टर्की ने दिखाया अपना असली रंग

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टर्की में आए भारी भूकंप के पश्चात जब भारत वहां पर अपना सहायता अभियान चला रहा था तो सोशल मीडिया पर भारत के इस कार्य की बढ़-चढ़कर प्रशंसा की जा रही थी । यह दिखाया जा रहा था कि टर्की भारत के एहसान में डूब गया है और अब उसकी आंखों में पश्चाताप के आंसू हैं। सोशल मीडिया जब इस प्रकार की वाहियात बातों में मशगूल था हम तब भी यही मान रहे थे कि समय आने पर टर्की अपना रंग दिखाएगा और यह साबित कर देगा कि उसके लिए सबसे पहले उसका अपना मजहब है। मानवता और वैश्विक भ्रातृत्ववाद जैसी सारी की सारी बातें इस्लाम को मानने वाले किसी भी कट्टरपंथी के लिए कोई अर्थ नहीं रखती। टर्की जिस मजहब को मानता है उसमें कृतज्ञता नाम की चीज ढूंढे नहीं मिल सकती। गुरु गोविंद सिंह जी ने ऐसे ही नहीं कहा था कि आप अपने हाथ को कोहनी तक तेल में भिगोएं फिर उसके ऊपर तिल चिपका लें, जितने तिल आपकी अंगुलियों से लेकर कोहनी तक चिपके होंगे, यदि टर्की के मजहब के लोग उतनी कसमें खाकर भी अपने आपको आपका होने का विश्वास दिलाएं तो भी विश्वास मत करना।
गांधीजी एक वर्ग के लोगों को अपने साथ लेकर चलने का भरसक प्रयास करते रहे । इसके लिए देश के बहुसंख्यक वर्ग को भी उन्होंने उपेक्षित करने तक का कार्य किया। इसके उपरांत भी उनके लिए एक मुस्लिम नेता ने कह दिया था कि नीच से नीच मुसलमान भी गांधी की अपेक्षा उसके लिए अच्छा है। उस मुसलमान नेता का ऐ सा कहने का कारण केवल एक था कि उसके लिए ‘भाईचारा’ केवल इस्लाम तक सीमित है। संसार के अन्य संप्रदायों के भीतर चाहे कितने ही मानवतावादी लोग क्यों ना रहते हों? उनके लिए वे कोई अर्थ नहीं रखते। टर्की ने भारत के साथ जो कुछ भी किया है, उसे हमें इस्लाम की इसी परंपरागत नीतिगत सोच के अंतर्गत देखना चाहिए।
अपनी इसी परंपरागत मजहबी सोच के चलते टर्की ने अब वही कर दिखाया है, जिसकी उससे अपेक्षा की जा सकती थी। संयुक्त राष्ट्र में टर्की ने एक बार फिर पाकिस्तान का साथ देते हुए यह कहा है कि भारत कश्मीर में मानव अधिकारों का उल्लंघन कर रहा है। इस प्रकार भारत की सेना और भारत की सरकार टर्की की दृष्टि में आज भी शत्रु है। इस्लाम के संबंध में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वृहत्तर भारत के पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलाया जैसे अनेक देशों को इस्लाम के झंडे नीचे लाकर उनका इतिहास और स्वरूप बदलने में सबसे बड़ा काम इसी ने किया है। इसी दिशा में इस्लाम के आतंकवादी संगठन आज भी काम कर रहे हैं। उन सारे संगठनों को ‘इस्लामिक ब्रदरहुड’ के नाम पर टर्की जैसा देश खुल्लम-खुल्ला अपना समर्थन देता है। उसके इस प्रकार के समर्थन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके इरादे भारत के प्रति आज भी मध्यकालीन इतिहास के शासकों जैसे ही हैं। उसके दृष्टिकोण में तनिक सा भी परिवर्तन नहीं आया है। ऐसी परिस्थितियों में टर्की को भारत के द्वारा भूकंप के समय मानवीय आधार पर सहायता देना एक अलग बात है पर किसी प्रकार की गलतफहमी पाल लेना पूर्णतया असावधान मानसिकता को प्रकट करने वाला चिंतन है।
अब्दुल रहमान अज्जम अपनी पुस्तक ‘द इटरनल मैसेज ऑफ मोहम्मद’ में कहते हैं कि ‘जब मुसलमान मूर्ति पूजा को और बहुदेवतावादियों (अर्थात हिंदुओं) के विरुद्ध युद्ध करते हैं तो वह भी इस्लाम के मानव भ्रातृत्ववाद के महत्वपूर्ण सिद्धांत के अनुकूल ही होता है। मुसलमानों की दृष्टि में देवी देवताओं की पूजा से निकृष्ट विश्वास दूसरा नहीं है। मुसलमानों की आत्मा बुद्धि और परिणति इस प्रकार के निकृष्ट विश्वासधारियों को अल्लाह के क्रोध से बचाने के साथ जुड़ी हुई है। जब मुसलमान इस प्रकार के लोगों को मानवता के नाते अपना बंधु कबूल करते हैं तो वह अल्लाह के कोप से उनको बचाने को अपना कर्तव्य समझकर उन्हें तब तक प्रताड़ित करते हैं जब तक कि वह उन झूठे देवी-देवताओं में विश्वास को त्याग कर मुसलमान हो जाए। इस प्रकार के निकृष्ट विश्वास को त्याग कर मुसलमान हो जाने पर वह भी दूसरे मुसलमानों के समान व्यवहार के अधिकारी हो जाते हैं। इस प्रकार के निकृष्ट विश्वास करने वालों के विरुद्ध युद्ध करना जिस कारण से एक दयाजनित कार्य है, क्योंकि उससे समान भ्रातृत्ववाद को बल मिलता है।’
ऐसी परिस्थितियों में टर्की से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह अपनी परंपरागत मजहबी शिक्षाओं को त्याग कर भारत के साथ वैदिक शिक्षा के अनुकूल आचरण करते हुए ‘वसुधैव कुटुंबकम’ को अपना आदर्श बनाए। भारत की जिस वैदिक संस्कृति से टर्की और टर्की के मजहब का जन्मजात शत्रुता का संबंध है, उसके साथ तारतम्य स्थापित करना टर्की जैसे प्रत्येक मुस्लिम देश के लिए आत्महत्या करने के समान है। अपनी परंपरा और अपनी सोच के अनुसार कोई भी मुस्लिम देश भारत के साथ मित्रता पूर्ण नहीं हो सकता। यह अलग बात है कि अपने अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों के दृष्टिगत कोई भी मुस्लिम देश भारत के साथ तात्कालिक आधार पर मित्रता करता हुआ दिखाई दे।
जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक सैयद अबुल आला मौदूदी ने प्रत्येक काफिर के विरुद्ध बल प्रयोग को उचित बताते हुए लिखा है कि जो लोग ईश्वरीय सृष्टि के नाजायज मालिक बन बैठे हैं और खुदा के बंदों को अपना बंदा बना लेते हैं , वह अपने प्रभुत्व से महज नसीहतों के आधार पर अलग नही। कुल मिलाकर ऐसी परिस्थितियों में भारत के नीति निर्धारकों को किसी भी प्रकार की गलतफहमी का शिकार नहीं होना चाहिए। जो टर्की हमसे दूर रहकर भी शत्रुता पाल सकता है ,उसके इरादे विश्व राजनीति में हमको हर कदम पर नीचा दिखाने के लिए उठते रहेंगे। हमें इतिहास के उस उदाहरण की ओर ध्यान देना चाहिए जब हम मुसलमानों के धर्मगुरु खलीफा को हटाने को लेकर महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1921 में खिलाफत आंदोलन चला रहे थे। तब भी एक ऐसी भ्रान्ति देश में बनी थी कि जैसे अब टर्की सदा सदा के लिए हमारा मित्र रहेगा, पर ऐसा हुआ नहीं। ‘जितनी देर खाओ, उतनी देर पूंछ हिलाओ और खाना समाप्त होते ही भारत की ओर फिर गुर्राओ’- यह टर्की की भारत के प्रति परंपरागत नीति है।
विद्वानों का मत है कि इस्लाम का अत्यावश्यक मिशन पूरे विश्व को इस्लाम में दीक्षित करना है । कुरान, हदीस, हिदाया और सीरतुन्नबी जो इस्लाम के 4 बुनियादी ग्रंथ हैं ,मुसलमानों को इसके आदेश देते हैं। इसलिए मुसलमानों के मन में पृथ्वी पर कब्जा करने में कोई संशय नहीं रहा। हिदाया स्पष्ट रूप से काफिरों पर आक्रमण करने की अनुमति देता है। भले ही उनकी ओर से कोई उत्तेजनात्मक कार्यवाही नहीं की गई हो। इस्लाम के प्रचार प्रसार के धार्मिक कर्तव्य को लेकर टर्की ने भारत पर आक्रमण में कोई अनैतिकता नहीं देखी। उनकी दृष्टि में बिना हिंदुओं को पराजित और संपत्ति से वंचित किये इस्लाम का प्रसार संभव नहीं था। इसलिए इस्लाम के प्रसार का अर्थ हो गया युद्ध और हिंदुओं पर विजय।”
मुसलमान मत की इसी प्रकार की उन्मादी शिक्षाओं में विश्वास रखने वाले लोग और देश भारत को अपना परंपरागत शत्रु मानते हैं। सदियों से इन लोगों ने भारत को लूटने मारने काटने का काम किया है। भारत विरोध की यह हिंसक प्रवृत्ति इन लोगों के कार्य, व्यवहार और आचरण में सम्मिलित हो गई है _ हमें इस बात को नकारना नहीं चाहिए।

डॉ. राकेश कुमार आर्य
( लेखक जेडभारत को समझो’ अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता और सुप्रसिद्ध इतिहासकार हैं।)

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