विश्वगुरू के रूप में भारत-12
ऋषि भारद्वाज ने जिन विमानों का निर्माण कराया उनके लिए उन्होंने ऐसे ईंधन की तकनीक बतायी है जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के अनुकूल हो। इससे स्पष्ट होता है कि ऋषि भारद्वाज का चिंतन पूर्णत: सात्विक और मानवता के हितों के अनुकूल था। ऋषि भारद्वाज का आश्रम प्रयाग में त्रिवेणी के संगम पर स्थित माना जाता है, उनके इसी आश्रम में वन को जाते समय श्रीराम जी अपनी पत्नी सीताजी व भ्राता लक्ष्मण के साथ उनसे यहां आकर मिले थे। ऋषि भारद्वाज का एक आश्रम चेन्नई में भी था। चेन्नई स्थानीय भाषा में गुरूकुल को ही कहा जाता था। जिसे मुसलमानों ने मदरसा बोला तो अंग्रेजों ने मदरसा का मैड्रासा कर दिया जिसे मद्रास कहा जाने लगा। अब मद्रास का नाम पुन: चेन्नई कर दिया गया है-इससे पता चलता है कि ऋषि भारद्वाज की अपने समय में कितनी ख्याति थी?
ऋषि कपिल
भारत के एक अन्य ऋषि कपिल थे। ये ऐसे महान वैज्ञानिक थे-जिन्होंने संसार में सर्वप्रथम अणु-परमाणु पर ठोस अध्ययन किया था। उन्होंने सांख्य दर्शन का निर्माण किया। जिसमें विश्व रचना के लिए 25 तत्वों की अनिवार्यता मानी गयी है। उन्होंने सृष्टि निर्माण में प्रकृति और पुरूष की अनिवार्यता मानी है। महर्षि कपिल का कहना है कि-”यद्यपि निर्गुण पुरूष कुछ भी नहीं कर सकता, तथापि जब प्रकृति के साथ उसका संयोग होता है, तब जिस प्रकार गाय अपने बछड़े के लिए दूध देती है या चुम्बक के पास होने से लोहे में आकर्षण शक्ति आ जाती है, उसी प्रकार मूल अव्यक्त प्रकृति अपने गुणों का व्यक्त फैलाव पुरूष के सामने फैलाने लगती है।”
कपिल के अनुसार प्रकृति त्रिगुणात्मिका है, उसके तीन गुण सत, रज व तम हैं। मानव शरीर में वायु, पित्त और कप इन्हीं को कहा जाता है। आज का वैज्ञानिक इन्हें इलेक्ट्रोन, न्यूट्रोन और प्रोटोन कहकर पुकारता है। कपिल ऐसे ऋषि थे-जिन्होंने यह सिद्घांत प्रतिपादित किया कि इस संसार में कोई भी नई वस्तु उत्पन्न नहीं होती। हर वस्तु विनाश में समाती सी तो जान पड़ती है-पर पुरूष प्रकृति के संयोग से वह पुन: लौट आती है, उसका यह पुन: लौट आना ही उसका पुनरागमन है। पुनरागमन मानो उसका नवीनीकरण है।
महर्षि कणाद
कपिल की ही भांति कणाद भी भारत के प्रसिद्घ ऋषि हैं। इन्होंने कण अर्थात अणु के सिद्घांत का प्रतिपादन किया। उनका नाम कणाद पडऩे का एक कारण यह भी बताया जाता है कि वे खेतों में पड़े अन्नकणों को चुनकर उसी से अपनी भूख मिटा लिया करते थे। इनका जन्म स्थल द्वारका के पास प्रभास पाटन में माना गया है। इन्हें सोम शर्मा का शिष्य माना जाता है। इन्होंने वैशेषिक दर्शन का निर्माण किया। जिसका आधार परमाणुवाद है। महर्षि कणाद ने धर्म की भी बड़ी सुंदर परिभाषा दी, आपने स्थापित किया कि-
”यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिद्घि स धर्म:” अर्थात जिससे इहलौकिक (अभ्युदय) और पारलौकिक (नि:श्रेयस) सिद्घि हो वह धर्म है।
ऋषि कणाद का कथन है कि किसी झरोखे से आती हुई किरणों में उड़ते हुए सबसे सूक्ष्म कण का साठवां भाग परमाणु कहलाता है। इसे कणाद ने आविभाज्य माना है। उनका मानना है कि सृष्टि की प्रत्येक वस्तु इन्हीं परमाणुओं से बनी है। आज का वैज्ञानिक जिन तत्वों तक पहुंचने की या तो कल्पना कर रहा है या पहुंचने में अपने आपको अक्षम पा रहा है-उन तक हमारे ऋषियों का चिंतन पहुंच बना चुका था। कणाद महर्षि के अनुसार द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव इन सात पदार्थों में विश्व को विभक्त किया जा सकता है। उन्होंने विश्व के निर्माण में पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक, मन और आत्मा इन नौ द्रव्यों की उपस्थिति को माना है। वह कहते हैं कि इस संसार में और ब्रह्माण्ड में 24 गुण हैं-रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श, सुख, दु:ख, इच्छा द्वेष आदि। आज के विज्ञान के लिए इन 24 गुणों को समझना अभी शेष है। वास्तव में आज का विज्ञान एक बच्चा है जो हमारे ऋषियों के चिंतन की ऊंचाई के पीछे-पीछे भाग रहा है। यह बच्चा अभी अध्यात्म ज्ञान की भारतीय परम्परा को समझने का प्रयास कर रहा है। इसे अभी बहुत दूर तक जाना है, इतनी दूर कि जहां ये जा ही नहीं सकता। क्योंकि जहां इसका भौतिक विज्ञान समाप्त होगा-वहां से हमारा अध्यात्म विज्ञान आरंभ हो जाएगा, जिसका पार पाना इसके वश की बात नहीं है, और यदि किसी कारण से उसे भी इसने पा लिया तो उसके पश्चात ब्रह्मविज्ञान खड़ा है। जहां जाकर खड़ा होना या उससे बात करना इस भौतिक विज्ञान के वैज्ञानिक के वश की बात नहीं है।
हमारे लिए यह सौभाग्य की बात है कि हमारे यहां अनेकों ऋषि ब्रह्मविज्ञानी हुए। जिन्होंने आत्मा-परमात्मा के मिलन को सीधे-सीधे अनुभव किया और यह भी स्थापित किया कि ब्रह्मानंद के समक्ष या ब्रह्मविज्ञान के समक्ष भौतिक विज्ञान अति तुच्छ है। भौतिकविज्ञान आत्मविनाश का प्रतीक है तो ब्रह्मविज्ञान आत्मविकास की चरमावस्था को पा लेने का साधन है। उसके आनंद के समक्ष सारे आनंद फीके हो जाते हैं। भौतिकविज्ञान तो सांसारिक सुखों में फंसा-फंसाकर दिन-रात हमें मारता है, पर ब्रह्मविज्ञान विवेक और वैराग्य का जागरण कर अध्यात्म में से निकालकर हमें और भी उच्चता प्रदान करता है, ऊंची सीढ़ी चढ़ाता है। जिसमेें सर्वत्र आनंद ही आनंद होता है।
जिस स्वर्ग को लोग समझ नहीं पाये हैं-वह वास्तव में यह ब्रह्मानंद ही है। उसमें ‘हूरों’ की परिकल्पना करना तो चिंतन को तुच्छ बनाने की चेष्टा करना है। ब्रह्मानंद के वास्तविक आनंद की गहराई को तो विश्वगुरू भारत का कोई ऋषि ही बता सकता है। महर्षि कणाद ने इस आनंद की प्राप्ति को नि:श्रेयससिद्घि कहा है। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि इस नि:श्रेयस की सिद्घि धर्म के मार्ग से ही हो पानी संभव है।
महर्षि पतंजलि
महर्षि पतंजलि का ‘योगदर्शन’ विश्व का अप्रतिम ग्रंथ है। इसके अध्ययन अध्यापन से मनुष्य की आंतरिक और बाह्य वृत्तियों का निरोध होता है और व्यक्ति का आंतरिक सौंदर्य निखर कर सामने आता है। ‘योगदर्शन’ न केवल हमारे लिए आत्मसाक्षात्कार कराने में सहायक है, अपितु यह जीवन के अभीष्ट अर्थात मोक्ष को भी हमें प्राप्त कराने में सहायक है। योग निष्णात व्यक्ति का अपनी वाणी पर भी नियंत्रण स्थापित हो जाता है, जिससे वाणी व्यभिचार से होने वाले अनेकों कष्टों से उसे मुक्ति मिल जाती है। इससे काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, ईष्र्या, घृणा, द्वेषादि पर भी उसका नियंत्रण हो जाता है, जिससे समाज में शांति रहती है और लोगों में परस्पर प्रीति बढ़ती है। भारत की सामाजिक जीवन पद्घति को विकसित कर उसे सबके साथ समन्वय स्थापित करके सर्वमंगलमयी बनाने में ऋषि पतंजलि के चिंतन ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
महर्षि पतंजलि की उपादेयता अब बाबा रामदेव जी महाराज ने और भी अधिक बढ़ा दी है। जिससे महर्षि पतंजलि इस समय विश्व स्तर पर सर्वाधिक प्रसिद्घि प्राप्त करने वाले भारत के महर्षि बन चुके हैं। इसी महर्षि के पवित्र चिंतन का ही परिणाम है कि भारत का आज विश्व स्तर पर गुणगान हो रहा है और 195 देश ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ के दिन एक साथ मिलकर ‘ओ३म्’ की पवित्र प्राणदायक ध्वनि का गुंजार कर रहे हैं। सारे संसार ने भारत के इस महान महर्षि के चिंतन और जीवन दर्शन को अपनाकर भारत के ‘विश्वगुरू’ होने की दावेदारी पर एक प्रकार से अपनी खुली सहमति ही प्रदान कर दी है।
पतंजलि महाराज का जन्म स्थान मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 11 किलोमीटर दूर नरसिंहगढ़ मार्ग पर स्थित गोन्दरमऊ है। पतंजलि ग्रंथों में इसे गोर्ना के नाम से जाना जाता है।
महर्षि पतंजलि का ‘अष्टांगयोग’ मार्ग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का मार्ग है। इनमें से केवल प्राणायाम को लेकर बाबा रामदेव चले हैं और हम देख रहे हैं कि इस ‘अष्टांगयोग’ के आठवें भाग को अपनाकर ही देश-विदेश के करोड़ों लोगों को लाभ मिल गया है। जीवन की बिगड़ी हुई व्यवस्था ठीक हो गयी है और असाध्य रोगों से भी उन्हें मुक्ति मिलती जा रही है। यदि विश्व इसे पूर्ण रूप से अपनाकर ‘अष्टांगयोग’ मार्ग का पथिक बन जाए तो संपूर्ण संसार को स्वर्ग बनने में देर नहीं लगेगी। महर्षि पतंजलि के योग के प्रति जिस प्रकार लोगों में उत्सुकता बढ़ी है, उसके दृष्टिगत यह कहा जा सकता है कि महर्षि पतंजलि का ‘योगदर्शन’ विश्व को आर्य बनाने और वसुधा को परिवार मानने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बढ़ा चुका है।
आज हमारे विद्यालयों में योग की कक्षाएं लगने लगी हैं। पी.टी. (फिजिकल टे्रनिंग=शारीरिक प्रशिक्षण) के स्थान पर योग का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। बच्चों को योग के माध्यम से ध्यान लगाना सिखाया जा रहा है। यह सब कुछ एक बड़ी क्रांति का प्रतीक है। इससे हमारी नई पीढ़ी की सहनशक्ति और धैर्य में आ रही कमी को दूर किया जा सकेगा और उन्हें सांसारिक दोषों से मुक्ति दिलाने में भी सहायता मिलेगी। यह देखा जा रहा है कि नई पीढ़ी अब प्रात:काल शीघ्र शय्या छोडऩे का प्रयास करती है और पार्कों में जाकर व्यायाम-प्राणायाम आदि करती है।
जब भीतरी जगत पवित्र होता है तो व्यक्ति इन्द्रियजन्य दोषों से मुक्त होता है। योग से भीतरी जगत पवित्र होता है और युवा पीढ़ी को ब्रह्मचर्य की प्रेरणा मिलती है- उसकी उपयोगिता उसे समझ आती है, ऐसे में संस्कारित पीढ़ी यह शपथ ले सकती है कि वह वास्तव में ही देश की महिलाओं का और मातृशक्ति का सम्मान करेगी। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि भारत को ‘विश्वगुरू’ बनाने के लिए महर्षि पतंजलि का चिंतन ही पर्याप्त है। क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत