आर्य (हिन्दू) की व्याख्या और ऊर्जा का अपव्यय, भाग-2
आर्य ईश्वर पुत्र है। इस प्रकार आर्यत्व एक जीवनशैली है जो जीवन को उत्कृष्टता में ढालती है। उसमें नियमबद्घता, क्रमबद्घता, शुचिता, परोपकारिता, उद्यमशीलता आदि के भाव जागृत कर उसे उच्चता प्रदान करती है। इसीलिए ‘कल्पद्रुम’ में आर्य शब्द का अर्थ पूज्य, श्रेष्ठ, धार्मिक, उदार, कल्याणकारी और पुरूषार्थी कहा है तथा निरूक्त में-‘श्रेष्ठ सज्जन साधव:’ कहकर पुकारा गया है अर्थात जो व्यक्ति श्रेष्ठ सज्जन और साधु स्वभाव का है वही आर्य कहलाता है। इतनी पवित्र वैदिक संस्कृति ऐसे पवित्र मानव समाज का निर्माण करने के लिए कृत-संकल्प है। अपने इसी संकल्प की पूर्ति के लिए वैदिक संस्कृति ने सृष्टि प्रारंभ से मानव समाज के प्रगतिशील और सृजनशील लोगों को संघर्ष करना सिखाया है। यह संघर्ष उन लोगों से किया जाता है जो सामाजिक समरसता के विरोधी होते हैं और जो लोगों के जीवन प्रक्रिया को किसी भी प्रकार से बाधित करते हैं।
आर्य शब्द ने जब तक हमारी जीवन शैली को प्रभावित किया तब तक हमारे मानवीय आचरण और धर्म की दुन्दुभि विश्व में चहुं दिशाओं में बजती रही। हमने सब प्रकार से अपनी उन्नति की।
सारा विश्व हमारी उद्यमशीलता, जीवन की शुचिता, विज्ञानवाद और उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों के समक्ष नतमस्तक रहा। हमने अपना संबोधन ‘आर्य’ बनाये रखा और न केवल इसे बनाये रखा, अपितु इसे सार्थक भी किया। इन गुणों से हीन लोगों को हमने ‘अनार्य’ माना और कहा। यह ‘अनार्य’ शब्द आज के ‘अनाड़ी’ शब्द का ही शुद्घ स्वरूप है। इस प्रकार संपूर्ण मानव जाति दो भागों में विभक्त थी, एक आर्य और दूसरी अनार्य। हमारा लक्ष्य अनारियों का विनाश करना कभी नहीं रहा, अपितु अनार्यत्व का विनाश हमारा लक्ष्य रहा। जिसे हमने सर्वप्रथम शिक्षा और संस्कार के माध्यम से दूर करना उचित समझा। इसका अंतिम उपाय हमने युद्घ समझा। इस प्रकार शस्त्र और शास्त्र का उचित समन्वय करके हम चले।
आर्य और अनार्य
कुछ लोगों को आपत्ति होती है कि यदि वैदिक धर्म संसार को आर्य और अनार्य के रूप में विभक्त करता है तो इस्लाम ने ‘दारूल हरब’ और ‘दारूल इस्लाम’ में संसार को विभक्त करके अथवा देखकर क्या गलती की है? जिन लोगों की यह आपत्ति है या आक्षेप है, वे तथ्यों से अपरिचित है। वास्तव में आर्य धर्म संसार को मानवीय, लोकोपकारी और सर्वहितैषी बनाने का हामी था, वह उन्हीं लोगों को अनार्य मानता था और मानता है जो इन गुणों से हीन रहे या हीन हैं। इसके विपरीत इस्लाम को मानने वाले लोग अपनी मान्यताओं में विश्वास न रखने वालों को ‘काफिर’ और विश्वास रखने वालों को ‘मुस्लिम’ मानता है। उनका भ्रातृत्व सीमित है-कुछ लोगों तक। जबकि आर्य का भ्रातृत्व विस्तृत है, असीमित है और अपरिमित है। उसे किसी विशेष वर्ग, संप्रदाय अथवा मत के अनुयायियों तक सीमित कर बांधा नहीं जा सकता।
संसार का हर एक वह व्यक्ति जो प्रगतिशील और गुण, कर्म, स्वभाव से मर्यादित एवं श्रेष्ठ हो और श्रेष्ठ कर्म करता हो -वही आर्य है, जो किसी भी देश, जाति और वर्ग में हो सकता है। हिन्दुत्व की मूलभावना भी यही है। यहां यह भी विचार करने योग्य तथ्य है कि आर्य सीमाओं में नहीं बंधा, जबकि ‘हिंदू’ शब्द ने हमारी भौगोलिक सीमाएं बनाईं।
वही आर्य जो वेद मत और वैदिक धर्म के अनुयायी थे-कुछ लोगों की सम्मति में हिंदू हो गये। क्योंकि सिंधु की घाटी में उनकी सभ्यता और संस्कृति फल-फूल रही थी। संसार के साहित्य में आपको यह तथ्य भरपूर मात्रा में मिल जाएंगे कि सिंधु नदी की घाटी को ‘इण्डसवैले’ का नाम विदेशी इतिहासकारों, साहित्यकारों और लेखकों ने दिया है। यह भ्रांत धारणा है कि हमें हिंदू नाम मुस्लिमों के द्वारा मिला, किंतु यह सत्य है कि उन्होंने इस शब्द की व्याख्या या परिभाषा काला, काफिर, चोर, गुलाम या डाकू के रूप में की। हिन्दू को बताया गया चोर, काफिर और डकैत। मुस्लिमों की इस हिंदू शब्द की उपरोक्त परिभाषा का अर्थ यह नहीं कि इन्हीं गुणों से युक्त व्यक्ति ही हिंदू कहलाएगा -ऐसा कदापि नहीं । यह परिभाषा इन लोगों ने हमें केवल द्वेषवश ही दी थी।
हमें स्मरण रहे कि संसार भर की कई जातियों को जो इस्लामी तूफान समाप्त कर चुका था, उसे संसार में कहीं से चुनौती मिली तो वह केवल हिंदू से ही मिली थी। जी हां! यह सत्य है, इस सत्य को उद्घाटित करने वाले तथ्य हमारे सामने लाये ही नहीं गये हैं।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)