मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 23 ( ख ) जीवन का मोह छोड़कर लड़े हिंदू वीर
जीवन का मोह छोड़कर लड़े हिंदू वीर
हिंदू वीर योद्धा अपने इतिहास के महानायक महाराणा प्रताप के नेतृत्व में अपने प्राणों का मोह छोड़कर देश के लिए लड़ रहे थे। श्री केशव कुमार ठाकुर ने अपनी पुस्तक ‘भारत की प्रसिद्ध लड़ाइयां’ के पृष्ठ 277 पर लिखा है कि :- “जीवन का मोह छोड़कर राणा की सेना के राजपूतों ने जो भयानक युद्ध किया उसका कारण था उनकी स्वतंत्रता का अपहरण। उनकी मातृभूमि को दासता के बंधन में जकड़ दिया गया था और उनकी संपत्ति को छीनकर शत्रुओं ने अपने अधिकार में कर लिया था। शत्रुओं के अत्याचारों ने राजपूतों को जीवन – उत्सर्ग के लिए प्रेरणा दी थी और इसलिए वे उस युद्ध में शत्रुओं का संहार करना चाहते थे अथवा मारकाट करते हुए अपना बलिदान देना चाहते थे।”
भारतद्वेषी इतिहासकारों ने भारत के योद्धाओं के इस सच को छुपाकर हमारी स्वतंत्रता के अपहरणकर्ता अकबर और उसके तथाकथित सैनिकों के मनोबल को अधिक करके दिखाया है। जिससे भारतीय पक्ष को अधिक हानि हुई है।
2011 में इस संबंध में नवभारत टाइम्स में एक लेख छपा था। जिसमें बताया गया था कि उदयपुर के इतिहासकार डॉ. चंद्रशेखर शर्मा ने पहली बार यह सत्य उद्घाटित किया कि ‘महाराणा प्रताप हारे नहीं, जीते थे। अकबर की हार हुई थी।’
गंगाधर ढोबले उस लेख के माध्यम से हमें बताते हैं कि डॉक्टर चंद्रशेखर शर्मा इतिहास के प्राध्यापक हैं और उनकी पीएचडी का विषय भी महाराणा प्रताप ही था। साल 2007 में उन्होंने अपनी थिसीस को ‘राष्ट्ररत्न महाराणा प्रताप’ नाम से प्रकाशित किया।
उस लेख के प्रमुख अंश इस प्रकार हैं। “….हल्दीघाटी के रक्ततलाई में लगा पत्थर अब बदला जाएगा, जिस पर लिखा है, ‘यहां से महाराणा प्रताप की सेना पीछे हटने लगी।’ अब पत्थर पर लिखा होगा, ‘महाराणा प्रताप विजयी रहे। महाराणा ने छापामार युद्ध अख्तियार किया। अंत में अकबर की फ़ौज वापस लौटी।’ …. सन 2006 के आसपास हल्दीघाटी के इतिहास पुनर्लेखन की बात मुखरता से सामने आने लगी। उदयपुर के इतिहासकार डॉ. चंद्रशेखर शर्मा ने पहली बार यह सिद्धांत पेश किया कि ‘महाराणा प्रताप हारे नहीं, जीते हैं। अकबर की हार हुई है।’ वह इतिहास के प्रफेसर हैं और उनकी पीएचडी का विषय भी महाराणा प्रताप ही था। साल 2007 में उन्होंने अपनी थिसीस को ‘राष्ट्ररत्न महाराणा प्रताप’ नाम से प्रकाशित किया। दिल्ली के ‘आर्यावर्त संस्कृति संस्थान’ ने इसे प्रकाशित किया है। इस क़िताब की चर्चा होने लगी तो साल 2008 में तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत ने उन्हें दिल्ली में व्याखान के लिए आमंत्रित किया। उसके बाद से बीजेपी में यह आग्रह उठने लगा कि इतिहास बदला जाए। यहीं से इतिहास के भगवाकरण के आरोप लगने लगे। इस बारे में पूछने पर डॉ. शर्मा कहते हैं, ‘मैं किसी राजनीतिक विवाद में नहीं पड़ना चाहता। मैं अध्येता हूं। मैं सत्य को रखना चाहता हूं।’
….इस सिलसिले में नई दिल्ली के नेहरू संग्रहालय में हुआ एक सेमिनार महत्वपूर्ण है। इस सेमिनार में विजय कुमार वशिष्ठ, प्रफेसर कृष्णस्वरूप गुप्त, डॉ. मनोरमा उपाध्याय, प्रफेसर हितेंद्र पटेल जैसे देश के नामी इतिहासकारों ने हिस्सा लिया था। कर्नाटक के पूर्व राज्यपाल त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी मुख्य अतिथि थे। लगभग सभी इतिहासकारों की राय थी कि हल्दीघाटी युद्ध के बारे में वर्तमान इतिहास अधूरा है। इस युद्ध में प्रताप की हार नहीं हुई, न अकबर की निर्णायक जीत हुई थी। रक्ततलाई में महाराणा रणनीतिक तौर पर पीछे हटे। इसीका नतीजा था कि प्रताप किसानों से मुग़ल फ़ौज को दानापानी देना रुकवा सके और छापामार युद्ध कर सके। उन्होंने कभी हार नहीं मानी। ब्रिटिश इतिहास अरबी साक्ष्यों पर इकतरफा भरोसा करता है, जबकि उसे देसी सूत्रों का भी परीक्षण करना चाहिए था।
इस सेमिनार में उपस्थित इतिहासकारों की राय से लगता है कि यह एक जैसी सोच रखने वाले इतिहासकारों का जमावड़ा था। यहां विपक्ष में राय रखने वाला कोई नहीं था। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. तनुजा कोठियाल सेमिनार में व्यक्त की गई राय से सहमत नहीं हैं। राजपूतों पर उन्होंने बहुत अध्ययन किया है। उनका कहना है कि हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप हारे, इस बारे में कोई संदेह नहीं। लेकिन, यह सच है कि अकबर मेवाड़ पर नियंत्रण करने में बहुत सफल नहीं रहे। इस दृष्टि से कोई कह सकता है कि हल्दीघाटी में किसी भी पक्ष की विजय या पराजय नहीं हुई।
डॉ शर्मा की खोजपरक पुस्तक
इसी तरह राजस्थान शिक्षा मंडल की दो पाठ्यपुस्तकों में भी हल्दीघाटी का परस्पर विरोधी वर्णन था। एक में कहा गया था कि युद्ध में किसी की हार-जीत नहीं हुई, जबकि दूसरे में कहा गया था कि महाराणा प्रताप को हार मिली।
…..डॉ. चंद्रशेखर शर्मा की खोजपरक क़िताब 2007 में आई थी, जबकि 2018 में प्रसिद्ध इतिहासकार रीमा हूजा की इसी विषय पर क़िताब आई। दोनों के निष्कर्ष लगभग समान हैं। पहले डॉ. शर्मा की क़िताब के बारे में जानें। उन्होंने प्रताप के विजयी होने के कई कारण गिनाए हैं। पहला कारण युद्ध के लक्ष्य को लेकर है। प्रताप का लक्ष्य अपनी मातृभूमि की रक्षा करना था, जबकि अकबर का लक्ष्य किसी तरह प्रताप को मार डालना या कैद करना था। इस दृष्टि से सोचें, तो अकबर विफल रहा। इस विफलता पर अकबर इतना क्रुद्ध था कि उसने अपने सेनापति मानसिंह और आसिफ खान को छह माह तक दरबार में आने तक नहीं दिया। यदि अकबर जीतता, तो क्या वह अपने सेनाधिकारियों को इस तरह दंडित करता?
दूसरा कारण यह है कि युद्ध के बाद हल्दीघाटी और आसपास के इलाक़े में ज़मीन के पट्टे महाराणा ने जारी किए हैं। इसी तरह ज़मीन दान दिए जाने के कुछ ताम्रपत्र भी उपलब्ध हो गए हैं। यदि अकबर विजयी होता, तो क्या महाराणा ऐसे पट्टे या ताम्रपत्र जारी कर सकते थे? जनकथाओं में प्रताप को विजयी वीर ही कहा गया है। लोग मानते थे कि प्रताप जीते और अकबर हारा, चाहे फिर पुस्तकें कुछ भी कहती हों। एक और बात प्रताप के हाथी रामप्रसाद के बारे में है। घायल चेतक पर सवार होकर प्रताप वहां से निकल चुके थे। उनका रामप्रसाद नामक हाथी मुग़लों के हाथ लगा। मुग़ल इस हाथी को लेकर गांव-गांव घूमे, यह बताने के लिए कि प्रताप हार गया है। लेकिन, लोग हैं कि मुग़लों का मज़ाक़ उड़ाते थे। इतिहासकार भले प्रताप को हरा दें, लेकिन कम से कम लोककथाओं में वह कभी नहीं हारे।
इतिहासकार रीमा हूजा के निष्कर्ष भी लगभग डॉ. शर्मा की तरह ही हैं। वह लिखती हैं, ‘महाराणा प्रताप की सेना के मुक़ाबले मुग़ल फ़ौज बहुत विशाल थी। प्रताप की सेना ने मुग़लों की अग्रिम पंक्ति पर जबरदस्त धावा बोल दिया और उसे घाटी के संकरे दर्रे की ओर ढकेल दिया। अकबर का दरबारी इतिहासकार अब्दुल फाजी कहता है कि वहां इतनी भीषण लड़ाई हुई कि कौन दुश्मन और कौन दोस्त, यह पहचानना मुश्किल हो गया। लाशों के ढेर लग गए।’
हूजा आगे लिखती हैं कि मुग़ल सेनापति मानसिंह और प्रताप के बीच आमने-सामने की लड़ाई हुई। प्रताप ने मानसिंह पर भाला फेंका, लेकिन वह महावत को लगा और मानसिंह बच गया। मुग़ल फ़ौज में भगदड़ मच गई। उसे रोकने के लिए मुग़लों ने अफवाह फैला दी कि अकबर ख़ुद मैदान में उतर आया है। अब पांसा पलट गया। फिर भी, प्रताप कभी नहीं हारा। अकबर ने 1573 और 1575 ई0 के बीच प्रताप से संधि करने की तीन बार कोशिश की। मानसिंह, उसके पिता भगवंत दास और टोडरमल को भेजा, लेकिन प्रताप ने कोई संधि नहीं की और लड़ना जारी रखा।”
(आवाज़ : अखिलेश प्रताप सिंह)
इन सारे तथ्यों की उपेक्षा करते हुए कुछ तथाकथित विद्वानों या इतिहास लेखकों ने महाराणा प्रताप को महान न बताकर अकबर को महान मानने की बात कही है। इस विषय पर चर्चा हम अगले अध्याय में करेंगे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
(हमारी यह लेख माला आप आर्य संदेश यूट्यूब चैनल और “जियो” पर शाम 8:00 बजे और सुबह 9:00 बजे प्रति दिन रविवार को छोड़कर सुन सकते हैं।
अब तक रूप में मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा नामक हमारी है पुस्तक अभी हाल ही में डायमंड पॉकेट बुक्स से प्रकाशित हो चुकी है । जिसका मूल्य ₹350 है। खरीदने के इच्छुक सज्जन 8920613273 पर संपर्क कर सकते हैं।)