हल्दीघाटी के विजेता महाराणा प्रताप
पूर्व में हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की मुट्ठी भर सेना ने ही मुगलों की विशाल सेना के पैर उखाड़ दिए थे। महाराणा प्रताप की सेना में सम्मिलित भीलों ने उस समय भारी – भारी पत्थरों के टुकड़े एकत्र कर ऊंचाई पर उनका ढेर लगा लिया था। उस समय यह बड़े सौभाग्य की बात रही कि महाराणा की सेना ऊंचाई पर खड़ी हुई थी। इसके साथ ही साथ वहां पर पेड़ों का घना साया भी था। इसी स्थान के नीचे से मुगल सेना को निकलना था। एक प्रकार से उन पेड़ों ने और ऊंचाई की स्थिति ने हमारे भील सैनिकों को बड़ी अच्छी सुविधा उपलब्ध करा दी थी। जिससे मुगल सैनिक उन्हें देख नहीं पाए थे।
ग्वालियर नरेश रामशाह तोमर के बारे में
इस युद्ध में ग्वालियर नरेश राम शाह तोमर की वीरता पर प्रकाश डालना भी आवश्यक है। रामशाह तोमर ग्वालियर के अंतिम तोमर राजपूत राजा बताए जाते हैं। उदय सिंह ने अपनी एक पुत्री का विवाह रामशाह के बेटे शालिवाहन सिंह तोमर से किया था। देश भक्ति और वीरता की जीत जागती मिसाल थे रामशाह तोमर।
इनका जन्म 1526 ई0 में हुआ था और 18 जून 1576 ई0 को हल्दीघाटी के युद्ध में इनका बलिदान हो गया था। ग्वालियर का यह वीर शासक बड़ी वीरता और साहस के साथ शत्रुओं के साथ युद्ध कर रहा था। उसके साथ उसके तीन पुत्र शालिवाहन, भानु सिंह और प्रताप बहादुर भी युद्ध में अपनी वीरता का प्रदर्शन कर रहे थे। वह जिस प्रकार युद्ध में अपना पराक्रम दिखा रहे थे उससे शत्रु भी दंग रह गया था। उनकी देशभक्ति सिर चढ़कर बोल रही थी और वीरता धड़ाधड़ शत्रु के सिर काट रही थी।
यह केवल हिंदू परंपरा ही है जिसमें एक साथ पिता-पुत्र मिलकर शत्रु संहार के लिए निकल पड़ते थे। उनके पश्चात उनके राजवंश का क्या होगा ? उन्हें यह तनिक भी विचार नहीं आता था।
देश की स्वाधीनता, अस्मिता और प्रतिष्ठा उनके लिए सब कुछ हो जाती थी। अपने आपको देश की अस्मिता, स्वाधीनता और प्रतिष्ठा के लिए समर्पित कर देना ही तो राष्ट्रभक्ति होती है। ग्वालियर नरेश की सेना ने उस दिन युद्ध क्षेत्र में भयंकर मारकाट की थी। उनके पराक्रम और वीरता के समक्ष मुगलों को भारी हानि उठानी पड़ी थी। मुगलों की सेना को बहुत पीछे हट जाना पड़ा था। ग्वालियर नरेश की सेना के सामने अकबर की ओर से लड़ रहे लंबकर्ण की सेना का साहस टूट गया था। लंबकर्ण के साहस टूट जाने के पश्चात ग्वालियर नरेश को अपनी सेना को आगे बढ़ने का अवसर प्राप्त हो गया। लंबकर्ण के इस प्रकार के प्रदर्शन से मुगल सेना में भय और भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। बहुत से मुगल सैनिक उस समय रण क्षेत्र से भाग खड़े हुए थे।
राम शाह के जोश के आगे टिक नहीं पाया शत्रु दल।
मैदान छोड़कर भाग गए थे क्षीण हुआ था सारा बल।।
हल्दीघाटी की लड़ाई में रामशाह के खिलाफ लड़ने वाले मुगल इतिहासकार अब्दुल-कादिर बदायूंनी ने ग्वालियर नरेश का गुणगान कुछ इस प्रकार किया है -
"मैंने एक योद्धा देखा जो हाथियों की लड़ाई को दाहिनी ओर छोड़ दिया, मुगल सेना के मुख्य भाग में पहुंच गया और वहां भयानक हत्या कर दी। ग्वालियर के प्रसिद्ध राजा मान सिंह के पोते रामशाह, जो हमेशा राणा के हरवल में बने रहे (सामने की पंक्ति) ने ऐसी वीरता दिखाई जो लिखने की शक्ति से परे है। उसके शक्तिशाली हमले के कारण, हरावल के बाईं ओर मानसिंह कछवाहा के राजपूतों को भागना पड़ा और दाईं ओर के सैयदों की शरण लेनी पड़ी, जिसके कारण भी आसफ खान को भागना। यदि सैय्यद लोग उस समय लड़ते नहीं रहते, तो हरवल (सामने की पंक्ति) की भगोड़ा सेना ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी थी कि हमें शर्मनाक हार का सामना करना पड़ता। ”
बदायूंनी का यह वर्णन हमें बता रहा है कि उस दिन मैदान महाराणा प्रताप के हाथों में था और भाग्य उनका पूरा साथ दे रहा था। अकबर की सेना में सर्वत्र भागम भाग, अफरा-तफरी और त्राहिमाम मची हुई थी। ग्वालियर नरेश की प्रशंसा में यदि उस दिन विदेशी इतिहास लेखक को भी शब्द नहीं मिल रहे थे तो निश्चय ही यह माना जाना चाहिए कि उनकी वीरता सचमुच रोमांच खड़ा करने वाली थी।
रोमांच खड़ा करने वाली थी रामशाह की बहादुरी।
भारत के पराक्रमपूर्ण शौर्य की बन गया वही धुरी।।
अल बदायूंनी ने यह भी लिखा है :- "राणा कीका के सैन्य के दूसरे विभाग का संचालन राणा स्वयं कर रहा था । वह घाटी से निकलकर घाटी के द्वार पर स्थित काजी खान के सैन्य पर हमला किया और उसकी सेना का संहार करता हुआ मध्य तक जा पहुंचा। इससे सबके सब सीकरी के शहजादे भाग निकले और उनके मुखिया से एक मनसूर को जो कि अब्राहिम का दामाद था, भागते समय एक तीर ऐसा लगा कि बहुत दिनों तक उसका घाव भर न सका। काजी खान मुल्ला होने पर भी कुछ देर तक डटा रहा, परंतु दाहिने हाथ का अंगूठा तलवार से कट जाने पर वह भी अपने साथियों के पीछे - पीछे भाग निकला।"
इस कथन से भी यही स्पष्ट होता है कि राणा के चक्रव्यूह में मुगल सेना पूरी तरह फंस चुकी थी और उसे जान बचाने के लाले पड़ चुके थे। इस सारी योजना में ग्वालियर नरेश का पूरा सहयोग था। ग्वालियर नरेश महाराणा प्रताप के मौसा अर्थात उनकी बहन के ससुर थे। स्पष्ट है कि ग्वालियर नरेश पूर्ण समर्पण के साथ युद्ध कर रहे थे।
अबुल फजल ने भी लिखा है …..
अकबर के इतिहास लेखक अबुल फजल ने बड़े अफसोस के साथ अपने अकबरनामा में लिखा है –
“ये दोनों (रामशाह और शालिवाहन ) युद्ध के दोस्त और जीवन के दुश्मन थे, जिन्होंने जीवन को सस्ता और सम्मान महंगा बना दिया था। वीरता से जूझ रहे रामशाह, उनके तीन बेटे – शालिवाहन सिंह , भवानी सिंह, प्रताप सिंह, उनके पोते – बलबहादुर और उनके तोमर के 300 अनुयायी सभी शहीद हो गए। तंवर वंश का एक भी बहादुर व्यक्ति युद्ध में नहीं बचा।”
प्राण दे दिए देश की खातिर शेष बचा नहीं कुछ भी पास।
गर्व और गौरव हम सबको है जब तक चलती रहेगी सास।।
इस प्रकार अपनी वीरता और साहस का परिचय देते हुए ग्वालियर नरेश और उनके परिजनों ने देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अपना बलिदान दे दिया। उनकी वीरता और देशभक्ति को सम्मान देते हुए, दो छत्रियां (स्मारक) महाराणा कर्ण सिंह (महाराणा प्रताप के पोते) द्वारा रामशाह तोमर और शालिवाहन सिंह तोमर के लिए रक्त तलाई में बनाई गई थीं । इस प्रकार के रोमांचकारी वर्णन से यह भी स्पष्ट होता है कि यदि उस दिन अन्य राजपूत या हिंदू राजा अकबर की ओर से ना लड़कर महाराणा प्रताप की ओर से लड़ते तो इतिहास दूसरा होता। तब मुगलों को मैदान छोड़कर ही नहीं, हिंदुस्तान छोड़कर भी भाग जाना पड़ता। इतिहास में ऐसे अवसर कई बार आए हैं जब हमारे वीर योद्धाओं ने पारस्परिक कलह या ईर्ष्या के कारण अपनी शक्ति का सदुपयोग न कर उसका लाभ शत्रु को पहुंचा दिया। इस प्रकार गीदड़ों को शेरों पर शासन करने का अवसर उपलब्ध कराने में हमारे ही कई लोग सक्रिय रहे।
अल बदायूंनी का बड़ा स्पष्ट कथन है …..
अल बदायूंनी ने इस संबंध में बड़ी स्पष्टता के साथ लिखा है ,:- “हमारी जो फौज पहले हमले में ही भाग निकली थी, बनास नदी पार कर 56 कोस तक निरंतर भागती रही। भयाक्रांत होकर भाग रही मुगल सेना को रोकने के लिए मिहतर खान अपनी सहायक सेना सहित चंदाबल से निकल आया। उसने ढोल बजाया और हल्ला मचाकर फौज को एकत्र होने के लिए कहा। उसकी इस कार्यवाही से भागती हुई सेना में आशा का संचार हुआ। जिससे भागती हुई सेना के पैर टिक गए।
ग्वालियर के राजा मान के पोते रामशाह ने जो हमेशा राणा की हरावल में रहता था, ऐसी वीरता दिखाई कि जिसका वर्णन करना लेखनी की शक्ति से बाहर है। मान सिंह के वे राजपूत जो हरावल के वाम पार्श्व में थे, भागे । जिससे आसिफ खान को भी भागना पड़ा और उन्होंने दाहिने पार्श्व के सैय्यदों की शरण ली। यदि इस समय सैय्यद टिके न रहते तो हरावल के भागे हुए सैन्य ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि बदनामी के साथ हमारी हार होती।”
इस वर्णन से भी यह स्पष्ट हो रहा है कि युद्ध क्षेत्र में उस दिन महाराणा की नहीं अकबर की हार हुई थी। बदायूंनी एक ऐसा इतिहास लेखक है जो मुसलमान होकर भी कहीं निष्पक्षता से घटनाओं और परिस्थितियों का अवलोकन और समीक्षा करता रहा। इतिहास में उस जैसे लेखक को अवश्य पढ़ना चाहिए। उसकी स्पष्ट स्वीकारोक्ति से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस दिन मुगल सेना उखड़ रही थी और उसका मनोबल टूट चुका था। बदायूंनी का यह कहना बहुत महत्व रखता है कि उस दिन मुगल सेना पहले हमले में ही भाग खड़ी हुई थी। उसने शब्दों को चबाकर और सच में कुछ थोड़ा सा झूठ का मिश्रण करके अपनी बात को संभालने का प्रयास किया है, परंतु उद्धरण के अंतिम शब्द पुनः यह स्पष्ट कर देते हैं यदि उस दिन स्थिति मुगल सेना के लिए बहुत ही प्रतिकूल थी । तभी तो बदायूंनी ने लिखा है कि “बदनामी के साथ हमारी हार होती।”
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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