Categories
आज का चिंतन

मूर्ति पूजा व तीर्थ स्थल

(ऋषि राज नागर एडवोकेट)

आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले कुछ भक्त लोगों को शुरू-शुरू में जब अन्दर देवी देवताओं की आकृति की अनुभूति भजन- सुमिरन या भक्ति करते हुए हुई तो उन्होंने प्रेम में मिट्टी या पत्थरों से उसकी आकृति को बनाया। जैसे भक्ति भावना करते समय कुछ भक्त गुदा चक्र पर (मूल चक्र) पर पहुँचे तो उन्हें गणेश जी की अनुभूति हुई, कुछ उससे आगे स्वाद चक्र या जल भाग इन्द्री भाग तक पहुंचे तो उन्हें ब्रह्य सावित्री रूप निहारा, जो भक्त जन मणिचक्र, नाभी चक्र तक गये, वहां उस स्थान पर लक्ष्मी-विष्णु रूप निहारा तथा जो भक्तजन हृदय चक्र तक पहुँचे वहां उन्होंने गौरी और शिव को निहारा तथा जो कण्ठ चक्र पर पहुंचे वहां श्री अविधा बाई (शक्ति श्री) को निहारा। इस सब रचना का वर्णन सन्त कबीर साहिब ने अपनी वाणी “कर नैनों दीदार महल से प्यारा है।” में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है।
अब जिन्होंने जिस देवी देवताओं की भजन भक्ति करते अनुभूति की या हुई या उन देवी देवताओं को निहारा तो प्यार में आकर उनकी मूर्ति बना डाली, लेकिन समय के परिवर्तन पर वह भक्त तो मृत्यु लोक (पृथ्वी) से चले गये, लेकिन उनके बाद लोग उन्ही ईंट पत्थरों, या मिट्टी से बनी देवी देवताओं की मूर्तिपूजा अर्चना करने लगे। होना तो यह चाहिए था, कि हम भी भजन भक्ति द्वारा, अन्दर जाकर उन्हें निहारते और मनुष्य जन्म में,जीते जी भक्ति भजन द्वारा प्राप्त करते लेकिन हम लोगों नें अब एक आसान सा तरीका मूर्ति पूजा/ बाह्य पूजा को ही अपना लिया है। थोड़ी देर के लिए मन्दिरों आदि में जाकर मूर्ति पूजा करके ही सन्तुष्ट हो आते हैं, क्योंकि हम लोगों को मूर्ति पूजा एक आसान तरीका लगता है। वास्तव में मूर्ति पूजा वेद विरुद्ध है। वेदों में कहीं भी परमपिता परमेश्वर की मूर्ति का उल्लेख नहीं है। वेद ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि उस परमपिता परमेश्वर की कोई मूर्ति नहीं है।
जैसे मूर्ति पूजा का आरंभ हुआ वैसे ही तीर्थ आदि स्थानों की उत्पत्ति या प्रादुर्भाव हुआ। जैसे:- जिन-जिन स्थानों पहाड़ों, नदियों के किनारे सन्त महात्माओं या भक्त जनो ने भजन सुमिरन या भक्ति की वहाँ पर लोगों का आवागमन सन्त महात्माओं को समय उनके दर्शन करने पर ही शुरू हो गया, जिज्ञासु लोग उन-उन स्थानों पर अपनी जिज्ञासा या आवश्यकता, भजन आदि की पूर्ति अथवा अपनी ग्रहस्थी व बीमारियों, अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए, आने- जाने लगे, धीरे-धीरे लोगों ने धर्मशाला आदि भी ठहरने के लिए बना डाली और मन्दिर आदि का निर्माण भी कराया, लेकिन सन्त महात्माओं की उम्र पूरी होने पर वे महात्मा जिनहोंने वहां भक्ति की वह तो उस दुनिया को छोडकर चले गये ,लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उन-उन स्थानों को लोगों ने उन्हें तीर्थ स्थल बना डाला, और आज लोग वहां पर जाकर ही बिना भजन भक्ति किये ही तीर्थ व मूर्ति पूजा जल नदी पूजा को आसान मानकर अपना बैठे है तथा कुछ स्वार्थी लोग उन स्थानों को अपनी आजिविका का साधन अपना बैठे हैं और धर्म के नाम पर गन्दे से गन्दे कर्मों से जुट गये हैं। असल में जिन सन्त महात्माओं मे उन स्थानों पर भजन बंदगी की वह तो अब वहां नहीं रहे लेकिन उन स्थानों पर उनके उत्तराधिकारी बन बैठे लोग मनमानी कर रहे हैं, और भोले भाले व्यक्तियों को भटका व बहला-फुसलाकर अपना व अपने परिवार का कुपोषण कह रहे हैं क्योंकि ऐसे धन से उनका उनके परिवार की मनोवृति व करम धरम बिगड़ना निश्चित है। ऐसा कहा है कि” जैसा खाये अन्न वैसा होगा मन ” इसलिए वर्तमान में आये दिनों बडे छोटे धार्मिक स्थलों में रहने वाले लोगों की कार गुजारी हमारे सामने मीडिया द्वारा बखान की जा रही ऐसे में अब हमें मूर्ति पूजा, जल या नदी, सरोवर की पूजा पाठ से अपने मन को बाहर निकालकर अपने अंदर ही प्रभु, या परमात्मा की स्तुति, भजन- सुमिरन करना है। जिसका तरीका सन्त महात्माओं ने हमें अच्छी प्रकार से बताया है। इसमें खर्च भी कुछ नहीं होता है। महर्षि दयानन्द और सन्त महात्माओं ने जलस्थलादि को ‘तीर्थ नहीं माना है। (“स्वमन्त व्यामन्तव्य प्रकाश पैरा 24)
अपने आत्मिक कल्याण के लिए हमें वेदों की शरण में जाना होगा और स्वामी दयानंद जी महाराज द्वारा लिखे गए सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से जीवन को आलोकित करना होगा।

Comment:Cancel reply

Exit mobile version