अभी हमारे सर्वोच्च न्यायालय की ओर से एक बहुत महत्वपूर्ण निर्णय आया है। जिस पर समाचार पत्रों में जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, उतनी हो नहीं पाई है। इससे पता चलता है कि हम घटनाओं के प्रति कितने उदासीन और तटस्थ हो गए हैं ? माना कि सर्वोच्च न्यायालय पर हम बहुत अधिक टीका टिप्पणी नहीं कर सकते। पर राजा और न्यायाधीश दोनों को ही जनता की ओर से उचित परामर्श देने की भारत की प्राचीन परंपरा रही है। इसका कारण यह है कि राजा और न्यायाधीश दोनों ही एक व्यक्ति पहले होते हैं, संस्था बाद में, और व्यक्ति से किसी भी प्रकार की गलती होने की पूरी संभावना होती है।
अब अपने मूल विषय पर आते हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने शहरों और कस्बों के प्राचीन नामों की पहचान के लिए ‘रिनेमिंग कमीशन’ बनाए जाने की मांग वाली याचिका खारिज कर दी है। इस पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि देश अतीत का कैदी बन कर नहीं रह सकता। धर्मनिरपेक्ष भारत सभी का है। देश को आगे ले जाने वाली बातों के बारे में सोचा जाना चाहिए।
हमारा मानना है कि भारत अतीत की जेल में आज उस समय भी कैदी है जब वह विदेशी आक्रमणकारियों की गुलामी के प्रतीक चिन्हों को ढोने के लिए अभिशप्त है। सोने पर यदि धूल आ जाए तो क्या उसे आप लोहे के कबाड़ के ढेर में यह मान कर फेंक देंगे कि हमें अतीत की जेल की कैद में नहीं रहना है और चूंकि सोने पर मैल या धूल की चादर मोटी हो गई है, इसलिए इसे अब धोना या साफ करना उचित नहीं । अतः इसे लोहे के कबाड़ में फेंक कर कबाड़ के भाव बेच दिया जाए ? यदि ऐसी मानसिकता प्रत्येक स्थिति परिस्थिति, वस्तु और वस्तुस्थिति के प्रति अपना ली जाएगी या अपना ली जाती है तो फिर हिंदी संस्कृत साहित्य में निरीक्षण, परीक्षण ,समीक्षण, परिमार्जन और परिष्कार जैसे शब्दों का कोई औचित्य नहीं। न्यायालयों के निर्णयों में आदेश का भाव नहीं होना चाहिए अपितु वैसे दिखने भी चाहिए, जिससे न्याय होता हुआ भी लगे।
इस संदर्भ में क्या यह उचित नहीं है कि अनेक विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत के मौलिक स्वर्णिम स्वरूप को विकृत और अपभ्रंशित करने का अथक और दंडनीय अपराध किया ?
यदि किया है तो क्या उस किए हुए की क्षतिपूर्ति नहीं होनी चाहिए? यह बात तब और भी अधिक विचारणीय हो जाती है जब रूस जैसे देश ने भी 1928 में अपना इतिहास लिखकर इतिहास की कलंकित विचारधारा को मिटाने का सफल प्रयास किया। इसी प्रकार अन्य देशों ने भी किया है। पाकिस्तान ने तो अपना सारा हिंदू इतिहास बदल कर उसे इस्लाम के रंग में रंग दिया है। दुनिया का यह सर्वमान्य और सर्व स्वीकृत सिद्धांत है कि उपनिवेशवादी व्यवस्था के काल में प्रत्येक उस देश ने अपने उपनिवेश देश का इतिहास बदलने का प्रयास किया, जिसने उपनिवेशवादी व्यवस्था में विश्वास रखते हुए दूसरों की स्वतंत्रता का हनन किया था। संसार के देश जैसे-जैसे स्वतंत्र होते गए वैसे वैसे ही उन्होंने अपने अपने इतिहास को लिखने और उसे अपनी आने वाली पीढ़ियों को समझाने का प्रयास किया।
क्या भारत की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा भारत को अपने इतिहास और ऐतिहासिक स्थानों के बारे में कुछ भी ऐसा करने से रोकती है जो उसके इतिहास के सच को उसकी आने वाली पीढ़ियों के सामने लाने में सहायक हो सकता है? यदि ऐसा है तो निश्चित रूप से धर्मनिरपेक्षता भारत के पैरों की एक बेड़ी है और यह केवल आततायियों के मानस पुत्रों को संरक्षण देने वाला एक आत्मघाती सिद्धांत ही माना जाना चाहिए। भारत के बहुसंख्यक समाज की उदारता का अभिप्राय यह नहीं कि वह अपने आप को सभ्यताओं की दौड़ में मार ले या जानबूझकर अपने आप को इस दौड़ से बाहर कर ले। यदि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यही है कि भारत अपने आपको ना तो समझ पाए और ना अपने आप को गौरव पूर्ण ढंग से प्रस्तुत कर पाए तो माना जाना चाहिए कि इस विचार या विचारधारा को भारत में मजबूत करने वाले सभी लोग और संस्थान भारत की आत्मा के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं। हमारे विचार से धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत वास्तव में पंथनिरपेक्षता का सिद्धांत है जो प्रत्येक व्यक्ति को अपने मजहब की आस्था के प्रति निष्ठावान रहने और अपने मजहबी कर्तव्यों को पूर्ण करने की गारंटी देता है। हमारे देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज पंथनिरपेक्षता के इस सिद्धांत का न केवल समर्थन करता है अपितु इस विचार को संसार को देने वाला सबसे पहला धर्म वैदिक धर्म ही है।
पंथनिरपेक्षता की अवधारणा में किसी भी दृष्टिकोण से अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकारों का तब उल्लंघन नहीं होता जब देश अपने गौरवपूर्ण अतीत को उद्घाटित और प्रस्तुत करने के लिए इतिहास को दोबारा लिखने का परिश्रम करना चाहता हो या उन ऐतिहासिक स्थलों के नामों को फिर से बदलने की कवायद करने की इच्छा रखता हो, जिनके नाम परिवर्तन से हम अपने इतिहास की गौरवपूर्ण धारा से जुड़ने में सफल हो सकते हैं। हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि संसार में जितने भर भी सिद्धांत प्रचलित हैं उन सबके अपने-अपने अपवाद भी होते हैं। यदि वर्तमान संसार में यह सिद्धांत प्रचलित है कि हम अतीत की ओर लौट नहीं सकते तो इस सिद्धांत का भी अपवाद है। हम जानते हैं कि इतिहास बनाया ही इसलिए जाता है कि हम समय आने पर उससे शिक्षा लें और अपना आत्म निरीक्षण करते समय पीछे लौटकर इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं की ओर अवश्य देखते रहें। यदि भारत के इतिहास को वर्तमान समय में निराशाजनक ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा है तो निराशा की घोर निशा हमें इस बात के लिए प्रेरित करती है कि हम अतीत के उजालों की ओर देखें और उनसे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ें। यह बात तभी संभव है जब हम अपनी गुलामी के प्रतीक सभी चिह्नों अर्थात बलात ढंग से ऐतिहासिक स्थलों के रखे गए नामों के कलंक को साफ करें और उनके वास्तविक इतिहास को जानें समझें।
इस संदर्भ में हम यह भी स्पष्ट करना चाहेंगे कि जिस याचिका पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपना यह आदेश दिया है उसमें याचिकाकर्ता वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की ओर से कहा गया था कि क्रूर विदेशी आक्रांताओं ने कई जगहों के नाम बदल दिए। उन्हें अपना नाम दे दिया। आज़ादी के इतने वर्ष पश्चात भी सरकार उन जगहों के प्राचीन नाम फिर से रखने को लेकर गंभीर नहीं है। उपाध्याय ने यह भी कहा था कि धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व की हज़ारों जगहों के नाम मिटा दिए गए याचिकाकर्ता ने शक्ति पीठ के लिए प्रसिद्ध किरिटेश्वरी का नाम बदल कर हमलावर मुर्शिद खान के नाम पर मुर्शिदाबाद रखने, प्राचीन कर्णावती का नाम अहमदाबाद करने, हरिपुर को हाजीपुर, रामगढ़ को अलीगढ़ किए जाने जैसे कई उदाहरण याचिका में दिए थे।
याचिकाकर्ता ने शहरों के अलावा कस्बों के नामों को बदले जाने के भी कई उदाहरण दिए थे. उन्होंने इन सभी जगहों के प्राचीन नाम की बहाली को हिंदुओं के धार्मिक, सांस्कृतिक अधिकारों के अलावा सम्मान से जीने के मौलिक अधिकार के तहत भी ज़रूरी बताया था। याचिका में अकबर रोड, लोदी रोड, हुमायूं रोड, चेम्सफोर्ड रोड, हेली रोड जैसे नामों को भी बदलने की ज़रूरत बताई गई थी।
।जस्टिस के एम जोसेफ और बी वी नागरत्ना की बेंच ने याचिका में लिखी गई बातों को काफी देर तक पढ़ा. इसके बाद जस्टिस जोसेफ ने कहा, “आप सड़कों का नाम बदलने को अपना मौलिक अधिकार बता रहे हैं? आप चाहते हैं कि हम गृह मंत्रालय को निर्देश दें कि वह इस विषय के लिए आयोग का गठन करे?” अपने मामले की स्वयं पैरवी कर रहे उपाध्याय ने कहा, “सिर्फ सड़कों का नाम बदलने की बात नहीं है। इससे अधिक आवश्यक है इस बात पर ध्यान देना कि हज़ारों जगहों की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को मिटाने का काम विदेशी हमलावरों ने किया। प्राचीन ग्रन्थों में लिखे उनके नाम छीन लिए। अब वही नाम दोबारा बहाल होने चाहिए।”
जस्टिस जोसेफ ने कहा, “आपने अकबर रोड का नाम बदलने की भी मांग की है। इतिहास कहता है कि अकबर ने सबको साथ लाने की कोशिश की । इसके लिए दीन ए इलाही जैसा अलग धर्म लाया.” उपाध्याय ने जवाब दिया कि इसे किसी सड़क के नाम तक सीमित न किया जाए, जिन लोगों ने हमारे पूर्वजों को अकल्पनीय तकलीफें दीं. जिनके चलते हमारी माताओं को जौहर (जीते जी आग में कूद कर जान देना) जैसे कदम उठाने पड़े। उन क्रूर यादों को खत्म करने की ज़रूरत है।
बेंच की सदस्य जस्टिस नागरत्ना ने कहा, “हम पर हमले हुए, यह सच है. क्या आप समय को पीछे ले जाना चाहते हैं? इससे आप क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या देश में समस्याओं की कमी है? उन्हें छोड़ कर गृह मंत्रालय अब नाम ढूंढना शुरू करे?” जस्टिस नागरत्ना ने आगे कहा, “हिंदुत्व एक धर्म नहीं, जीवन शैली है। इसमें कट्टरता की जगह नहीं है। हिंदुत्व ने मेहमानों और हमलावरों सब को स्वीकार कर लिया। वह इस देश का हिस्सा बनते चले गए। बांटो और राज करो की नीति अंग्रेजों की थी। अब समाज को बांटने की कोशिश नहीं होनी चाहिए।”
माना कि हिन्दुत्व में कट्टरता के लिए कोई स्थान नहीं है। परंतु अपने सांस्कृतिक मूल्यों और ऐतिहासिक विरासत की रक्षा करना तो प्रत्येक जाति और प्रत्येक देश का अपना विशेष मौलिक अधिकार है। उस विशेष मौलिक अधिकार पर यदि आज भी हिंदुत्व की कट्टरता की छवि ना होने के कारण हमला हो रहा है या अतीत में हुए हमलों के कारण उसे धूमिल करने का आज भी प्रयास किया जा रहा है तो हिंदुत्व की कट्टरवादी छवि न होने की प्रशंसा करते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय को चाहिए था कि वह देश और देश के बहुसंख्यक समाज को अपने इतिहास और ऐतिहासिक धरोहर पर काम करने की छूट देने का समर्थन करता। देश के जिन वर्गों, समुदायों या मजहबों की कट्टरवादी छवि है या जो मीठी छुरी के साथ देश के बहुसंख्यक समाज को मिटाने के कामों में लगे हुए हैं, क्या माननीय सर्वोच्च न्यायालय उनके इरादों के प्रति भी गंभीर है ? या धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की रक्षा का समर्थन करते हुए उन्हें अपरिमित और असीमित अधिकार देने की सोच का समर्थन करता है ? माननीय सर्वोच्च न्यायालय से हमारा विनम्र अनुरोध रहेगा कि उनके इरादों पर भी धर्मनिरपेक्ष भारत में प्रतिबंध लगाने का काम होना चाहिए। इसकी पहल यदि माननीय सर्वोच्च न्यायालय करता है तो यह निश्चय ही भारत के भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण निर्णय होगा।
यहां पर यह प्रश्न भी बहुत आवश्यक हो गया है कि यदि माननीय सर्वोच्च न्यायालय इस बात से सहमत हैं कि अतीत में विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमणों के कारण और उनकी क्रूरता व अत्याचारपूर्ण नीति के चलते भारत के गौरवपूर्ण इतिहास को मिटाया गया और अनेक ऐतिहासिक स्थलों के नाम परिवर्तित किए गए तो क्या मिटाए गए इतिहास को मिट जाने दें, और उस पर कोई भी ऐसा कार्य न किया जाए जिससे हमारी आने वाली पीढ़ियां अपने गौरवपूर्ण अतीत पर उत्सव मना सकें?
हम इस सिद्धांत की उपेक्षा नहीं कर सकते कि कोई भी देश और उस देश के निवासी अपने आपको दूसरे देश के अधीन तब तक नहीं कर सकते जब तक वे अपने आपको उस आक्रमणकारी से श्रेष्ठ मानते रहते हैं। भारत ने विदेशी आक्रमणकारियों से सदियों तक संघर्ष किया और केवल इसलिए किया कि वह अपने आपको प्रत्येक विदेशी आक्रमणकारी जाति से श्रेष्ठ मानता था। क्या श्रेष्ठता के उस भाव को आज हम धर्मनिरपेक्षता की भेंट चढ़ा कर अपने पूर्वजों के पुरुषार्थ और पराक्रम को भुला दें ?
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत