दुर्गादास और जयसिंह ने उड़ा दी थी बादशाह औरंगजेब की नींद
जीवित रहने के लिए हम ही सबसे योग्य थे
वीर सावरकर ने एक लेख में लिखा था-”हिंदुओं! अपना राष्ट्र गत दो हजार ऐतिहासिक वर्षों तक जो जीवित रह सका, ऐसा जो कहते हैं वे मूर्ख तथा लुच्चे हैं। हम जीवित रहे क्योंकि जीवित रहने के लिए हम ही सबसे योग्य थे। उन परिस्थितियों से जूझने के लिए जो जो भूलना आवश्यक था वह हम भूल गये और जो कुछ अपनाना आवश्यक था वह सीखे भी और इसलिए उन परिस्थितियों पर भी विजय पाकर जीवित रह सके।” स्वातंत्र्य वीर सावरकर सही कह रहे थे। उनका यह चिंतन इतिहास के गहन मंथन के पश्चात उपजा हुआ उनका एक निष्कर्ष था। जिसे समझने में साधारण लोगों को पीढिय़ां लग जाती हैं (जैसे स्वतंत्रता के पश्चात के भारत को अब तक अपना इतिहास बोध नही हो पाया है) उसे महापुरूष सबसे पहले समझते हैं और संभवत: इसीलिए वह महापुरूष असाधारण मानव कहलाते हैं।
दुर्गादास और महाराणा राजसिंह के प्रेरणास्रोत
दुर्गादास और महाराणा राजसिंह जैसे योद्घा अपने काल में ही यह समझ गये थे कि भारत का वास्तविक क्षात्रधर्म क्या है? उन जैसे अनेकों हिंदू वीरों ने भारतीय क्षात्रधर्म की वीर परंपरा को अक्षुण्ण रखते हुए आगे बढ़ाया। उन्होंने अपना प्रेरणा स्रोत श्रीराम और श्रीकृष्ण को माना। जिनके लिए वीर सावरकर ने लिखा था : ”हमारे प्रेरणास्रोत प्रभु श्रीराम और श्रीकृष्ण हैं। वे हमसे कहते हैं कि शस्त्र लेकर दुष्टों का समूल नाश करो, आततायियों को बिना सोचे, विचारे मार डालो, यह हमारे वेदों की आज्ञा है। यह हमारा धर्म है। हमारे पूर्वज, सभी देवी-देवता अवतार राजा-महाराजा सशस्त्र थे बड़े-बड़े भयंकर शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित थे।”
भारतीय क्षात्रधर्म के इसी अकाट्य सत्य को अपने लिए आदर्श और अनुकरणीय मानकर महाराणा राजसिंह औरंगजेब के लिए चुनौती प्रस्तुत कर रहे थे। इसलिए जब औरंगजेब अजमेर लौट गया तो मुगल सेना को मेवाड़ से खदेडऩे के लिए महाराणा राजसिंह ने उस पर प्रबल आक्रमण किया और शत्रु सेना को भारी क्षति पहुंचाकर पुन: पहाड़ों पर लौट गये। देवीसिंह मंडावा विभिन्न साक्षियों के आधार पर लिखते हैं- ”मुसलमानों पर राजपूतों का भय इस सीमा तक छा गया कि हसन अली खां ने भी बारबरदारी की तकलीफ बताकर पहाड़ों में जाने से इंकार कर दिया। शाही सेना को अपनी रक्षा के लिए अपने पड़ाव के चारों ओर दीवार खड़ी करनी पड़ी। इसी माप के अंत में राणा ने अकबर पर अचानक हमला करके उसको बहुत हानि पहुंचाई। कुछ दिनों पश्चात अकबर की सेना के लिए बनजारे लोग मालवा से मंदसौर और नीमच के रास्ते होकर दस हजार बैल अन्न के ला रहे थे उन्हें राजपूतों ने छीन लिया। राजपूतों का जोर दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही गया। बादशाह की मेवाड़ को उजाड़ देने की आज्ञा का पालन नही हो सका, क्योंकि मुगल अफसर आगे बढऩे से इंकार करते थे और राजपूतों के भय से मुगल सेना इधर जा भी नही सकती थी। जिसकी शिकायत स्वयं शाहजादा अकबर ने भी की।”
कुंवर जयसिंह ने बनाया योद्घा-संगठन
देशभक्ति और स्वराज्य भक्ति हिंदू समाज का मौलिक स्वभाव है। इसलिए इन दोनों की रक्षार्थ जब कोई भी किशोर कुछ सोचना-समझना आरंभ करता और यौवन की दहलीज पर पैर रखता तो अपने आपको राष्ट्र योद्घा बना पाता। यौवन से पूर्व कितने ही किशोरों ने ‘अभिमन्यु’ बनकर राष्ट्रवेदी पर अपने प्राणोत्सर्ग कर दिये थे।
महाराणा राजसिंह का पुत्र जयसिंह भी अब किशोर हो चुका था, कुंवर जयसिंह पर यौवन की लाली अपना रंग दिखाने लगी थी। उस शेर ने भी युग-धर्म निभाया और अपनी ‘दुल्हन’ देश की स्वतंत्रता को बना लिया। इसलिए उस नवयुवक ने बहुत से योद्घाओं को साथ लेकर एक राष्ट्रीय संगठन सेना के रूप में खड़ा किया। उस संगठन में प्रमुख योद्घा थे-महाराज भगवतसिंह, रतनसिंह, चूंडावत सलम्बर राजराणा, चंद्रसेन झाला, बड़ी सादड़ी राव सबलसिंह चाहुवान बेदला, रावबैरीसिंह संवार बिजौलिया, राव केसरीसिंह शक्तावत बांसी कुंवर मंगूदास, रावत रूकमांगत चौहान शक्तावत भीडर रावत माधोसिंह चूडावत आमेर, राजराणा जसवंतसिंह झाला गोगूंदा, राजराणा जैतसिंह झाला देलवाड़ा राव केसरीसिंह चौहान पारसौली, कान्ह शक्तावत रतनसिंह खींची, रावत केसरीसिंह चूड़ावत, ठाकुर गोपीनाथ राठौड़, घाणेराव इत्यादि।
देशभक्ति और संगठन शक्ति का मुंह बोलता प्रमाण था-राणा जयसिंह का यह प्रयास। जिसमें स्वतंत्रता के प्रति निष्ठा और राष्ट्रवाद के प्रति कत्र्तव्यबोध स्पष्ट परिलक्षित होता है। इन सरदारों ने मिलकर एक बड़ी राष्ट्रीय सेना का गठन किया और तेरह हजार सवार व छब्बीस हजार पैदल भीलों ने भी इन्हें अपना सहयोग प्रदान किया।
हमारी स्वतंत्रता की रक्षार्थ ये सभी ऐसे वह शेर थे जो औरंगजेब के साम्राज्य को मिट्टी में मिलाने की सौगंध लेकर उठ खड़े हुए थे, और मुगल सैनिकों को खाने के लिए और भारत को मुगलविहीन कर देने के संकल्प के साथ भारतरूपी समरांगण में दहाड़ मारते घूम रहे थे। जैसे ही कोई मुगल इन्हें मिलता-ये उसे जीवित छोडऩे वाले नही थे। इन लोगों ने इतनी सावधानी और गोपनीयता से अपनी योजनाएं बनानी आरंभ कीं कि मुगलों को तनिक भी यह अनुभव नही हुआ कि उनके विरूद्घ कितनी बड़ी तैयारी हो रही है? इसका कारण यह था कि मुगलों के गुप्तचरों ने राजपूतों के छापामार युद्घ से भयभीत होकर अपने शिविरों से बाहर निकलना तो क्या झांकना ही बंद कर दिया था।
चित्तौड़ को स्वतंत्र कराना था राष्ट्रीय संगठन का उद्देश्य
इस राष्ट्रीय संगठन को कुंवर जयसिंह ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर उसे स्वतंत्र कराने के लिए बनाया था। जिसके लिए उसे इन योद्घाओं ने अपनी सेवाएं प्रदान कीं। चित्तौड़ पर एक दिन रात्रि में आक्रमण कर दिया गया।
उस समय वर्षा भी हो रही थी। अचानक हुए हमले के कारण शाहजादा अकबर भयभीत हो गया और अपने तोपखाने का भी प्रयोग करने की स्थिति में नही रहा। मुगल सेना रात्रि के अंधकार में किंकत्र्तव्य विमूढ़ सी हो गयी वह इससे पहले कि कुछ समझ पाती और कुछ कर पाती राजपूत योद्घाओं ने अपना काम करना आरंभ कर दिया। उन्होंने मुगलों के सैन्यशिविरों में आग लगा दी। मुगलोंसे उन लोगों ने बड़ी संख्या में हाथी घोड़े व ऊंट छीन लिये। कहा जाता है कि कुल एक हजार मुगलों को इस युद्घ में काट दिया गया था। ‘राजप्रशस्ति’ के अनुसार कुंवर जयसिंह इस युद्घ में सफल होकर अपने साथियों के साथ लौट आया उसने अपने योद्घा साथियों का सम्मान करते हुए उन्हें सिरोपांव प्रदान किये।
राणा परिवार के सम्मान में हुई वृद्घि
कुंवर जयसिंह के इस कृत्य से महाराणा परिवार के प्रति लोगों का सम्मान भाव बढ़ा उन्हें लगा कि राणा सांगा और महाराणा प्रताप की बलिदानी वीर परंपरा को बनाये रखकर देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व होम करने को यह परिवार आज भी अपनी प्राथमिकता मानता है।
इस युद्घ के पश्चात स्वाभाविक था कि औरंगजेब महाराणा राजसिंह और कुंवर जयसिंह से शत्रुता मानता और उनके लिए किसी भी प्रकार की कठिनाई उत्पन्न कर सकता था जिससे अनावश्यक ही जनहानि होने की संभावना थी, इसलिए कुंवर जयसिंह अपने साथियों के साथ मेवाड़ की पूर्वी पहाड़ी पर चले गये।
दुर्गादास राठौड़ के अभियान
औरंगजेब को एक नकली अजीतसिंह को पकडक़र जितनी प्रसन्नता हो रही थी उससे कई गुणा कष्ट उसे दुर्गादास राठौड़ और उसके साथियों को अभी तक गिरफ्तार न कर पाने से हो रहा था। उधर दुर्गादास राठौड़ मुगल थानों पर अपने साथियों के साथ मिलकर निरंतर आक्रमण कर रहा था। इन आक्रमणों से औरंगजेब को बराबर क्षति उठानी पड़ रही थी पर उसकी क्षतिपूत्र्ति कहीं से होती नही दिख रही थी। दुर्गादास राठौड़ ने सोजत, जैतारण, जालौर तथा मेड़ता के बादशाही थानों पर कई बार आक्रमण किये। उनका मुगलों की ओर से यहां कोई सामना नही कर सका। 13 मई 1680 ई. को राठौड़ों ने मुगलों के बिलाड़ा स्थित थाने को भी लूट लिया। इससे पता चलता है कि दुर्गादास राठौड़ की शक्ति से मुगल सेना कितनी भयभीत हो चुकी थी। ऐसे छोटे-छोटे आक्रमणों ने बादशाह औरंगजेब के साम्राज्य को भीतर ही भीतर खोखला करके रख दिया था।
खेतासर में इंद्रसिंह से हुआ युद्घ
31 मई 1680 ई. को राठौड़ों का इंद्रसिंह के साथ खेतासर में घोर संग्राम हुआ। राठौड़ पक्ष के अनेकों देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी इस युद्घ में मारे गये। इनमें राठौड़ साहब खान मथुरादासोत, चाम्पावत राठौर, बाला खंगार द्वारका दासोत आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
इसी प्रकार इंद्रसिंह की ओर से भी अनेकों योद्घाओं का अंत हो गया। इंद्रसिंह की सेना के ऊंट राठौड़ों ने छीन लिये। दुर्गादास यहां से विजयी होकर आगे बढ़ गये। इसके पश्चात राठौड़ों ने जोधपुर का घेराव कर लिया। यह जून 1680 की घटना है। यहां इंद्रसिंह के साथ राठौड़ों का युद्घ हुआ, परंतु पीछे से और शाही सेना के आ जाने से राठौड़ पहाड़ों की ओर चले गये। जोधपुर का घेराव करके राठौड़ों ंने तत्कालीन मुगल सत्ता को यह अवश्य संकेत दे दिया कि जोधपुर राठौड़ों का है और उनके पास उसका वास्तविक उत्तराधिकारी भी है, और यही वह संकेत था जिसे समझकर औरंगजेब मारे पीड़ा के रो पड़ा था।
बादशाह ने दुखी होकर रचा नया जाल
बादशाह औरंगजेब को अभी तक कहीं से भी ंिहंदू स्वतंत्रता सैनानियों के सामने निर्णायक सफलता नही मिल पा रही थी। उसे दक्षिण में शिवाजी चुनौती देते रहे और उत्तर में कहीं छत्रसाल, कहीं गुरू गोविंदसिंह तो कहीं दुर्गादास राठौड़ उसके लिए चुनौती प्रस्तुत करते रहे। अब महाराणा राजसिंह के साथ शत्रुता लेकर उसे लगा कि मैंने तो बर्र के छत्ता में ही हाथ डाल दिया है।
मारवाड़ और मेवाड़ की मित्रता के कारण औरंगजेब को अभी तक पर्याप्त सैनिक क्षति उठानी पड़ गयी थी, और उसे सफलता अभी दूर-दूर तक भी मिलती नही दिख रही थी। इसलिए बादशाह ने महाराणा राजसिंह के साथ मित्रता करने का नाटक करते हुए संधि का प्रस्ताव रखा। परंतु महाराणा राजसिंह जानते थे कि इस प्रस्ताव को स्वीकार करने का अर्थ होगा, मारवाड़ और मेवाड़ की प्रजा की भावना के साथ छल करना और अजीतसिंह के भविष्य को औरंगजेब के हाथों में सौंपकर संपूर्ण हिंदू जाति की दृष्टि में स्वयं को कृतघ्न सिद्घ करना। इसलिए महाराणा संधि के लिए तैयार नही हुए।
…और मेवाड़ का वह शेर सो गया
हिंदू जाति का दुर्भाग्य रहा कि जिसके नाम से ही औरंगजेब को भय लगने लगा था-वह महाराणा राजसिंह 1680 ई. के नवंबर माह में विषाक्त भोजन लेने से मृत्यु को प्राप्त हो गया। इससे पूर्व औरंगजेब उनसे संधि प्रस्ताव रख चुका था, परंतु उस संधि प्रस्ताव को महाराणा राजसिंह ने नही माना था। इसलिए औरंगजेब के लिए राणा की मृत्यु सुखदायी हो सकती थी, परंतु हिंदूशक्ति के लिए यह एक कुठाराघात था, क्योंकि अप्रैल 1680 ई. में शिवाजी (जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व का उल्लेख हम आगे चलकर करेंगे) भी संसार से चले गये थे। इस प्रकार सन 1680 का वर्ष हिंदू शक्ति के लिए दुखदायी रहा। यह अलग बात है कि महाराणा कुल की वीर परंपरा आगे भी यथावत जारी रही। इस प्रकार औरंगजेब के लिए उसके शासन के पहले 22 वर्ष (अर्थात 1658 ई. से लेकर 1680 ई. तक) हिन्दू शक्ति के भरपूर प्रतिरोध और प्रतिशोध से भरे हुए रहे। उन वर्षों में उसे न दिन को चैन था और न रात को नीद आती थी।
महाराणा जयसिंह ने किया परंपरा का निर्वाह
महाराणा राजसिंह के सुपुत्र कुंवर जयसिंह ने अपने पिता के जीवनकाल में ही अपनी वीरता का परिचय दे दिया था। यह एक संयोग ही था कि पिता की मृत्यु के समय भी यह वीर योद्घा क्रूज नामक गांव में मुगलों से संघर्ष कर रहा था। अपने पिता राणा राजसिंह की असामयिक मृत्यु के पश्चात 3 नवंबर 1680 ई. को महाराणा जयसिंह सिंहासनारूढ़ हुआ।
मेवाड़ के मुकुट का मुगलों से जन्मजात शत्रुभाव था। अत: सिंहासनारूढ़ होने का अर्थ महाराणा के लिए संघर्षों के लिए तैयार रहना था। महाराणा ने अपने भाई भीमसिंह को एक सेना सहित तहब्बरखां की देसूरी की ओर छोटी बढ़त को रोकने के लिए भेजा। उसके साथ देसूरी के जागीरदार विक्रमादित्य सोलंकी भी था। इन लोगों ने तहब्बरखां को देसूरी की ओर बढऩे नही दिया, आठ दिन तक अवरूद्घता बनी रही तो तहब्बर खां मारवाड़ की ओर चले जाने पर विवश हो गया।
इसी प्रकार दिलावरखां की स्थिति थी। वह भी एक ब्राहमण को एक हजार रूपये देकर उससे रास्ता जानकर रातों-रात घाटी से बाहर निकल गया। उसने शाहजादा को जाकर बताया कि महाराणा ने उसके कितने सैनिकों को पीछा करते-करते मार डाला है और किस प्रकार भोजन के न मिलने के कारण वहां नित्य 400 व्यक्ति मर रहे थे।
महाराणा जयसिंह ने मुगलों को परास्त कर राजस्थान के मारवाड़, और मेवाड़ से निकाल बाहर करने के लिए राठौड़ों को पचास हजार रूपये दिये। इसके अतिरिक्त 1500 रूपये प्रतिदिन देने का निर्णय किया। जिससे राठौड़ मुगल थानों को लूटने लगे। जहां भी वह जाते वहीं से लूट के धन के अतिरिक्त पेशकसी भी प्राप्त करते। मुगल थानों के थानेदार भी पेशकसी देकर यथाशीघ्र अपना पिंड छुडा लेते थे। इनमें मेड़ता डीडवाना सांभर आदि के थाने प्रमुख थे।
इन लोगों के दमन के लिए औरंगजेब को पुन: अपनी सेना भेजनी पड़ी। परंतु राठौड़ों का कोई एक निश्चित ठिकाना न होने के कारण उसे राठौड़ों को खोजना बड़ा कठिन हो गया था।
बालक अजीतसिंह को हटाना पड़ गया
महाराणा जयसिंह को उसके दरबारी लोग परामर्श देते थे कि मारवाड़ शासक बालक अजीतसिंह को लेकर अपने लोगों को मरवाने की स्थिति उचित नही है। जिसे महाराणा जयसिंह अब गंभीरता से लेने लगा। तब दुर्गादास राठौड़ और उसके साथियों ने स्वयं ही बालक अजीतसिंह की सुरक्षा को संकट में देखकर उसे अपने साथियों से परामर्श कर देवड़ी रानी के निर्देशानुसार मेवाड़ से हटाकर सिरोही में कालिंदी गांव में एक ब्राह्मण जयदेव के घर में रख दिया।
यह महाराणा की दुर्बलता थी
वास्तव में अजीतसिंह को इस प्रकार जाने देना महाराणा जयसिंह की दुर्बलता थी और उसकी नीतिगत भारी भूल थी। जिससे उस समय के बने राष्ट्रवादी परिवेश को झटका लगा। इसके पश्चात भी महाराणा को उसके दरबारियों ने ऐसी दुर्बलताओं में फंसने और निर्णय लेने के लिए निरंतर प्रेरित किया।
महाराणा जयसिंह के विषय में ‘राजप्रशस्ति’ में लिखा है कि -‘उसने शाहजादा अकबर को बादशाह बनाने का लालच देकर उसे बादशाह के विरूद्घ चढ़ाई करने के लिए प्रेरित किया और इस कार्य में अपनी सेना का सहयोग देने का भी आश्वासन उसे दिया। इस योजना का अच्छा परिणाम निकला और मुगलों में पारिवारिक कलह उत्तराधिकार के युद्घ को लेकर बढ़ गया।’
मुगलों में डलवा दी फूट
1681 की पहली जनवरी को ही अकबर ने औरंगजेब को राज्यसिंहासन से उतारकर स्वयं के बादशाह बन जाने की घोषणा कर दी। उसने अपने नाम का खुलना भी पढ़वा दिया।
राठौड़ और शिशोदियों के मिलने से अकबर के पास सत्तर हजार की सेना थी, जिसे लेकर वह अपने पिता से युद्घ के लिए अपने राज्यारोहण के अगले दिन ही चल दिया। इस समाचार को सुनकर औरंगजेब भयभीत हो गया था। उसके लिए यह सूचना नितांत अप्रत्याशित थी। परंतु उसने अपने पिता के साथ जो कुछ किया था, उसका फल तो उसे भोगना ही था।
अजमेर में दोनों सेनाओं में युद्घ हुआ। अकबर एक प्रमादी और व्यसनी व्यक्ति था, उसकी तैयारी में दोष था, और उसने अजमेर तक आने में इतना विलंब कर दिया था कि बादशाह को अपनी तैयार का पूर्ण अवसर मिल गया। उसके साथ उसका लडक़ा मौअज्जम भी आ मिला। इसके अतिरिक्त युद्घ के समय तक बादशाह ने अकबर के पक्ष के अनेकों लोगों को अपने साथ ले लिया था।
अजमेर से छह मील दक्षिण में स्थित दोराई नामक गांव में दोनों सेनाओं की मुठभेड़ होनी निश्चित हुई। अकबर ने अपनी सेना को लाकर इस गांव में रोक लिया और अगले दिन युद्घ करने का मन बनाया। परंतु वह औरंगजेब से युद्घ नही कर पाया और बिना लड़े ही युद्घभूमि से भाग गया।
बादशाह ने तहब्बर खान को मरवा दिया
बादशाह ने एक षडय़ंत्र के अंतर्गत तहब्बर खां को अपने शिविर में बुलाया और उसके लिए अपने लोगों से कह दिया कि वह नि:शस्त्र करके बादशाह से मिलाया जाए। इस शर्त को सुनकर तहब्बर खां को बादशाह पर संदेह हुआ। वह शस्त्र सहित बादशाह से जाकर मिलने की हठ करने लगा जिससे बाद विवाद होने लगा। जब बादशाह को इस वाद-विवाद की जानकारी हुई तो उसने कह दिया कि इसे शस्त्र सहित ही आने दिया जाए। पर बादशाह ने उसके प्रवेश से पूर्व ही अपने लोगों को संकेत कर दिया था कि उसके आते ही उसका वध कर दिया जाए। जैसे ही तहब्बर वहां प्रवेश करता है तो एक सिपाही ने उसे धक्का दे दिया, जिस पर तहब्बर खां ने उसके मुंह पर एक थप्पड़ दे मारा, और स्वयं वहां से भागने का प्रयास करने लगा, परंतु उसका पैर तम्बू की रस्सी से उलझ गया और वह गिर गया। गिरे हुए तहब्बर खां को बादशाह के लोगों ने वहीं मार डाला।
बेटे अकबर को बादशाह ने लिखा पत्र
उधर राठौड़ों को भी अकबर से दूर करने के लिए बादशाह ने एक झूठा फरमान जारी कर कहा कि बेटे अकबर तू मेरी हिदायत के माफिक इन नालायक राजपूतों को धोखा देकर खूब लाया है लेकिन अब इनको अपनी हरावल में करना चाहिए ताकि दोनों तरफ से कत्ल किये जाएं।
यह फरमान दुर्गादास राठौड़ के हाथों लग गया। इससे उन लोगों को लगा कि वे बहुत बड़े षडयंत्र के शिकार हो गये हैं। इसलिए उन लोगों ने रातों-रात वहां से भागने का निर्णय ले लिया। इस प्रकार इन राजपूतों के वहां से पलायन कर जाने और तहब्बर खां के मारे जाने के पश्चात अकबर के पास कुछ नही रहा था।
प्रात:काल जब अकबर उठा तो उसने देखा कि उसका सपनों का सारा संसार ही विनष्ट हो चुका था। बादशाह की छलपूर्ण नीति सफल हो गयी और अकबर उस नीति में ऐसा फंसा कि अब वहां से निकल भागना ही उसके लिए उचित था।
राजपूतों को बाद में षडय़ंत्र की सच्चाई पता चली
अजमेर से लौटने के पश्चात राजपूतों को वास्तविकता की जानकारी हुई कि वे अकबर के छल के शिकार न होकर बादशाह के षडय़ंत्र के शिकार हो गये हैं। तब उन्होंने अकबर को अपने साथ लेकर अगली योजनाओं पर विचार करना आरंभ किया। बादशाह भी अकबर को पकड़वाकर मंगवाने के लिए सचेष्ट हो उठा। उसने अपने अनेकों सैनिकों को अकबर को पकडऩे के लिए राजस्थान भेज दिया। जालौर और सांचोर के मध्य दोनों पक्षों में पुन: युद्घ हुआ। अकबर व उसके साथियों के सामने प्रस्ताव रखवाया गया कि यदि वह बंद कर दें तो वह बादशाह से अकबर को गुजरात की सूबेदारी तथा दुर्गादास राठौड़ व उनके साथियों को उच्च पद दिला देगा।
औरंगजेब ने घुटने टेककर की संधि
संधि का यह प्रस्ताव धीरे-धीरे आगे बढ़ा और जून 1681 ई. के अंत में दोनों पक्षों में संधि हो गयी। जिसके अनुसार युद्घ से पूर्व के चित्तौड़ के सारे भाग का स्वामी महाराणा को मान लिया गया। महाराणा के लिए अनिवार्य कर दिया गया कि वह किले की मरम्मत नही कराएगा। हिंदुओं के मंदिरों या पूजा स्थलों पर मस्जिदें नही बनायी जाएंगी, महाराणा अपनी जमीयत बादशाह की सेवा में रखता था, जो अब नही रखी जाएगी, और कोई नया आदेश नही दिया जाएगा, बागी राठौड़ों कि महाराणा कोई सहायता नही करेगा। अजीतसिंह जब बड़ा हो जाएगा तो उसे जोधपुर दे दिया जाएगा। संधि के पश्चात पुर माडल व बदनोर के परगने बादशाह ने महाराणा को दे दिये।
इस प्रकार इस संधि की शर्तों को पढऩे, देखने व समझने से स्पष्ट होता है कि औरंगजेब ने घुटने टेककर यह संधि की थी। अब वह युद्घ से ऊब चुका था और हिन्दू शक्ति का अधिक प्रतिरोध उसके लिए कष्टकर होता जा रहा था।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत