हामिद अंसारी के अंतिम बोलदेश के लगातार दो बार उपराष्ट्रपति रहे हामिद अंसारी दस अगस्त को विदा हो गये। श्री अंसारी ने जाते-जाते भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर सवाल उठाये हैं। उन्हें दस वर्ष देश का उपराष्ट्रपति रहते हुए नहीं लगा कि देश में अल्पसंख्यकों के लिए कोई संकट है, पर अब जब उन्हें यह अहसास हुआ है कि अब उन्हें अल्पसंख्यकों के बीच जाकर रहना है तो उन्हें अल्पसंख्यकों की याद आई है। श्री अंसारी भारत के जिस उच्च पद पर दस वर्ष रहे उस तक पहुंचाना और निरंतर उन्हें दस वर्ष तक अपने कार्यों का संपादन करने का अवसर प्रदान करना भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ही देन है। श्री अंसारी जैसे लोग इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद न कहकर भारत की धर्मनिरपेक्ष नीतियों की जीत कह सकते हैं। परंतु वास्तव में यह भारत के उस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के कारण ही संभव हो पाया जिसमें भारत की मौलिक चेतना में व्यक्ति व्यक्ति के मध्य जाति, धर्म व लिंग के आधार कोई अंतर न करना पाया जाता है। भारत की चेतना इस संसार पर पहले से शासन करती रही है-देश का वर्तमान संविधान तो बहुत बाद की बात है। भारत ने प्रतिभा को सम्मान दिया है, और व्यक्ति को उसकी प्रतिभा से तोला है। भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में ‘सबका साथ और सबका विकास’ एक राष्ट्रीय संस्कार के रूप में काम करता है। यदि इस जैसी बहुत ही मानवीय और न्यायपरक व्यवस्था को भी श्री अंसारी समझने में चूक कर गये तो मानना पड़ेगा कि उन्होंने भारत के विषय में कुछ भी नहीं समझा।
श्री अंसारी जिस राजनैतिक पृष्ठभूमि में पले बढ़े उनमें भारतीयता को बढ़ावा देना और भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करना प्रारम्भ से ही एक अपराध माना जाता रहा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को कुछ लोगों ने देश में अल्पसंख्यकों के साथ अत्याचार करने और उनका विनाश करने का प्रमाण पत्र प्राप्त करने जैसा माना है। यदि किसी ने भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सच इन लोगों को समझाने का प्रयास भी किया तो भी उन्होंने उसे समझा नहीं, केवल एक रट लगाते रहे कि यह तो भारत के लिए खतरनाक है, और इससे देश के टुकड़े हो जाएंगे। अब इन्हें कौन समझाये कि देश के टुकड़े करने की मांग उन्हीं क्षेत्रों से उठती है जो भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को समझ नहीं पाये हैं, या समझकर भी उसके प्रति आंखें बंद करने का नाटक करते रहे हैं।
श्री अंसारी जिस पद से सेवानिवृत्त हुए हैं उन्हें अपने उस पद की गरिमा का ध्यान रखना चाहिए था। यह एक सर्वमान्य सत्य है कि मुसलमान जितना भारत में सुरक्षित है उतना वह पाकिस्तान में भी नहीं है। पाकिस्तान में मुसलमानों को बहुसंख्यक होते हुए भी वे सारे राजनैतिक और सामाजिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं जो उन्हें भारत में प्राप्त हैं। इसके अतिरिक्त पाकिस्तान मांग करने वाले और भारत में रहकर पाकिस्तान का गुणगान करने वाले लोगों को यह भी समझना चाहिए कि पाकिस्तान विश्व का निर्धनतम् देश है और वहां के नागरिकों का सामाजिक स्तर बहुत ही निम्न है। वे लोग आज भी सदियों पुरानी जीवनशैली में जी रहे हैं और आधुनिकता के साथ अभी तक उनका परिचय नहीं हो पाया। जबकि भारत में बहुत से उतार-चढ़ाव झेलकर भी अपने अल्पसंख्यकों को वे सारे मौलिक अधिकार प्रदान किये हैं जिनसे उनका आत्मविकास हो सके। ऐसे मौलिक अधिकारों को बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को प्रदान करना भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का ही साहस हो सकता है। यह प्रसन्नता का विषय है कि भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने अपने इस दायित्व को बड़ी सुंदरता के साथ निर्वाह किया है। अच्छा होता श्री अंसारी अपने विदाई समारोह में भारत के इस प्रशंसनीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर सकारात्मक रूप से अपनी कोई टिप्पणी करते।
भारत के मुसलमानों के पिछड़ेपन को लेकर श्री अंसारी को चिंता करने का अधिकार है। पर दुर्भाग्यवश देश का कोई भी मुस्लिम हितचिंतक मुसलमानों के पिछड़ेपन के वास्तविक कारणों पर प्रकाश नहीं डालता। सभी बचकर निकल जाने की चेष्टा करते हैं और कोई भी यह नहीं कहता कि मुसलमान अपनी मजहबी शिक्षा के कारण पिछड़ा हुआ है और कठमुल्लावाद देश के मुसलमानों को अपने शिकंजे में कसे रखकर उन्हें प्रगतिशीलता और आधुनिकता के साथ जुडऩे नहीं दे रहा है। जिस कारण मुसलमानों के बच्चे आधुनिक शिक्षा से आज भी वंचित हैं। इसके अतिरिक्त देश का बहुसंख्यक वर्ग कम बच्चे पैदा करके उनकी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दे रहा है, जबकि अल्पसंख्यक अधिक बच्चे पैदा करते हैं उन्हें अशिक्षित और अज्ञानी रखने का ‘पाप’ कर रहा है। इस सोच को बदलने के लिए श्री हामिद अंसारी जैसे लोगों को आगे आना चाहिए।
श्री अंसारी उपराष्ट्रपति रहते हुए सारी सुविधाओं का उपभोग करते रहे और वैभवशाली जीवन यापन करते रहे। उन्होंने उपराष्ट्रपति के रूप में अपने दस वर्ष के कार्यकाल में दस बार तो छोडिय़े एक बार भी मुस्लिमों के क्षेत्रों में जाकर उन्हें आधुनिकता के साथ जुडऩे और अच्छी शिक्षा लेकर उच्च पदों पर पहुंचने के लिए प्रेरित नहीं किया। अच्छा होता कि वह मुसलमानों को ऐसा बनने के लिए प्रेरित करते और साथ ही जो मुस्लिम युवक देश की मुख्यधारा से बाहर जाकर आई.एस.आई.एस के साथ जुडऩे का राष्ट्रघाती कार्य कर रहे हैं-उन्हें वह रोकते। इससे उनकी राष्ट्रीय स्तर पर अच्छी छवि बनती। अब जाते-जाते उन्होंने जो कुछ कहा है उससे उनकी छवि में वह चमक नहीं आई जिसकी एक उपराष्ट्रपति से अपेक्षा की जाती है।
मुख्य संपादक, उगता भारत