा स्नान जिसमें साधक पूर्णत: तृप्त हो जाता है-आध्यात्मिक रूप से भी और भौतिक रूप से भी। हम भारतीयों के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि हम इसी वेद परम्परा की महान और गौरवमयी विरासत के उत्तराधिकारी हैं। हम आर्य हों चाहे हिन्दू-पर हमें सदा यह ध्यान रखना चाहिए कि मुस्लिम के लिए तो हम काफिर ही हैं।
यह कहा गया है कि-‘वेदोअखिलोधर्ममूलम्’ और यह भी कि-‘वेदोखिलोज्ञानमूलम्।’ ये दोनों उद्घोष हमें यह बता रहे हंै कि वेद, धर्म और ज्ञान का मूल है। अत: इस वेद परम्परा की महान और गौरवमयी विरासत के हम उत्तराधिकारियों के लिए यह स्वाभाविक रूप से अपेक्षित है किहमारा धर्म ‘वैदिक धर्म’ और ज्ञान ‘वैदिक ज्ञान’ है।
हमारा वैदिक धर्म हमें बताता है कि कर्म और विज्ञान का समुचित समन्वय ही धर्म का मर्म है। इसलिए जीवन में कर्मशीलता होनी अपेक्षित है। अकर्मण्यता और निठल्लेपन को वेद और वैदिक धर्म एक सिरे से ही नकारता है। साथ ही वेद अपेक्षा करता है कि हमारा कर्म विज्ञान के सिद्घांतों की भांति तार्किक आधारों पर टिका हो। वेद का यह सिद्घांत विश्व के सभी अन्य धर्मग्रन्थों में नहीं मिलता, इसीलिए वैदिक धर्म विश्व का सबसे उत्तम धर्म है।
धर्म के उद्घार के लिए हमारे कई महापुरूषों यथा-आदि शंकराचार्य, से लेकर महर्षि दयानंद जी सरस्वती स्वामी श्रद्घानंद सरीखे कितने ही लोगों ने कार्य किया।
यह सारा कार्य ‘हिन्दू शुद्घिकरण’ शब्द के द्वारा हमारा ध्यान इस ओर इंगित करता है कि हम पुन: शुद्घ होकर श्रेष्ठत्व को पाना चाहते थे। यह श्रेष्ठत्व ही आर्यत्व है। इसीलिए ‘कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्’ को हमने अपना उद्घोष बनाया।
इस उद्घोष से स्पष्ट है कि हम अपने मूल स्वरूप आर्य धर्म, अर्थात वैदिक धर्म में लौटना चाहते हैं। इससे यह तो स्पष्ट ही है कि हम मूलरूप से आर्य हैं। यह आर्यत्व ही हमारी आत्मा का मानो भोजन है। धर्म का यह शुद्घ स्वरूप कर्म और विज्ञान का समुचित समन्वय ही आर्यत्व है। जिसे हमें सही अर्थों और संदर्भों में समझने की आवश्यकता है।
परिवर्तित देश, काल और परिस्थिति के अनुसार हमारे इसी शुद्घ सनातन स्वरूप को कुछ विद्वानों ने ‘हिन्दुत्व’ के नाम से पुकारा है, जो कि उचित ही है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि हमारे लिए प्राचीनकाल में आर्य का ही संबोधन हमारे गं्रथों में मिलता है।
वेद ने भी-‘मनुर्भव: जनया दैव्य जनम्’ अर्थात मनुष्य बन और दिव्य संतति को उत्पन्न कर, यह कहकर हमें आर्य बनने के लिए ही आदेशित किया। हर मनुष्य तभी मनुष्य बनता है जब वह मननशील हो और दिव्य संतति को उत्पन्न करता हो, साथ ही वह धर्मशील भी हो और धर्मशील वही है जो आर्य है। इसलिए वैदिक धर्म हमें अपने आर्य स्वरूप में प्रतिष्ठित कर आर्य धर्म को ही अपनाने पर बल देता है।
आर्य और हिन्दू की प्राचीनता के संदर्भ में भारतीय और विदेशी सभी विद्वानों ने इस बात को एकमत से स्वीकार किया है कि हिंदू शब्द उतना प्राचीन नहीं है-जितना कि ‘आर्य’ शब्द है। इसलिए सन् 1926 में काशी के 56 पंडितों ने मिलकर यह कहा था-
हिन्दू शब्दोहि यवनेध्वधर्मिजन बोधक:।
अतोनार्हन्ति तच्छब्बोध्यतां सकला जना:।।
इससे स्पष्ट है कि मूलरूप में हमारा नाम हिन्दू नहीं है। आर्य शब्द की उत्पत्ति संस्कृति के ‘ऋ गतौ’ धातु से होती है जिसका अर्थ है कि आर्य प्रगतिशील और गतिवान, धर्म के मर्म को सदा समझने में समर्थ रहेंगे।
हमारे मस्तिष्क की मननशील शक्ति और ऊर्जा पर यथास्थितिवाद की जंग कभी नहीं लगेगी। एक सरिता की भांति हमारे ज्ञान का जल निरंतर प्रवाहमान रहेगा-अपने गंतव्य की ओर, मंतव्य की ओर, उन्नति की ओर- मुक्ति की ओर। मानो हमें अपने लक्ष्य का निरंतर ध्यान, ज्ञान और सम्मान का भान है। अत: ‘शतपथ ब्राह्मण’ में आर्य को निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है-‘व्रतशीलता आर्या ईश्वर पुत्र: आर्य:’ अर्थात जो नियमों में बंधकर चलता है, व्रतों में बंधकर चलता है, वही आर्य कहलाता है।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
मुख्य संपादक, उगता भारत