विश्वगुरू के रूप में भारत-14
वराहमिहिर
वराहमिहिर भारत की एक अनमोल प्रतिभा हैं, जिनकी प्रतिभा पर संपूर्ण भारतवर्ष को गर्व है। उनकी प्रतिभा ने संपूर्ण भूमंडल को लाभान्वित किया है। वराहमिहिर का जन्म मध्यप्रदेश में स्थित उज्जैन के निकट कापित्थ नामक ग्राम में आदित्यदास नामक ब्राह्मण के घर में हुआ माना जाता है। कुछ लोगों का मत है कि उनका जन्म कश्मीर के वराहमूल (बारामूला) में हुआ था। जब वराहमिहिर का जन्म हुआ-उस समय गुप्तकाल के महान शासकोंंका काल चल रहा था। गुप्तकाल के शासक साहित्य, कला एवं विज्ञान को प्रोत्साहित करने वाले शासक थे। वराहमिहिर को चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के ‘नवरत्नों’ में स्थान दिया गया था। ‘नवरत्न’ हो जाने का अर्थ था कि उस समय राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में भी उनकी प्रतिभा और बौद्घिक क्षमताओं का प्रयोग किया जाता था। वराहमिहिर भी गणित और ज्योतिष के आचार्य हुए हैं। उनका काल लगभग 490 से 587 ई. के बीच में माना गया है। इस प्रकार वे आर्यभट्ट के समकालीन हैं। वह गणित ज्योतिष में पारंगत थे। जिसके आधार पर आचार्यश्री ने बड़ी-बड़ी भविष्यवाणियां की थीं।
उन्होंने सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के यहां एक पुत्र के जन्म के समय भविष्यवाणी की थी कि इसे अमुक अवस्था आने पर अमुक समय पर सूअर मार डालेगा। राजा ने अपने पुत्र को बचाने के लिए अनेकों प्रबंध किये पर अंत में आचार्यश्री की भविष्यवाणी ही सत्यसिद्घ हुई। वह अपने पिता द्वारा सूर्योपासना करने से उत्पन्न हुए थे इसलिए उनका नाम मिहिर (सूर्य) रखा गया था। जब उन्होंने सूअर की भविष्यवाणी की तो उस समय से उनका नाम वराहमिहिर हो गया। उनका ग्रंथ ‘पंच-सिद्घांत’ के नाम से विख्यात है। जिसमें उन्होंने ज्योतिष के पांच सिद्घांतों पर प्रकाश डाला है। इस पुस्तक में उनके द्वारा प्रतिपादित किये गये सिद्घांतों और सूत्रों को देखकर स्पष्ट हो जाता है वह अपने काल की अनमोल निधि और प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व थे।
वराहमिहिर ने धरती के विषय में बताया कि यह गोल है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि पृथ्वी की सतह पर सभी नगरों के स्थित होने के कारण उनके विषय में यह भ्रांति नहीं पाली जा सकती कि एक नगर दूसरे नगर के धुर विपरीत दिशा में होने के कारण वे एक दूसरे के ऊपर नीचे हो जाते हैं। जैसे अमेरिका और भारत एक दूसरे के विपरीत दिशा में ग्लोब पर दिखायी देते हैं। पर धरती के गोल होने के कारण कोई एक दूसरे के ऊपर नीचे नहीं हो जाता। अंतत: वे धरती के धरातल पर ही स्थित हैं। धरती गोल है-ऐसा सिद्घांत प्रतिपादित का उन्होंने यद्यपि वैदिक मत का ही समर्थन किया कि धरती गोल है, परंतु पश्चिम के वैज्ञानिक तो हमारे इस महान वैज्ञानिक के लगभग एक हजार वर्ष बाद तक भी यह मानते रहे कि धरती चपटी है।
वराहमिहिर के ‘बृहद जातक’ नामक ग्रंथ में ज्योतिष विज्ञान, विवाह मुहूत्र्त जन्मकुंडली बनाने का वर्णन किया गया है। वास्तव में उनका यह सारा वर्णन फलित ज्योतिष के आधार पर दिया गया है। जिसमें 4000 श्लोकों की संख्या दी गयी है। इस ग्रंथ में हमें उस समय के रीति, रिवाजों, सामाजिक-परम्पराओं, विश्वासों, मान्यताओं, जनपदों व राज्यों का भी पता चलता है।
आज तक हमारे देश में ऐसे बहुत से किसान और अनपढ़ कृषि श्रमिक लोग हैं जो दीमक की स्थिति को देखकर या मेंढक आदि कुछ जीवधारियों को देखकर या कुछ पेड़ पौधों की स्थिति को देखकर वर्षा आदि मौसम के विषय में जानकारी कर लेते हैं कि इस बार मौसम कैसा रहने वाला है? ये सारे संकेत वराहमिहिर द्वारा ही अपने ग्रंथ में दिये गये हैं। जिनका ज्ञान आज तक पीढिय़ां व्यतीत हो जाने के उपरांत भी समस्त भूमंडलवासियों का भली प्रकार मार्गदर्शन कर रहा है।
भास्कराचार्य
जिस प्रकार उत्तर भारत की भूमि ने प्राचीन काल में भारत को अनेकों ऋषिरत्न प्रदान किये हैं, उसी प्रकार दक्षिण भारत की भूमि ने ही अनेकों ऋषिरत्न अर्थात भारतरत्न समय-समय प्रदान किये हैं। उन्हीं में से एक हैं -भास्कराचार्य। वह भी अपने समय के महानतम वैज्ञानिक हुए हैं।
कर्नाटक की पवित्र भूमि के बीजापुर में 1114 में भास्कराचार्य का जन्म हुआ था। कुछ लोगों ने उनका जन्म स्थान बीदर में तो कुछ ने महाराष्ट्र में सहयाद्रि पर्वत की घाटियों में होना भी माना है। उनके पिता का नाम महेश्वर था। उन्होंने अपने जीवनकाल में ‘सिद्घांत शिरोमणि’ की रचना की थी, उस समय उनकी अवस्था 36 वर्ष की थी। जिस समय भास्कराचार्य जी का जन्म हुआ था-उस समय तक भारत पर तुर्कों के लगातार अनेकों आक्रमण हो चुके थे और होते ही जा रहे थे। ये तुर्क लोग भारतीय संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट कर यहां पर अपनी संस्कृति को लागू करने का संघर्ष भारतीय लोगों के साथ निरंतर कर रहे थे। इन विदेशी आक्रामकों के आक्रमणों का प्रतिरोध भारतवासी भी निरंतर कर रहे थे। उस समय भास्कराचार्य जी का अपनी संस्कृति के लिए समर्पण भाव और अपने महान पूर्वजों केे पदचिन्हों पर चलते हुए भारत के ज्ञान-विज्ञान की ज्योति को निरंतर जलाये रखने के लिए कृतसंकल्प रहना सचमुच गर्व और गौरव का विषय है।
‘सिद्घांत शिरोमणि’ की भांति लीलावती नामक ग्रंथ भी भास्कराचार्य जी के प्रमुख और प्रसिद्घ ग्रंथों में से एक है। उन्होंने करण-कौतूहल, ‘समय सिद्घांत शिरोमणि’ तथा ‘रसगुण’ नामक ग्रंथों की भी रचना की थी। ‘सिद्घांत शिरोमणि’ और ‘लीलावती’ को उन्होंने छन्दोबद्घ करके लिखा है। ‘लीलावती’ में उन्होंने जोडऩे घटाने व गुणा-भाग करने के सूत्रों को दिया है। ‘लीलावती’ ग्रंथ की रचना उन्होंने अपनी पत्नी के नाम से की थी। भास्कराचार्य ने पृथ्वी के गोल होने की भारतीय ऋषियों के सिद्घांत की पुष्टि की, आर्यभट्ट उनसे पूर्व यह कह चुके थे कि यह पृथ्वी गोल है।
‘सिद्घांत शिरोमणि’ ग्रंथ की टीकाएं विदेशी विद्वानों द्वारा भी की गयी हैं, जिससे पता चलता है कि उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्घांतों को वैश्विक मान्यता मिली। 1810 में एच.टी. कोलब्रुक ने बीजगणित का अनुवाद अंग्रेजी में किया था। जबकि 1861-62 में विलकिंसन ने गणिताध्याय और गोलाध्याय का अनुवाद अंग्रेजी में किया था। यह भास्कराचार्य ही थे-जिन्होंने ‘शून्य’ के बारे में विश्व को बताया कि किसी संख्या में से शून्य घटाने पर या जोडऩे पर संख्या में कोई अंतर नहीं पड़ता। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यह पृथ्वी निराधार होकर भी इसलिए नहीं गिरती कि यह अन्य गृहों के साथ परस्पर आकर्षण से बंधी हुई है। उन्होंने पाई का मान 3.14166…बताया था। इसे आज के वैज्ञानिक 3.142 मानते हैं।
‘गोलाध्याय’ में भास्कराचार्य जी ने ग्रहों की गति का वर्णन किया है। उन्होंने सूर्य की गति के विषय में कहा था कि क्रांति वृत्त में यह सदा एक समान नहीं रहती। इसे आज के वैज्ञानिकों ने भी सत्य माना है। उन्होंने चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण के विषय में भी सटीक और वैज्ञानिक जानकारी दी कि इनके पडऩे का कारण क्या है? उन्होंने न्यूटन से 500 वर्ष पूर्व गुरूत्वाकर्षण बल की खोज करके यह स्पष्ट कर दिया था कि किसी पेड़ से कोई फल इसलिए धरती पर आकर गिरता है कि उसे पृथ्वी का आकर्षण बल अपनी खींचता है। इसके उपरांत भी लोग गुरूत्वाकर्षण बल की खोज का श्रेय न्यूटन को दिये जा रहे हैं-तो यह नितांत भ्रामक तथ्य ही है। ऐसे और भी अनेकों उदाहरण हैं जो ज्ञान-विज्ञान से ओतप्रोत हैं और जिन्हें देखने, समझने व परखने से इस महान भारतीय वैज्ञानिक की बौद्घिक क्षमताओं के सामने आधुनिक विज्ञान भी नतमस्तक होता है।
हमारे इन महान ऋषि वैज्ञानिकों के पास यह सारा ज्ञान-विज्ञान वेदाध्ययन से आया। वेद का संबंध सीधे ईश्वर से है। इस प्रकार भारतीय ज्ञान-परम्परा में ज्ञान-विज्ञान को ईश्वर द्वारा प्रदत्त बताया जाता है। ईश्वर ने बीजरूप में या सूत्र रूप में वेद की ऋचाएं दी हैं। जिनमें इस समस्त सृष्टि का ज्ञान-विज्ञान छिपा पड़ा है। उन सूत्रों को जितना ही हम खोजने-खोलने का प्रयास करेंगे उतना ही हमें नये-नये रहस्यों का पता चलता जाएगा। हमारी यह पवित्र भारत-भूमि सचमुच अपने सौभाग्य पर इठलाने का अधिकार रखती है कि अपने वेदज्ञान के लिए ईश्वर ने इसे ही चुना। सृष्टि का शुभारंभ भारत के त्रिविष्टप से कराकर मानो ईश्वर ने उसी दिन अर्थात सृष्टि प्रारंभ में ही यह संकेत दे दिया था कि ‘विश्वगुरू’ या विश्व का नेता -प्रणेता और प्रचेता तो भारत ही रहेगा। इस प्रकार संसार का गुरू होना भारत के लिए ईश्वर का उपहार है। इस उपहार को हमारी आज की युवा पीढ़ी को सहेजकर रखने की आवश्यकता है।
भारत आज पुन: करवट ले रहा है। उसे भास्कराचार्य के ज्ञान से पुन: आशा का भास्कर अपनी दिव्य आभा बिखेरता दिखायी दे रहा है, सारा संसार बारूद के ढेर पर बैठा है-वह भस्म हो जाना चाहता है-विनाश की भट्टी में। पर ध्यान रखना इस विनाश के पश्चात जो सूर्य उदय होगा वह भारत का ‘भास्कर’ ही होगा, भारत का ‘आर्यभट्ट’ होगा और भारत का ‘मिहिर’ होगा। जिनके पूर्वज भास्कर (सूर्य) और मिहिर (सूर्य) हों तो कल का सूर्य उनका होना निश्चित है। क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत