हम यज्ञादि पर उद्घोष लगाया करते हैं कि-‘प्राणियों में सदभावना हो’ और-‘विश्व का कल्याण हो’-इनका अर्थ तभी सार्थक हो सकता है जब हम अपनी नेक कमाई में से अन्य प्राणियों के लिए भी कुछ निकालें और उसे हमारे पूर्वज वैद्य हम लोगों से कितने सुंदर और उत्तम ढंग से निकलवा लेते थे? तब सचमुच प्राणियों में सदभावना थी और हर व्यक्ति विश्व का कल्याण करने की भावना से ओत-प्रोत था। इस प्रकार स्वास्थ्य और चिकित्सा में भी यज्ञीय भावना थी और उसी यज्ञीय भावना से सारा संसार लाभान्वित हो रहा था। वैद्य लोग और अध्यापक समाज के लोगों को दान के लिए प्रेरित करते थे, पर यह दान वैद्य लोग या अध्यापक (पंडित लोग) अपने निहित स्वार्थ के लिए नहीं मांगते थे और ना ही कराते थे इस दान को कराने में उनका लक्ष्य विश्व कल्याण होता था।
हमारे चिकित्सा शास्त्रियों ने प्रकृति को निकटता से पढ़ा और समझा। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि मनुष्य और पशुओं के स्वास्थ्य के लिए ईश्वर ने वनस्पति जगत में विभिन्न औषधियों को रचा है। यही कारण रहा कि हमारे पूर्वजों ने मानवीय चिकित्सा के लिए वनस्पति जगत में पायी जाने वाली विभिन्न औषधियों पर अनुसंधान किया। इसी से आयुर्वेद की खोज पूर्ण हुई। वेद का अर्थ ज्ञान है, अत: आयुर्वेद का अभिप्राय भी बड़ा सरल सा है-अर्थात वह वेद जिसमें मानव स्वास्थ्य और आयु की जानकारी हो या जिससे मानव जीवन को स्वस्थ रखकर उसे चिरायुष्य दिया जा सके। प्राचीन भारत में आयुर्वेद की चिकित्सा को सीखने व समझने के लिए विदेशों से कितने ही विद्यार्थी यहां आते थे। हमने तक्षशिला और नालंदा जैसे अनेकों विश्वविद्यालय स्थापित किये हुए थे। जिनमें एक से बढक़र एक कुशल चिकित्सा शास्त्री रहता था। चरक और सुश्रुत जैसी अनेकों प्रतिभाएं हमारी भारतभूमि पर उत्पन्न हुईं, जिन्होंने मानव स्वास्थ्य के लिए या तो ‘चरक- संहिता’ और ‘सुश्रुत संहिता’ जैसे अनमोल ग्रंथ हमें दिये अथवा मानवता की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।
‘चरक संहिता’ और ‘सुश्रुत संहिता’ विश्व के लिए भारत की अनमोल देन हैं। इन ग्रंथों में जितनी सूक्ष्मता से रोगों की उत्पत्ति, उनके लक्षण, उनकी पहचान और उनका निवारण करने का वर्णन किया गया है-वैसा संसार के किसी अन्य चिकित्सा संबंधी गं्रथ में नहीं मिलता। इन ग्रंथों के पढऩे से पता चलता है कि हमारे पूर्वजों का ज्ञान-गाम्भीर्य कितना श्लाघनीय था? ये दोनों ग्रंथ आज भी संपूर्ण मानवता को स्वस्थ रखने की सामथ्र्य रखते हैं। छोटे-मोटे रोगों और घावों से लेकर शल्य क्रिया तक का वर्णन इन ग्रंथों में उपलब्ध है। यदि किसी कारणवश रोगी का अंग-भंग हो गया हो तो उसकी सफल शल्यक्रिया करने का प्राविधान भी इनमें है। सुश्रुत अपने विद्यार्थियों को मृत शरीरों के माध्यम से ज्ञान प्रदान किया करते थे। इसके उपरांत भी सारी चिकित्सा शिक्षा नि:शुल्क दी जाती थी, जबकि आजकल तो मेडिकल शिक्षा प्राप्त करना हर किसी के वश की बात नहीं रही है। लाखों रूपया व्यय करके जो विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं-वे जब डाक्टर बनकर बाहर आते हैं तो पहले दिन से ही उनका लक्ष्य पैसा कमाना हो जाता है। इससे चिकित्सा का व्यवसाय लूट का व्यवसाय बन गया है।
भारत के प्रशंसनीय चिकित्सा ज्ञान से अरब और पर्शिया ने ‘चरक संहिता’ को ‘सरक’ के नाम से तथा ‘सुश्रुत’ को ‘सस्रद’ के नाम से अरबी में अनूदित कराया था। अशोक सम्राट के पौत्र केशासनकाल में भारतीय आयुर्वेद बौद्घधर्म के साहित्य के साथ सिंहलदीप भी पहुंचा। हमारे एक अन्य विद्वान वाग्भट जी हुए उन्होंने भी चिकित्सा के क्षेत्र में अपनी अनुपम सेवाएं संसार को प्रदान कीं। उनकी टीकाएं आज भी भारत सहित नेपाल और तिब्बत में भी मिलती हैं। सुश्रुत महोदय को उपदिष्ट करने वाले महात्मा धन्वन्तरि थे। जिनका जन्म दिवस हम आज तक भी धनतेरस के नाम से (विकृत रूप में) मनाते हैं। वास्तव में वह तिथि ‘धन्वन्तरि त्रयोदशी’ है।
आजकल मदर्स-डे, फादर्स डे आदि का प्रचलन चला है, इस दृष्टिकोण से देखें तो धनतेरस ‘धन्वन्तरि दिवस’ है। इस दिवस को इसी रूप में मान्यता मिलनी चाहिए, जिससे कि हमारे युवकों को अपने महापुरूषों के विषय में जानने का अवसर मिल सके। धन्वन्तरि जी का जन्म काशिराज धन्व के यहां हुआ था। इन्हीं धन्वन्तरि जी के शिष्य सुश्रुत थे। जिन्होंने ‘सुश्रुत संहिता’ का निर्माण किया। संहिता का अभिप्राय ग्रंथ की मौलिक रचना करने से नहीं है, अपितु पूर्व से ही विद्यमान ज्ञान को एक साथ एक पुस्तक में माला के मोती की भांति पिरो देने से है। उन्हें संहिताबद्घ कर देने से है। इसका अभिप्राय है कि सुश्रुत आदि के पूर्व से ही चिकित्साविज्ञान के सूत्र हमारे पास विद्यमान थे, जिन्हें सुश्रुतजी ने संहिताबद्घ कर दिया था। सुश्रुतजी ने जो कुछ किया वह संसार के लिए आज उनके जाने के हजारों वर्ष बाद भी उपयोगी है।
आज का चिकित्साविज्ञान मनुष्य के रोगी होने में मनोविज्ञान को बहुत बाद में सम्मिलित करता है, वह रोगी की दिनचर्या और जीवनचर्या पर भी विशेष ध्यान नहीं देता, रोगी जैसे चाहे रह रहा हो और जैसे चाहे रहता रहे। वर्तमान चिकित्साशास्त्र रोग को एक आकस्मिक घटना मानता है और इसी आधार पर रोगी का उपचार आरंभ कर देता है।
आज का मेडिकल साईंस का कोई विद्यार्थी ऐसा नहीं होगा जो प्रात:काल ब्रह्म मुहूत्र्त में उठने का अभ्यासी हो, ईश्वर भजन करता हो, प्रात:योगादि करता हो, स्नान कर यज्ञादि करता हो और अपनी जीवन चर्या को कठोर व्रत साधना में व्यतीत करने का अभ्यासी हो। इसके विपरीत वह आलसी मिलेगा और देर तक सोता रहेगा। यह स्थिति उस विद्यार्थी की ही नहीं है-हममें से अधिकांश लोगों की है। वर्तमान चिकित्सा शास्त्र इस स्थिति को सुधारना नही चाहता वह उपचार देना चाहता है और उपचार से पैसा कमाना चाहता है। लोग मरें तो मरें इससे उसे कोई लेना देना नहीं, उसे तो अपनी दवा बेचनी है। इसके चलते यह वर्तमान चिकित्सा प्रणाली अर्थात एलोपैथी विश्व के लिए खतरनाक सिद्घ हो चुकी है। हर व्यक्ति घुट-घुटकर मर रहा है। वह जीवित तो है पर स्वयं को एक ‘जिंदा लाश’ सी मानता है, कारण कि भीतर से वह प्रसन्न नहीं है।
इसके विपरीत भारत की आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली मनुष्य को प्रात:शीघ्र उठने, भ्रमण करने, योग करने, स्नान करने व या दैनिक यज्ञ करने की शिक्षा देती है, साथ ही ध्यान के माध्यम से रोगी के मन को नियंत्रित कराने का उपाय बताती है। इस प्रकार भारत का आयुर्वेद व्यक्ति को प्रात:काल से ही पकड़ लेता है और उसके अदृश्य जगत को झाडू-पोंछा लगाकर स्वस्थ और स्वच्छ करने का प्रयास करता है। आयुर्वेद का मानना है कि मानव स्वास्थ्य और मनोविज्ञान का गहरा संबंध है। जिससे वह प्रात:काल में लोगों में अच्छे संस्कार डालने का प्रयास करता है। मन स्वस्थ है और प्रसन्न है तो मनुष्य आधा स्वस्थ अपने आप ही हो जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि-‘मन के हारे हार है, मनके जीते जीत है।’ इस प्रकार आयुर्वेद मनुष्य को नियम और व्रतों से बंधी हुई कठोर जीवन-चर्या जीने के लिए प्रेरित करता है।
इस कठोर जीवनचर्या में विद्यार्थी को गुरूकुल में जाते ही ढ़ाल दिया जाता था। ‘सुश्रुतसंहिता’ में आया है-
”(आहूति देने के पश्चात) हुताग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करके अग्नि साक्षीपूर्वक शिष्य से कहे कि तुम्हें काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईष्र्या, कठोरता, पिशुनता, (चुगलखोरी) असत्य, आलस्य तथा बदनाम करने वाले कार्य को छोडक़र नख और सिर के बाल कटाकर पवित्र हो के कणाय वस्त्र पहनकर सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य और अभिवादन (गुरू को प्रणाम करने की प्राचीन पद्घति) करने में अवश्य तत्पर रहना चाहिए। मेरे कहे हुए या मेरी अनुमति लेकर कहीं जाना, सोना, बैठना, भोजन करना और अध्ययन करने में तत्पर रहते हुए मेरे लिए प्रिय और हितकारक कार्य करते रहना चाहिए। यदि तुम इसके विपरीत बर्ताव करोगे तो अधर्म होगा तथा (तुम्हारी पढ़ी हुई) विद्या निष्फल होकर कहीं भी प्रसिद्घ न होगी।”
इस उद्घरण से स्पष्ट है कि मनुष्य की मानसिक और आत्मिक स्वच्छता पर अधिक बल दिया गया है। काम, क्रोधादि दुर्गुण हमें पहले मानसिक रूप से रूग्ण करते हैं, जिससे इन दोषों को हम अपने रोगों की जड़ कह सकते हैं। आयुर्वेद रोग की जड़ पर ही प्रहार करता है। यदि जड़ समाप्त हो जाएगी तो सारी समस्या ही सुलझ जाएगी। मानसिक रूप से हम जितने स्वस्थ रहेंगे अर्थात प्रसन्नचित्त रहेंगे-उतने ही रोगों से बचे रहेंगे। मानसिक रूप से प्रसन्नता हमें ईशभजन से और प्राणायाम से मिलती है। यही कारण है कि भारत की प्राचीन सामाजिक प्रणाली में ईशभजन-संध्या, प्राणायाम और व्यायाम का अनिवार्य प्राविधान मिलता है। इनको अपनाने से व्यक्ति निरोग रहने लगता है, तब उसे किसी चिकित्सक के पास जाने की ही आवश्यकता नहीं पड़ती।
महर्षि पतंजलि का अष्टांगयोग भी मानव जीवन को निरोग और स्वस्थ रखकर मोक्ष प्राप्ति की पूर्ण साधना का नाम है। इसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान, धारणा और समाधि का मार्ग मानव जीवन के कल्याण के लिए ही बनाया गया है। इस मार्ग को अपनाकर व्यक्ति दिनानुदिन आत्मविकास की पगडंडी पर बढ़ता जाता है। उसके आंतरिक विकार अर्थात मानसिक विकार-काम, क्रोधादि उससे दूर होने लगते हैं और वह भीतर से पवित्रता का अनुभव करने लगता है। मनु महाराज का कहना है कि :-
दहयन्ते ध्याय मानानां धातूनां ही यथा मला:।
तथैन्द्रियाणां दहयन्ते दोषा: प्राणस्य निग्रहात।।
(मनु: 6/71)
अर्थात ‘धौंकनी द्वारा तपाने से जैसे धातुओं का मल दूर होता है, उसी प्रकार प्राणों के निग्रह से इंद्रियों के दोष दूर होते हैं।’ इंद्रियों के दोषों को समझने में पश्चिम का भौतिक विज्ञान आज तक असफल रहा है। यही कारण है कि पश्चिमी जगत आज भी प्राणायाम जैसी क्रिया को नहीं जानता।
क्रमश: