भारत में ऐसी-ऐसी मूर्खताएं शासन स्तर पर की गयी हैं कि उनसे देश का भारी अहित हुआ है। आज जबकि मोदी सरकार देश में भ्रष्टाचार के विरूद्घ आंदोलन छेड़ रही है, और बिहार में लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार को भ्रष्टाचार के शिकंजे में लाकर देश के बड़े भ्रष्टाचारियों को जेल की हवा खिलाने की तैयारी कर रही है-तब कुछ और भी प्रश्न हैं-जिन्हें अनुत्तरित नहीं छोड़ा जाना चाहिए। कहने का अभिप्राय है कि देश में कुछ और भी ऐसे घपले-घोटाले हो गये हैं-जिनका कोई हिसाब-किताब ना तो लिया गया है और ना लिया जा सकेगा, क्योंकि ये घपले-घोटाले इतनी चतुरता से किये गये हैं कि इन्हें गैर कानूनी कहा ही नहीं जा सकेगा? यद्यपि ये घपले-घोटाले शासकीय व प्रशासनिक स्तर पर बरती गयी घोर लापरवाही को ही इंगित करते हैं, और साथ ही पूरे तंत्र की भ्रष्टाचारी कार्यशैली को भी स्पष्ट करते हैं।
अब ऐसे घपलों-घोटालों पर विचार करते हैं। 1978-79 में यमुना में भयंकर बाढ़ आयी थी। तब जनता पार्टी की सरकार केन्द्र में थी। उसके पश्चात इंदिरा गांधी पुन: सत्ता में आ गयी थीं। तब उनकी सत्ता में वापसी के पश्चात संजय गांधी ने देश में वृक्षारोपण पर विशेष बल दिया। वृक्षारोपण के इस कार्यक्रम को सरकारी स्तर पर भी मान्यता मिली। यहां तक तो ठीक था। गलती उस समय हुई जब देश की जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों पर विचार न करके ऑस्टे्रलिया का एक वृक्ष (यूकेलिप्टस) यहां लाकर लगाया जाना आरम्भ कर दिया गया। यह वृक्ष अतिवृष्टि वाले क्षेत्रों के लिए उत्तम होता है। हमारे देश में इसको लाया तो गया पर यह विचार नहीं किया गया कि भारत के लिए यह कितना उपयुक्त होगा? यह फलदार वृक्ष नहीं है, इसकी लकड़ी भी अधिक उपयोगी नहीं है। यह वृक्ष भूगर्भीय जल को अधिक चूसता है, और धरती को अनुपजाऊ बनाता है। कहने का अभिप्राय ये है कि भारत के किसानों के लिए इसकी उपयोगिता कुछ भी नहीं है। जिन लोगों ने इस वृक्ष को अपने खेतों की मेंडों के चारों ओर लगाया उनके खेतों में खड़ी फसल पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ा और लोगों की भूमि बंजर होने लगी। देश के किसानों की भूमि का उत्पादन गिरा और उन्हें उत्पादन को सही बनाये रखने के लिए भारी मात्रा में रासायनिक खादों का प्रयोग करना पड़ा। जिससे किसान की कृषि उपज का सही लाभ नहीं मिला तो वह आत्महत्या करने लगा। इस प्रकार कानूनी रूप से एक बड़ा घोटाला देश में हो गया और किसी भी चोर को या अपराधी को दंडित करने की बात तो छोडिय़े उसे पकड़ा भी नहीं गया। जबकि हमारे अधिकारियों का यह पहला कत्र्तव्य था कि वे यूकेलिप्टस को भारत में लाने के लिए सरकार को कोई अनुशंसा ही नहीं करते। उनको देश भारी वेतन और सारी सुख-सुविधाएं इसीलिए देता है कि वे अपने पूर्ण बौद्घिक कौशल का प्रयोग करेंगे। आज देश की कृषि योग्य भूमि को बंजर कर दिया गया है, या उसकी उपज घट गयी है तो इसके लिए उत्तरदायी लोगों को अभी तक चिन्हित क्यों नहीं किया गया?
ऐसा ही एक दूसरा घोटाला देश में 1987 में हुआ। जिस समय देश के उपप्रधानमंत्री किसान पुत्र चौधरी देवीलाल थे। उस समय देश में सूखा पड़ा था। तब अमेरिका से एक घास लायी गयी और उसका बीज हवाई जहाज से सारे देश में बिखेर दिया गया। इसे लोग अमेरिकन घास या कांग्रेसी घास के नाम से जानते हैं। इसे हमारे पशु भी नहीं खाते हैं। साथ ही अब पता चल रहा है कि यह घास किसानों को दमा रोगी बना रही है और इसके संस्पर्श से लोगों के शरीर में गंभीर खुजली भी हो जाती है। इस प्रकार एक घास देश में आयी तो कई रोगों को भी साथ ले आयी। जिससे कितने ही लोग असमय मौत का शिकार हो रहे हैं। प्रश्न है कि क्या भारी भरकम वेतन लेने वाले हमारे कृषि वैज्ञानिक और अधिकारी इतने गये गुजरे हैं कि वे इस घास का परीक्षण पहले नहीं कर सकते थे? उनके राष्ट्रीय अपराध को किसी ने भी इंगित नहीं किया है। ऐसा न होने से हमारे उत्तरदायी लोगों में अनुत्तरदायित्व का भाव पनपता है और शासकीय व प्रशासनिक स्तर पर यह धारणा दृढ़ होती है कि आपको जो उचित लगे उसे कर दो-यहां कोई नहीं पूछने वाला कि क्या कर दिया और क्यों कर दिया?
देश में एक दौर ऐसा भी आया था-जब गोबर गैस बड़ी संख्या में लगवाये गये थे। उसके लिए किसानों को प्रेरित किया गया और उनके घरों में गोबर गैस लगवाये गये। तब ‘ग्राम्य विकास अधिकारी’ ने किसानों को समझाया कि आपको प्लाण्ट के निर्माण के लिए 50 कट्टे सीमेंट मिल जाएगा और आप उस सीमेंट को दूसरी जगह प्रयोग कर लें पर झूठे को ही सही एक गोबर गैस प्लाण्ट भी लगवा लें। लोगों ने ऐसा ही किया। परिणाम ये आया कि कोई भी गोबर गैस प्लाण्ट सफल नहीं हुआ। देश के कुल 6 लाख गांवों में 4 लाख गोबर गैस प्लाण्ट भी यदि लगे हों और उन पर उस समय 50 हजार भी खर्चा आया हो तो भी आप अनुमान लगायें कि कितना बड़ा घोटाला हो गया? सारा पैसा गड्ढे में चला गया। पर किसी ने आज तक नहीं पूछा कि यह पैसा कहां गया और किसकी लापरवाही से चला गया?
अब ‘मिड डे मील’ योजना पर आते हैं। यह योजना सरकारी विद्यालयों में लागू की गयी है। जहां बच्चों को दोपहर का भोजन दिया जाता है। देश के अधिकांश सरकारी स्कूलों में अध्यापक तो हैं पर छात्र नहीं हैं। अधिकांश छात्रों का नाम उपस्थित पंजिका में झूठा लिखा होता है। ये विद्यार्थी किसी दूसरे निजी स्कूल में शिक्षा ले रहे होते हैं, पर नाम सरकारी स्कूल में पंजीकृत रहता है। इस व्यवस्था का लाभ सरकारी स्कूलों में कार्यरत अध्यापकों को मिलता है। ये ‘मिड डे मील’ के लिए मिली सामग्री को बेच खाते हैं या उसका अन्यथा दुरूपयोग करते हैं। बच्चों को अत्यंत घटिया स्तर की सामग्री से निर्मित भोजन दिया जाता है, जिससे कितने ही गरीब बच्चों की मृत्यु तक हो गयी है। निजी स्कूलों में कार्यरत अध्यापकों को कार्य और परिश्रम अधिक करना पड़ता है और वेतन फिर भी अत्यल्प मिलता है। उधर सरकारी अध्यापक कम श्रम में अधिक वेतन लेकर मौज कर रहे हैं। पूरा का पूरा शिक्षा तंत्र घोटाले में सना पड़ा है। संविधान कहता है कि आत्म विकास के समान अवसर सभी लोगों को उपलब्ध कराये जाएंगे और यथार्थ में इसका उल्टा हो रहा है।
वास्तव में देश की राजनीति ने देश को अपनी मूर्खताओं और प्रशासनिक अक्षमताओं की ‘परीक्षण स्थली’ बनाकर रख दिया है। कोई पट्टों के नाम पर सरकारी जमीन को अपने वोट बैंक को मुफ्त दे देता है तो कोई लैपटॉप वितरण में सरकारी धन का दुरूपयोग करता है तो कोई लोगों को और उनकी आत्मा को चुनाव में खरीदने के लिए और दूसरे हथकण्डे अपनाता है। अंतत: देश कब तक ऐसी मूर्खताओं को झेलेगा? जब अन्य आर्थिक घोटाले पकड़े जा रहे हों तब इन घोटालों की ओर भी ध्यान दिया जाना अपेक्षित है।

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