मेरी वाणी के अग्रभाग में मधु रह्वहे
संसार में अधिकांश झगड़े, वाद-विवाद और कलह क्लेश हमारी जिह्वा पर हमारा नियंत्रण न होने के कारण होते हैं। रसना और वासना व्यक्ति की सबसे बड़ी शत्रु हैं। जिह्वा का नियंत्रण समाप्त हुआ नहीं कि कुछ भी घटना घटित हो सकती है। जिह्वा के विषय में यह भी सत्य है कि-
रहिमन जिह्वा बावरी कह गयी आल पताल।
आप कह भीतर घुसी जूते खाय कपाल।।
वेद का आदेश है :-
सक्तुमिव तितउना पुनन्तोयत्र धीरा मनसा वाचमक्रत।
अत्रा सखाय: सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधिवाचि।। (ऋ. 10/71/2)
अर्थात ”जैसे हम सत्तू को पानी में घोलने से पूर्व छलनी में छानकर देख लेते हैं कि कोई अभक्ष्य वस्तु पेट में न चली जाए जो विकार करे, उसी प्रकार बुद्घिमान व्यक्ति शब्दरूपी आटे को मंत्ररूपी छलनी में छान-छानकर बोलता है। वे मित्र ही मित्रता बनाये रखने के नियमों को जानते हैं, और ऐसे पुरूष तथा स्त्रियों की वाणी में लक्ष्मी, शोभा और संपत्ति निवास करती है।”
जिह्वा को संयमित रखकर बोलना संसार में जीने की एक यह सुंदर कला है। यह कला उस समय असफल हो जाती है जब व्यक्ति के सिर किसी प्रकार का घमण्ड चढक़र बोलता है। यह घमण्ड पद, पैसा, प्रतिष्ठा का तो होता ही है-कइयों को यह अपनी बौद्घिक क्षमताओं का भी होता है तो कईयों को अपने परिवार का और कइयों को अपने मित्र संबंधी आदि का भी होता है। घमण्ड की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि घमण्डी व्यक्ति, भ्रान्तियों में जीने का अभ्यासी हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को ही दम्भी कहा जाता है। इसका अभिप्राय है कि जो वह है नहीं अपने आप में ऐसा होने का वह भ्रम पाल लेता है। इसका कारण यह होता है कि घमण्डी व्यक्ति आपको आत्मप्रशंसा करता मिलेगा। इस आत्म प्रशंसा से वह अपनी पीठ अपने आप सहलाता है, थपथपाता है। धीरे-धीरे उसे यह भ्रांति आ घेरती है कि-मैं संसार का सबसे बढिय़ा, सबसे धनी, सबसे बुद्घिमान और सबसे अधिक चतुर व्यक्ति हूं। ऐसे भ्रम में फंसकर व्यक्ति अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है और कई बार भले लोगों का भी अपमान कर जाता है। फिर समय आता है जब यह भले लोगों का किया गया अपमान उससे ब्याज सहित वसूल किया जाता है। उसका बना बनाया सारा खेल बिगड़ जाता है।
अत: वेद के उपरोक्त आदेश में जीवन संदेश छिपा है कि व्यक्ति शब्दरूपी आटे को मंत्ररूपी छलनी में छान-छानकर बोले। जितना ही यह भाव किसी व्यक्ति के भीतर आएगा उतना ही वह व्यक्ति शालीन और सौम्य व्यवहार करने का अभ्यासी होता जाएगा। जीवन की यह कला जितने अनुपात में हमारे भीतर आती जाएगी-हम जीवन संघर्ष में उतने ही सफल होते जाएंगे-विजयी होते जाएंगे।
अथर्ववेद (1/34/2) कहता है-
जिहवाया अग्रे मधु में जिहवामूले मधूलकम्।
मेरी वाणी के अग्रभाग में मधु रहे और जीभ की जड़ अर्थात बुद्घि में मधु का छत्ता रहे, जहां मिठास का भण्डार है।
इसका अभिप्राय है कि हमारी जिह्वा के अग्रभाग से सदा मधुसम मीठे शब्दों का रस टपकता रहना चाहिए। साथ ही जीभ के अग्रभाग का संबंध बुद्घि से जोड़ा है। यदि बुद्घि का और जीभ का समन्वय बना रहेगा तो जीभ को कभी मिठास की कमी नहीं पड़ेगी। क्योंकि निर्मल बुद्घि मधु का छत्ता होती है। जहां से जिह्वा के अग्र भाग के लिए मधु की मनचाही आपूत्र्ति होती रहेगी। कहने का अभिप्राय है कि निर्मल बुद्घि में मधु का भण्डार होता है, मधु का खजाना होता है, मिठास का ढेर होता है। जिस व्यक्ति का संबंध किसी खजाने से हो जाए, या जो व्यक्ति किसी खजाने का स्वामी हो जाए-वह कभी भी निर्धन नहीं हो सकता। उसकी जिह्वा से किसी के हृदय को ठेस पहुंचाने वाले शब्द कभी बाहर आ ही नहीं सकते।
जिनके मुंह में जिह्वा निर्मल बुद्घि के साथ समन्वय करके नहीं चलती है उनकी जिह्वा में कांटे उत्पन्न हो जाते हैं और उससे निकले शब्द अगले व्यक्ति को तीर की भांति घायल कर जाते हैं। जो व्यक्ति ऐसे शब्दों से घायल होता है-उसकी वेदना को वही जानता है। वह व्यक्ति तड़पता है और वेदना में घुट-घुटकर जीता है, किसी विद्घान ने कहा है-
रोहति सायकैर्विद्घं छिन्नं रोहति चासिना।
वचो दुरूक्तं वीभत्सं न पुरोहति वाक्क्षतम्।।
अर्थात तीरों का घाव भर जाता है, तलवार से कटा हुआ भी ठीक हो जाता है, किंतु कठोर वाणी का भयंकर घाव कभी नहीं भरता।
संसार के कितने ही मिठास भरे संबंध इसी जिह्वा के कारण कड़वे हो गये, परिवार टूट गये, देश टूट गये। यदि शब्दों की मिठास बनी रहती तो ‘महाभारत’ ना होता और ना ही उसके पूर्व या पश्चात हुए कितने ही महाविनाशकारी युद्घ हुए होते। जिन लोगों की वाणी में कटुता होती है, उनके लिए किसी शायर ने लिखा है-
”नोके जुबां ने तेरी सीने को छेद डाला।
तरकश में है ये पैकां या है जुबां दहन में।
मस्जिद को तोड़ डालिये मंदिर को ढाइये,
दिल को न तोडिय़े यह खुदा का मुकाम है।।”
(नौके जुबां-वाणी के तीर, पैकां-बाण, जुबां दहन-मुंह)
कितनी अच्छी बात कही है कि मस्जिद को तोड़ दोगे तो कोई अपराध नहीं होगा, मंदिर को ढा दोगे तो भी कोई पाप नहीं होगा। बस, दिल को मत तोडऩा अन्यथा अनर्थ हो जाएगा, अभीष्ट छूट जाएगा और सर्वस्व नष्ट हो जाएगा। क्योंकि परमपिता परमेश्वर ना तो मस्जिद में रहता है और ना ही मंदिर में रहता है उसका निवास स्थान तो हृदय है। अत: किसी के हृदय मंदिर को ढाना मानो उसके उपासना स्थल को ढाना है, और यही सबसे बड़ा अपराध है, पाप है। इस हृदय मंदिर में जब कोई शब्द बाण चलाता है और व्यंग्य की तोपें चलाता है तो इसकी एक-एक ईंट उस आततायी के विनाश की कामना करने लगती है और यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि ‘हृदय’ से निकली ‘आह’ किसी के भव्य भवनों को भी स्वाहा करने के लिए पर्याप्त है। इसका कारण यही होता है कि ऐसी ‘आह’ परमेश्वर के घर से ‘मिसाइल’ के रूप में निकलकर चलती है जो शत्रु के बड़े से बड़े ‘युद्घक विमान’ को भेदने की सामथ्र्य रखती है। हर विवेकशील व्यक्ति को अपने ‘युद्घक विमानों’ को इन आहों की ‘मिसाइलों’ से बचाकर रखने का प्रयास करना चाहिए।
मुख्य संपादक, उगता भारत