8 मार्च राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष-
-- सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
भारतीय समाज एक ऐसा समाज है जिसमें महिलाओं को प्रारंभ से ही पुरूषों से दबकर रहने को कहा जाता है, चाहे वह पिता के रूप में हो या भाई, ससुराल में पति ससुर तथा देवर भी हो सकता है। कहा जाता है कि पति ही परमेश्वर है जिसका परिणाम यह है कि नारी पुरुष द्वारा थोपी गई मान्यताओं का खुलकर विरोध नहीं कर पाती बस! यही से निर्माण होता है पुरुष प्रधान समाज का।
इस पुरुष प्रधान समाज में नारी की दशा बदतर है यह किसी से नहीं छुपी है। नारी को अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिये अनेक विरोधों का सामना करना पड़ता है। पुरुषों द्वारा संचालित समाज स्त्री को जन्म से मृत्यु तक शरणागत बना देता है। भारतीय समाज ने एक सोचे- समझे षड़यंत्र के तहत् भारतीय नारी को सहनशीलता और समर्पण के उच्च आदर्शों में बांधकर उसे मानसिक रूप से अपनी स्थिति पर विचार कर पाने में पूर्णतया असमर्थ बना दिया! नारी जो वास्तव में एक शक्ति थी, और है, इन आदर्शों और चारित्रिक मूल्यों का निर्वाह करने और उन्हें कायम रखने के संशय में उलझी स्वयं का मानसिक, शारीरिक और सर्वथा अनुचित शोषण चुपचाप सहती आ रही है।
वैसे देखा जाये तो महिलाओं पर होने वाले अपराधों के लिए रूढ़ियों व प्रथाओं को भी जिम्मेदार माना जा सकता है। आज सती प्रथा का अंत तो लगभग हो चुका है। लेकिन आज भी नारी को पैतृक संपत्ति में अधिकार देने के लिये नारी शिक्षा का प्रसार करने के क्षेत्र में कोई सुधार नहीं हुआ है।भले ही कानून बना है, लेकिन इसे मानते कितने लोग हैं। नारी जनजागरण का सर्वथा अभाव है। परिणामतः नारी उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं। शायद निम्न कविता भी यही कुछ कहती हैं।
“मुक्त करो नारी को मानव,
चिर बंदिनी नारी को ।
युग-युग की बर्बर कारा से, जननी सखी प्यारी को।।”
पुरुष और यह समाज तो स्त्री के प्रति दोषी है ही, यह भी होता है कि प्रायः स्त्री को स्त्री जाति से ही उपेक्षा उत्पीड़न मिलती है। जैसे स्त्रियों के अंतर्गत सास, बहु, ननद, भाभी आदि के झगड़ों के
किस्से रोजाना समाचार पत्र पत्रिकाओं में पढ़ने को मिल जाते हैं। स्त्रियों के नजर में स्त्रियाँ ही उपेक्षित होगी तो स्त्रियों के प्रति जो कमजोरी हुआ करती हैं, उस कमजोरी को भी स्त्रियाँ ही प्रतिबंधित कर सकती हैं। यदि वे चाहें तो बहुओं को जलाने प्रताड़ित एवं दहेज की मांग करने में घर की स्त्रियां जितना आगे होती है उतना पुरुष नहीं। ऐसे खतरनाक खेलों में पुरुष स्त्रियों के माध्यम तो अवश्य बनते हैं, किन्तु अगुआ कम ही होते हैं। इस तरह यह भी तय है कि स्त्री ही स्त्री जाति के अस्तित्व के लिये चुनौती बनी हुई हैं। कुल मिलाकर यह सच है कि बड़े – बड़े गरिमामय सैद्धांतिक मूल्यों के बावजूद पुराने अंधविश्वासों और विकृत आधुनिकता ने मिलकर महिलाओं के लिये कल के मुकाबले आज अधिक विषम स्थिति पैदा कर दी है। अब तक की स्थितियों में महिलाओं को दूसरे दर्जे की नागरिकता दे रखी है। दहेज बलात्कार, अपहरण, आर्थिक भेदभाव, मानसिक उत्पीड़न द्वारा सताये जाने के कारण आत्महत्याओं आदि की घटनायें नित्य हो रही है। संवैधानिक अधिकारों के बावजूद समाज ने महिलाओ को सामाजिक समता का अधिकार नहीं दिया। इस प्रकार संक्षेप में हम कह सकते हैं कि महिलाओं पर होने वाले अपराधों के प्रति समाज, पुरुष, प्रथायें वर्तमान की विषम व्यवस्था, जागरुकता का अभाव और सबसे अंत में स्वयं स्त्री ही पूर्ण रूप से जिम्मेदार है।
“तुम भूल गये पुरुषत्व मोह में, कुछ सत्ता है नारी की।
समरसता संबंध बनी, अधिकार और अधिकारी की।।”
-- सुरेश सिंह बैस"शाश्वत"
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