यह अलग बात है कि उस पुष्टि को करने के पश्चात भी वे हमारे ऋषियों के चिकित्सा विज्ञान को सही अर्थों में समझने में असफल रहे हैं।
भारत में 1947 तक भी भारत की परम्परागत देशी औषधियां ही लोगों का उपचार करती थीं। हमारे देशी वैद्य स्वयं लोगों के पास जाकर उनका उपचार करते थे। देश में औषधालय तो थे परंतु अस्पताल नहीं थे-जहां रोगियों को आजकल ठूंस-ठूंसकर भरा जाता है और फिर बिस्तर पर लिटाकर उन्हें अचेत कर उनकी ‘जेब काटी’ जाती है। आज लूट का पर्याय बनी चिकित्सा प्रणाली प्राचीन भारत में सेवा का एक माध्यम थी। देश का यह दुर्भाग्य रहा है कि स्वतंत्रता के पश्चात देश की आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली को न अपनाकर विदेशी एलोपैथिक चिकित्सा प्रणाली को अपना लिया गया है। जिसने देश में लगभग बीस लाख डॉक्टरों की विशाल सेना खड़ी कर दी है और फिर भी सवा अरब में से एक अरब लोग बीमार हैं। जिन्हें स्वस्थ रखने के लिए कहा जा रहा है कि अभी तो इतने ही चिकित्सकों की और आवश्यकता है। कहने का अभिप्राय है कि ऐलोपैथी के माध्यम से विषैली दवाई खिला-खिलाकर तथा व्यक्ति का मानसिक उपचार न करके उसे इंजैक्शनों के माध्यम से स्वस्थ रखने की अप्राकृतिक चिकित्सा के माध्यम से अस्वस्थ करने की प्रचलित प्रणाली मानो कम पड़ गयी है और अभी इसे और भी बलवती करने की आवश्यकता है, तभी तो देश में बीस लाख चिकित्सकों की और भी आवश्यकता अनुभव की जा रही है।
सोचने की आवश्यकता है कि यदि 1947 में हमारे देश की कुल जनसंख्या का मात्र सातवां भाग ही रोगी था और आज कुल जनसंख्या का 80 प्रतिशत भाग रोगी है तो ऐसे क्या कारण हैं कि रोग घटने के स्थान पर बढ़ रहे हैं? यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि देश की सुरक्षा के लिए तो भारत के पास तेरह लाख सैनिक हैं और देश के लोगों के स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए बीस लाख सैनिक (डॉक्टर्स) हैं और इतने ही और चाहिएं, फिर भी इन बीस लाख चिकित्सकों की सेना की अपेक्षा भारत की सेना के तेरह लाख सैनिक ही उत्तम हैं? निश्चय ही व्यवस्था में भारी दोष है।
भारत को अपना विश्वगुरू का स्वरूप ही पहचानना होगा। वह नकल करनी छोड़े और आत्मस्वरूप को पहचाने। सारा संसार उसके नेतृत्व की बाट जोह रहा है। यह बहुत ही भयावह तस्वीर है कि भारत की जनसंख्या का सत्तर प्रतिशत भाग 2030 तक कैंसर जैसी घातक बीमारी की चपेट में होगा। इसकी आहट दिखने लगी है। पर हम हैं कि अभी भी सो रहे हैं। ऋषियों के उत्तराधिकारी होकर और अमृतपुत्र होकर विष खा रहे हैं और मादक द्रव्यों का सेवन कर रहे हैं। परिणाम क्या होगा? ईश्वर ही जाने। निश्चय ही हमें अपने मूल की ओर लौटना होगा।
‘चरक संहिता’ के भाष्यकार विद्याधर शुक्ल व रविदत्त त्रिपाठी लिखते हैं :-
”सुदीर्घ अतीत से हिमालय के रम्य शिखरों का कण-कण दिव्य तप की भावना से सम्भृत है और वह उत्तरापथ सदा से ज्ञान का अधिष्ठाता रहा है। प्राण विद्या के अत्यंत गूढ़ रहस्यों का प्रोद्घाटन कर जीवन के तत्वों का विश्लेषण कर पाना आस्थावान ऋषियों के उर्वर मस्तिष्क के अदभ्र अध्यवसाय, उपासना एवं तप की परिणति है और इस उपासना का स्थल गिरिराज की शैल श्रेणियां ही हो सकती हैं। प्राचीनकाल में शास्त्र, मंत्र, महावाक्य और ग्रंथ जिस तत्व को पाकर शक्तिशाली हुए हैं, उस तत्व का उद्गम स्रोत हिमवान है। भारतीय राष्ट्र आत्मचैतन्य के आधारभूत जिन मूल्यों सत्यम् शिवम् सुंदरम् से अनुप्राणित है-उन सनातन संस्कृतियों के निर्झर के स्रोत हिमालय की चूड़ाएं ही हैं।”
निश्चय ही आज हमें अपने गौरवपूर्ण अतीत को खोजने के लिए हिमालय की चूड़ाओं का आसरा लेना होगा। हमें स्मरण रखना होगा कि आज भी विदेशी दवा कंपनियों और विदेशी सत्ताधीशों के षडय़ंत्रों रूपी रावण के दुष्ट सेनापतियों ने हमारे लक्ष्मण को घायल कर अचेत कर दिया है। जिसकी मूच्र्छा को तोडऩे के लिए संजीवनी हमारा हिमालय ही दे सकता है। सारा संसार शिव स्वरूप हिमालय के देश भारत की ओर देख रहा है, उसे आशा है कि भारत जागेगा और मेरा दुख हरेगा। क्योंकि उसे पता है कि उसका दु:ख हरने का उपाय केवल वह भारत ही जानता है-जिसकी हर मान्यता मानवतावादी है और जिसका कण-कण मानवता की जय बोलता है।
चरक जी विद्यार्थियों को सेवाभावी बनाने के लिए उनसे यह प्रतिज्ञा कराते थे-”मैं जीवन भर ब्रह्मचारी रहूंगा। मेरी वेशभूषा ऋषियों जैसी होगी। मैं किसी से द्वेष नहीं करूंगा अर्थात चिकित्सा उपचार करते समय हर रोगी के प्रति प्रेमभाव प्रदर्शित करूंगा। मैं सादा भोजन करूंगा। हिंसा नहीं करूंगा। रोगियों की उपेक्षा नहीं करूंगा। उनकी सेवा अपना धर्म समझूँगा। जिसके परिवार में जाकर रोगी की चिकित्सा करूंगा, उसके घर की बात बाहर नही कहूंगा। अपने ज्ञान पर घमण्ड नहीं करूंगा। गुरू को सदा गुरू मानूंगा।”
इस सदाचरण युक्त प्रतिज्ञा को हमारे वैद्य चिकित्सक लोग अपनाते थे और आज भी अपनाते हैं। जिससे आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली की उत्कृष्टता और सात्विकता का पता चलता है।
भारत की ऋषि वैज्ञानिक परम्परा
भारत के ऋषि लोग आविष्कारक हुआ करते थे। उनके आविष्कार मानवता के हितार्थ और दुष्टों के संहारार्थ हुआ करते थे। ईश्वर की न्यायव्यवस्था का नियम है कि जिस किसी व्यक्ति ने जैसा अपराध किया है उसे वैसा ही दण्ड दिया जाना चाहिए, अपराध की श्रेणी से कम अधिक दण्ड नहीं होना चाहिए। हमारे ऋषियों ने इसी न्यायव्यवस्था को अपनाया। यही कारण रहा है कि यदि उन्होंने अपराधी को या आततायी को दण्ड देने की व्यवस्था की तो उसमें दण्ड की प्रवृत्ति और अपराध की प्रकृति का सदा ध्यान रखा। हमारे ऋषियों ने अस्त्र-शस्त्र भी ऐसे बनाये कि वे जनसंहार न कर सकें, और फिर भी शत्रु को व्यापक क्षति पहुंचाने में समर्थ भी हों। जबकि आजकल के जितने भर भी हथियार बनाये जा रहे हैं, वे सब के सब व्यापक नरसंहार करने वाले हैं। आजकल हथियार बनाते समय यह सोचा जाता है कि चने के साथ घुन तो पिस ही जाता है, अर्थात एक अपराधी के साथ कुछ निरपराध तो मारे ही जाते हैं। इसका अर्थ हुआ कि आज के हथियार निर्माता वैज्ञानिक के चिंतन में हिंसा है, दोष है। जबकि हमारे ऋषियों के चिंतन में ऐसा नहीं था। उनका मानना था कि जैसे चावल को छिलके से अलग करते समय ऐसी विधि का सहारा लिया जाता है कि चावल टूटें भी नहीं और अलग भी हो जाएं-वैसे ही समाज के भले लोगों को कोई कष्ट ना हो और अपराधी उनसे अलग कर लिया जाए, ऐसा प्रबंध किया जाना चाहिए।
पाठकवृन्द! तनिक एकलव्य का उदाहरण स्मरण करें। वह भौंकते हुए कुत्ते के मुंह को तीरों से बंद कर देता है, पर इस सारी प्रक्रिया में कुत्ते को कोई कष्ट नहीं होता। वे तीर उसे केवल भौंकने से बंद करते हैं, उसे मारते नहीं हैं और ना ही उसको खून निकालते हैं। इस उदाहरण से हमें समझना चाहिए कि अपनी साधना में रत एकलव्य को कुत्ते का भौंकना व्यवधान डाल रहा था, इसलिए उसने अहिंसक रूप से कुत्ते के भौंकने का ही प्रबंध किया, उसे मारा नहीं। इसी को ज्ञान की ‘सात्विक उत्कृष्टता’ कहा जाता है। आज का एकलव्य तो कुत्ते को ही समाप्त कर डालता। क्योंकि आज के एकलव्य का चिंतन दूषित और हिंसक है।
महर्षि भारद्वाज
भारत के एक ऋषि हुए उनका नाम था-भारद्वाज। भारद्वाज चिकित्सा विज्ञान के तो मर्मज्ञ थे ही साथ ही वे विमान विद्या में भी पारंगत थे। संसार के ज्ञात इतिहास के वह पहले ऋषि हैं-जिन्होंने विमान की परिभाषा दी और उसका आविष्कार किया। उनका कथन है-”जो पृथ्वी, जल और आकाश में पक्षियों के समान वेग पूर्वक चल सके, उसका नाम विमान है।”
ऋषि भारद्वाज का यह भी कहना है कि विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसको चलाने का अधिकारी है। शास्त्रों में जिन बत्तीस वैमानिक रहस्यों का उल्लेख किया गया है विमान चालकों को उनका भलीभांति ज्ञान रखना परम आवश्यक है, और तभी वे सफल चालक कहे जा सकते हैं।
ऋषि भारद्वाज विश्व के एकमात्र ऐसे ऋषि वैज्ञानिक हैं-जिन्होंने ऐसे विमान की भी विधि ज्ञात की थी कि जो एक साथ आकाश में उड़ भी सकता है, और आवश्यकतानुसार थल पर भी चल सकता है, इतना ही नहीं यदि उसे एक ही समय में किसी कारण जल पर भी उतरना पड़ जाए तो वह वहां भी तैर सकता है। विमान निर्माण के इस रहस्य तक अभी आज का विज्ञान पहुंच नहीं पाया है।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत