विश्वगुरू के रूप में भारत-13
नागार्जुन
भारत के महान वैज्ञानिक ऋषियों में नागार्जुन का नाम भी अग्रगण्य है। वह गुजरात के सोमनाथ के निकट देहक दुर्ग में जन्मे थे। उनके काल में देश में एक बार अकाल पड़ा। तब उनके मन में लोगों के लिए सस्ती धातु से सोना बनाने का विचार आया। उन्हें पता चला कि समुद्र पार एक द्वीप पर कोई साधु रहता है जो कि सस्ती धातु से सोना बनाने की कला को जानता है। नागार्जुन ने अनेकों कष्ट सहकर समुद्र को पार किया और उस साधु से सोना बनाने की कला सीखी।
जो लोग वास्कोडिगामा जैसे लुटेरे और आततायी व्यक्ति द्वारा की गयी समुद्र यात्रा को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं और उसका गुणगान करते नहीं थकते -उन्हें नागार्जुन के लोक कल्याणकारी प्रयास की ओर ध्यान देकर अपने देश के इस महान ‘वास्कोडिगामा’ के प्रयास की भी सराहना करनी चाहिए। विशेषत: तब जबकि वास्कोडिगामा की समुद्रीय यात्रा का उद्देश्य भारत को लूटना था और अपने देशवासियों के लिए लूट का मार्ग खोजना था। वह भारत की ओर भारत के लोगों से मित्रता करने नहीं चला था, अपितु इस देश को किस रास्ते से जाकर लूटा जा सकता है? -यह खोजने चला था। जबकि नागार्जुन का उद्देश्य अपने अकाल पीडि़त देशवासियों की रक्षा व सहायता के लिए अपने प्राणों को संकट में डालना था। नागार्जुन ने किसी देश को लूटने का मार्ग नहीं खोजा, अपितु एक साधु से विद्या सीखी और उस विद्या से अपने देशवासियों का कल्याण किया। भारत की संस्कृति की महानता का कितना ऊंचा उदाहरण है यह? परमार्थ के कारण और यज्ञीय भावना से प्रेरित होकर एक व्यक्ति समुद्र की संकट भरी यात्रा करता है और उसमें सफल मनोरथ होकर लौटता है। नागार्जुन के यज्ञीय जीवन का यह भाव आज भी विश्व के लिए प्रेरणादायी हो सकता है।
1031 में जब अलबेरूनी भारत आया, तो उसने भी भारत के इस रसायन शास्त्री की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की थी। उनके प्रसिद्घ ग्रंथ ‘रस रत्नाकर’ और ‘रसेल मंगल’ आज भी उपलब्ध हैं। नागार्जुन के ज्ञानसूर्य को नमन करते हुए हुवेनत्सांग ने उन्हें देव, अश्वघोष व कुमारलब्ध के साथ चारदीवारों का सूर्य कहा है। नागार्जुन को बौद्घधर्म का अनुयायी माना गया है। उनका जन्म पहली दूसरी शताब्दी में माना गया है। नागार्जुन तोना नामक गांव में रहा करते थे। कपोतगुड़ नामक स्थान पर उनकी छतरी बनायी गयी है। नागार्जुन ने ‘सुश्रुतसंहिता’ का संपादन किया और ‘कक्षपुत्र तंत्र’ ‘आरोग्य मंजरी,’ ‘योगसार,’ तथा ‘योगाष्टक’ नामक ग्रंथों की भी रचना की थी।
आर्यभट्ट
आर्यभट्ट का जन्म पटना में 13 अप्रैल 476 ई. को हुआ माना जाता है। उस समय भारतवर्ष में ‘गुप्तकाल’ के शासक शासन कर रहे थे। ‘गुप्तकाल’ में भारत की प्राचीन विद्याओं का और कलाओं का पूर्ण विकास हुआ था। इस वंश के राजाओं के शासनकाल को भारत का ‘स्वर्णयुग’ माना जाता है। इसके राजाओं और सम्राटों ने साहित्य व कला को पूर्ण संरक्षण प्रदान किया। जिससे देश में विज्ञान, साहित्य व कलाओं की बड़ी उन्नति हुई। यही कारण है कि भारत के इतिहास में ‘गुप्तकाल’ को विशेष सम्मान की दृष्टि से देखा जाता हैै।
आर्यभट्ट को भारत के एक महान गणितज्ञ के रूप में जाना जाता है। इस क्षेत्र में उनका योगदान वास्तव में प्रशंसनीय रहा। आर्यभट्ट के तीन ग्रंथ प्रमुख रूप से उपलब्ध हैं-दशगीतिका, आर्यभट्टिय तथा तंत्र। ‘आर्यभट्टिय’ में ज्योतिषशास्त्र के मूल सिद्घांतों को उल्लेखित किया है। आर्यभट्ट की महानता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि भारतवर्ष के अतिरिक्त समस्त संसार के ज्योतिषशास्त्री आज तक भी आर्यभट्ट से आगे कुछ नई खोज नहीं कर पाये हैं। अत: आज के समस्त ज्योतिषशास्त्री आर्यभट्ट के मस्तिष्क की अधीनता में कार्य करते हैं और उन्हीं के बौद्घिक मार्गदर्शन में चलते हैं। माना जाता है कि अपने ग्रंथ की रचना आर्यभट्ट ने सन 499 में कुसुमपुर में की थी। 121 श्लोकीय इस ग्रंथ को आर्यभट्ट ने दशगीतिका पाठ, गणितपाद, कालक्रियावाद और गोलपाद कुल चार भागों में विभक्त किया है। इसी ग्रंथ में इस महान गणितज्ञ ने ‘सूर्य सिद्घांत’ की व्याख्या की है। जिसे आज के विश्व के सभी वैज्ञानिकों की स्वीकृति मिल चुकी है। आर्यभट्ट ने गणितीय ज्योतिष में अंकगणित और रेखागणित का समावेश कर उसे विश्व का अनुपम और अद्वितीय ग्रंथ बना दिया। जिससे उन्होंने सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के पडऩे का सही और वैज्ञानिक कारण भी स्पष्ट किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि चंद्रमा में अपनी चमक नहीं है। वह तो सूर्य की चमक से चमकता है। आर्यभट्ट ने अपने गणितीय ज्ञान में दशमलव का प्रयोग करके यह भी स्पष्ट कर दिया कि भारत में दशमलव का प्रयोग उनसे भी पूर्व से हो रहा था। इस प्रकार के समस्त ज्ञान के लिए विश्व के अन्य देश उस समय पूर्णत: अछूते थे और अज्ञानान्धकार में भटक रहे थे। हां, भारत ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अवश्य अपने कीत्र्तिमान स्थापित कर रहा था। शेष संसार इस दशमलव के ज्ञान को बहुत बाद में समझा और जब समझा तो उसने इस पर भी अपना एकाधिकार स्थापित करने की मिथ्या धारणा का प्रचार किया। भारत उस समय अपने अतीत से कट रहा था, या कहिये कि इसे अपने अतीत से काटा जा रहा था। इसलिए विदेशियों को भारत के ज्ञान-विज्ञान पर अपना अधिकार करने का अवसर मिल गया। जिससे हमारे देश को अपरिमित हानि उठानी पड़ी।
ब्रह्मगुप्त
‘ब्राह्मस्फुट सिद्घांत’ और ‘खण्ड खाद्य’ नामक दो ज्योतिषशास्त्रों की रचना करने वाले ब्रह्मगुप्त का जन्म राजस्थान के भीनमाल (भिन्नमाल) में हुआ माना जाता है। उनका जन्म 598 ई. में हुआ। जब वह तीस वर्ष के थे तब उन्होंने ‘ब्राह्य स्फुट सिद्घांत’ की रचना की। उनके दोनों ग्रंथों की उस समय बड़ी मांग रही थी। विश्व के विद्वानों ने उन ग्रंथों को अपने लिए उपयोगी माना और उनका अध्ययन कर लाभ उठाया। यह वह काल था-जब इस्लाम के पैगंबर मौहम्मद साहब अरब की धरती पर इस्लामी क्रांति का सूत्रपात कर रहे थे और अरब को नई संस्कृति देने का प्रयास कर रहे थे। उस समय भी ब्रह्मगुप्त के उपरोक्त दोनों ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया गया और उन्हें अरबी में ‘सिंद हिन्द’ व ‘अलठ अकरन्द’ का नाम दिया गया।
इससे पता चलता है कि अरब के लोगों में वेद के विज्ञान के प्रति उस समय भी गंभीर रूचि थी और वे उस समय तक भी विज्ञान विरूद्घ या अतार्किक बातों के आधार पर लिखे गये किसी ग्रंथ की मान्यताओं को मानने के लिए तत्पर नहीं थे। यह घटना अरब के खलीफा अलमंसूर के शासन काल की है, जो कि अब से लगभग 12 सौ वर्ष पूर्व शासन कर रहा था। उसकी राजधानी उस समय बगदाद थी। उस समय मौहम्मद साहब की कुरानी शिक्षा को लेकर अरब में क्रांति आयी हुई थी परंतु खलीफा ने इसके उपरांत भी विज्ञान को अपने देश में प्रवेश करने दिया और उससे लोगों को लाभान्वित किया। इस प्रकार खलीफा ने गणित और ज्योतिष के क्षेत्र में ब्रह्मगुप्त को अरबों का पूजनीय मार्गदर्शन आचार्य बना दिया।
‘ब्रह्मस्फुट सिद्घांत’ में 1008 श्लोक और 25 अध्याय हैं। ब्रह्मगुप्त ने त्रिभुज, चतुर्भुज का क्षेत्रफल निकालने की रीति का बड़ा ही सटीक उल्लेख किया है। उन्होंने पाई का मान अंडररूट 10 दिया है, और अपने ग्रंथों में अंकगणित, बीजगणित के ऐसे सूक्ष्म सिद्घांतों की गहन विवेचना की है-जिस पर विचार करते हुए आज के वैज्ञानिक को भी दांत तले अंगली दबानी पड़ जाती है। उन्होंने अन्न का ढेर (राशि व्यवहार) नापने की रीति भी बतायी है। उल्लेखनीय है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान अन्न के ढेर को आज भी ‘राश’ (राशि) ही कहते हैं। यह ‘राश’ शब्द राशि से बिगडक़र बना है। इसका अभिप्राय है कि ब्रह्मगुप्त का यह राशि व्यवहार उस समय जनसाधारण में भी लोकप्रिय हो गया था। ब्रह्मगुप्त विश्व के पहले गणितज्ञ थे-जिन्होंने वृत्तीय चतुर्जुज का क्षेत्रफल निकालने का भी सूत्र दिया था।
इस महान गणितज्ञ की महानता को स्वीकार करते हुए भास्कराचार्य जी ने उन्हें आगे चलकर बारहवीं शताब्दी में ‘गणक चक्र चूड़ामणि’ की उपाधि से सम्मानित किया था। उन्होंने अनिवार्य वर्ग समीकरण अ य2+1=र2 का उत्तर प्रस्तुत किया। आजकल यह समीकरण जानपेल द्वारा हल की गयी बतायी जाती है। जबकि जॉनपेल (1668) से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व इसका समाधान या हल हमारे इस महान गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त द्वारा दे दिया गया था। जिस पर भारत को गर्व है- क्योंकि अपने महान कार्यों के कारण आज भी वह ‘विश्वगुरू’ बना हुआ है। ब्रह्मगुप्त का दूसरा महान ग्रंथ ‘खण्ड खाद्य’ पंचांग बनाने की विधि को प्रतिपादित करता है। क्रमश: