अबुल फजल ने फैलाई भ्रांति
अबुल फजल की इस प्रकार की अनर्गल बातों ने ही इस भ्रांति को जन्म दिया कि महाराणा प्रताप ने राजा भगवानदास से पूर्व में किए गए राजा मानसिंह के साथ कथित दुर्व्यवहार पर पश्चात्ताप किया था। अबुल फजल ने इस बात को गलत ढंग से इसलिए लिखा कि राजा भगवानदास की शब्दावली युद्ध को टालने की थी, इसलिए उन्होंने बात को समाधान की ओर ले जाने के लिए नरम शब्दों का प्रयोग किया। जबकि राजा मानसिंह ने जाकर अकबर के सामने भड़काऊ बातें की थीं। जिससे अबुल फजल जैसे चाटुकार इतिहास लेखक ने अपनी बुद्धि से ही अनुमान लगा लिया कि महाराणा प्रताप ने राजा मानसिंह के साथ दुर्व्यवहार किया था ,इसलिए उनकी भड़काऊ भाषा रही और अब राजा भगवानदास के साथ अच्छा व्यवहार किया है तो उनकी भाषा अकबर के सामने नरम है।
इसके अतिरिक्त अबुल फजल के इस अनर्गल आरोप को मिथ्या सिद्ध करने के लिए एक प्रमाण यह भी है कि महाराणा प्रताप ने अपने पुत्र अमर सिंह को अकबर के दरबार में अपनी एक धरोहर के रूप में कभी भी नहीं भेजा था। क्योंकि इस संबंध में कोई भी साक्ष्य किसी भी ग्रंथ या लेख के माध्यम से नहीं मिलता।
आज की वैश्विक राजनीति के संदर्भ में भी यह एक मान्य सिद्धांत है कि “राजदूत नामक व्यक्ति सदा ही अहिंसक होता है , अर्थात वह किसी भी प्रकार की गिरफ्तारी या निरोध के लिए उत्तरदायी नहीं हो सकता है, और प्राप्त करने वाले राज्य को उनके साथ सम्मान से पेश आना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके व्यक्ति, स्वतंत्रता या सम्मान पर किसी भी हमले को रोकने के लिए उचित उपाय किए जाएं।”
यदि हम मनुस्मृति और ऐसे ही दूसरे उन ग्रंथों का अध्ययन करें जिनमें राजनीति शास्त्र के सूक्ष्म तत्वों पर प्राचीन भारत में गहराई से प्रकाश डाला गया है तो पता चलता है कि राजदूत के प्रति ऐसी नीति वास्तव में भारत की ही देन है। यहां पर हमारा कहना है कि राजनीति के इस धर्म से महाराणा प्रताप अनभिज्ञ नहीं हो सकते। ऐसे में पूर्ण संभावना है कि उन्होंने भी राजदूत के इस प्रकार के अधिकारों का सम्मान करते हुए ही प्रत्येक दूतमंडल के साथ विनम्रता का व्यवहार किया था। तब यह भी पूर्ण संभावना है कि उन्होंने मानसिंह और उनके दूत मंडल के सभी साथियों के साथ भी सम्मान पूर्ण व्यवहार ही किया होगा।
अकबर का अंतिम दूत मंडल
अकबर ने अपनी ओर से अंतिम दूत मंडल 1573 के अक्टूबर महीने में राजा टोडरमल के नेतृत्व में महाराणा प्रताप के साथ बातचीत करने के लिए भेजा था। महाराणा प्रताप ने इस दूतमंडल के साथ भी सद्भाव पूर्ण वातावरण में वार्तालाप किया। इसके उपरांत भी अबुल फजल जैसे चाटुकार इतिहासकारों ने यह लिख दिया कि “राणा ने टोडरमल की बड़ी चापलूसी की और उसकी आज्ञाकारिता का प्रदर्शन किया।”
वास्तव में अबुल फजल या तो चाटुकारिता की सीमाओं को तोड़कर ऐसा लिख रहा था या फिर वह भारत के राज धर्म के विषय में कुछ जानता नहीं था । जहां प्राचीन काल से ही दूत मंडलों के साथ सद्भावपूर्ण परिवेश में ही बातचीत होती चली आ रही थीं। उसने सद्भाव पूर्ण वातावरण को ही महाराणा प्रताप के द्वारा टोडरमल की चापलूसी मान लिया।
इस संदर्भ में दामोदर लाल गर्ग जी का यह कथन पूर्णतया उचित जान पड़ता है कि “उपरोक्त वार्तालाप में महाराणा प्रताप ने बिना गरम हुए जिस गंभीरता का परिचय दिया उसकी हमें दाद देनी पड़ेगी। अकबर जैसे शक्ति संपन्न बादशाह के साम, दाम, दंड ,भेद पूरित प्रस्तावों को राणा प्रताप ने बड़े धैर्य से सुना। बगैर विरोध प्रदर्शन किए जहां अपनी कुछ मजबूरियां प्रकट की, वहीं दिलासा देकर उन्हें आशापूर्ण किंतु अनिश्चित मानसिकता में विदा करना, यह केवल राणा प्रताप के लिए ही संभव था।”
बार-बार दूत मंडलों को निराश करके भेजने के परिणामों को महाराणा प्रताप भली प्रकार जानते थे। उन्हें यह स्पष्ट आभास था कि इन दूतमंडलों के इस प्रकार भेजने से अकबर निश्चय ही खिन्न होगा और फिर वह मेवाड़ पर आक्रमण करेगा। यही कारण था कि उन्होंने अपने मेवाड़ के सभी लोगों के लिए यह राजाज्ञा जारी करा दी थी कि जिन्हें हमारे साथ युद्ध में रहना है वह सभी अपना घर बार छोड़कर पर्वत पर आ जाएं , जो लोग ऐसा नहीं करेंगे वे मेवाड़ के शत्रु माने जाएंगे। महाराणा के इस प्रकार के आदेश अथवा उद्घोषणा का मेवाड़ के लोगों पर चमत्कारिक प्रभाव हुआ। सभी चित्तौड़वासी अपने- अपने घर बार सूने छोड़कर पर्वतों की ओर चल दिए। जिससे मेवाड़ राज्य उस समय निर्जन हो गया था। हरी- भरी फसलें सूख गई थीं और सब ओर सुनसान जंगल दिखाई देता था। इससे अकबर को इस राज्य से होने वाली आय भी प्रभावित हुई। फलस्वरूप अकबर अब क्रोधित हो उठा था और उसने महाराणा से युद्ध करने के लिए अपनी सेना को आदेश दे दिया था।
कर्नल टॉड ने लिखा है कि “अकबर बादशाह ने जब राणा प्रताप के विरुद्ध युद्ध की तैयारियां की और जो राजपूत राजा उसकी अधीनता स्वीकार कर चुके थे उन सभी ने अकबर का साथ देने के लिए वचन दिया। इन राजाओं का साथ देने का कुछ और भी कारण था। जो राजा मुगल सम्राट की अधीनता स्वीकार कर चुके थे और अकबर से मिल चुके थे, राणा प्रताप ने उनको पतित समझकर न केवल उनसे संबंध तोड़ लिया था बल्कि उनसे कोई संबंध न रखने के लिए उसने दूसरे राजपूतों को उत्तेजित भी किया था।
उस समय अवस्था यह थी कि राजस्थान के लगभग सभी राजपूत राजा मुगल साम्राज्य से भयभीत हो चुके थे और उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। बूंदी का राजा किसी प्रकार अपनी मर्यादा को सुरक्षित रख सका था।”
बनी हल्दीघाटी युद्ध की भूमिका
बस, यहीं से हल्दीघाटी के युद्ध की भूमिका बन गई थी। महाराणा प्रताप भी अकबर की तैयारियों से पूर्णत: परिचित थे। उन्होंने अपने गुप्तचरों के माध्यम से पूर्ण सूचना प्राप्त कर ली थी। यही कारण था कि उन्होंने भी अकबर से टकराने और युद्ध के द्वारा ही समस्या का समाधान निकालने का मन बना लिया। मेवाड़ के सभी उत्साही वीर जनों में युद्ध की तैयारियों को लेकर भी एक अलग ही देश भक्ति का भाव दिखाई दे रहा था। अपने महाराणा के एक संकेत पर मर मिटने की उनकी पवित्र भावना इस समय हिलोरे ले रही थी। वह मरना भी जानते थे और शत्रु को मारना भी जानते थे। उन्हें मरने की कोई चिंता नहीं थी परंतु मरने से पहले एक हिंदू वीर योद्धा कितने शत्रु सैनिकों का संहार करेगा ? इस बात पर बड़ी वीरता के साथ महाराणा की सेना के सैनिकों और जनसामान्य में परस्पर वार्तालाप होते देखे जाते थे।
मेवाड़ का बच्चा-बच्चा अकबर से अब पुराने सारे पापों का हिसाब ले लेना चाहता था। अकबर के दादा बाबर के समय से चली आ रही शत्रुता को मेवाड़ का जन-जन समझता था। यही कारण था कि उसके दादा अकबर से भिड़ने वाले महाराणा संग्राम सिंह के पौत्र महाराणा प्रताप सिंह के साथ सारी मेवाड़ एकताबद्ध होकर खड़ी थी। मेवाड़ के लोगों को अपनी चित्तौड़ की आवश्यकता थी, इसके लिए वह अपना कोई भी बलिदान देने को तैयार थे। उनकी एक ही कामना होती थी: –
सर तन से जुदा कर देंगे उनका जो भारत का अपमान करें।
सहर्ष बलिदान करेंगे अपना ना प्राणों का कुछ ध्यान करें।।
हमें हिंदू राजाओं और मुगलों या किसी भी मुस्लिम शासक के साथ होने वाले युद्धों के बारे में यह बात सदा ध्यान रखनी चाहिए कि यदि एक मुस्लिम शासक के समय में कोई युद्ध हुआ और उस युद्ध के पश्चात उस मुस्लिम शासक ने दोबारा या उसके किसी उत्तराधिकारी ने अपने शासनकाल में फिर हिंदू शासकों पर हमला किए तो ऐसे हमलों के समय पुराने वैर अपने आप ताजा हो जाते थे। जिन युवाओं के पिता या दादा पूर्व के युद्ध में बलिदान हो चुके होते थे और वे युवा पहली बार किसी युद्ध में आ रहे होते थे तो वे अपने पूर्वजों की याद में युद्ध में दुगुने उत्साह से कूदते थे और पिछले सारे प्रतिशोध लेने की भावना मन में लेकर शत्रु का विनाश करते थे। महाराणा प्रताप के साथ ऐसे अनेक युवा थे जिनके पिता या दादा राणा संग्राम सिंह या उदय सिंह के शासनकाल में अकबर या बाबर से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे । ऐसे युवा आज अकबर का सर्वनाश करने के लिए महाराणा के साथ खड़े थे। युद्ध का यह नितांत व्यक्तिगत मनोभाव है जो राष्ट्रगत भावों को बलवती करता है। इस व्यक्तिगत मनोभाव को इस दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है कि भारत के लोग आज भी यह मानते हैं कि जो काम पिता से नहीं हो सका उसे वह पूर्ण करेंगे। वे यह भी मानते हैं कि यदि किसी ने मेरे पिता का कहीं किसी स्थान विशेष या समय विशेष पर अपमान किया था तो उसका प्रतिशोध मैं लूंगा। ऐसा करके ही हम भारत के लोग अपने पिता या पूर्वजों को श्रद्धांजलि देते हैं।
ऐसे में हल्दीघाटी के युद्ध को कई दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है।
महाराणा प्रताप और उनका चेतक
हल्दीघाटी युद्ध के वर्णन से पहले हम महाराणा प्रताप के युद्ध क्षेत्र के अनन्य साथी उनके प्रिय घोड़े चेतक के विषय में भी कुछ बता देना चाहते हैं। क्योंकि महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक का यदि उल्लेख नहीं लिया जाए तो यह उस पशु की स्वामी- भक्ति के साथ अन्याय ही होगा। महाराणा प्रताप और चेतक दोनों का बड़ा गहरा संबंध है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि महाराणा प्रताप का नाम आए और लोग चेतक के बारे में बात ना करें ? तक उस समय के सर्वश्रेष्ठ घोड़ों में से एक था। इस संबंध में जानकारों का कहना है कि महाराणा प्रताप अपने भाले, कवच और ढाल-तलवार ( जिनका कुल भार 208 किलो था) के साथ युद्ध के मैदान में उतरते थे।
हमारा मानना है कि इतने भार में कुछ अतिशयोक्ति का प्रयोग किया गया है। परंतु इतना अवश्य है कि महाराणा प्रताप के शरीर में गजब की फुर्ती थी और वह भारी वजन को लेकर भी शत्रु के साथ बहुत वीरता के साथ युद्ध करते थे। उनका घोड़ा चेतक नीलवर्ण का ईरानी मूल का घोड़ा था। गुजरात के चारण व्यापारी काठियावाड़ी नस्ल के तीन घोड़े चेतक, त्राटक और अटक लेकर मेवाड़ आए थे। कहा जाता है अटक नाम के घोड़े की मृत्यु परीक्षण के समय ही हो गई थी। विकिपीडिया के अनुसार त्राटक महाराणा प्रताप ने अपने छोटे भाई शक्ति सिंह को दे दिया था, जबकि चेतक को स्वयं रख लिया। यह घटना 1572 ई0 की है। 1576 ई0 में हल्दीघाटी के युद्ध के समय चेतक का प्राणांत हो गया था। इस प्रकार चेतक और महाराणा प्रताप का कुल 4 वर्ष का साथ रहा।
चेतक की स्वामी भक्ति ने महाराणा पर उपकार किए।
भारत की माटी धन्य हुई जहां कर्म पवित्र अपार किए।।
महाराणा प्रताप चेतक के मुंह पर हाथी की सूंड लगाकर युद्ध में जाते थे। मुगल सेना के हाथियों को भ्रमित करने के लिए ऐसा किया जाता था। जब हल्दीघाटी का युद्ध हो रहा था तो चेतक ने अकबर के सेनापति मानसिंह के हाथी के सिर पर अपने पांव रख दिए थे। जिससे कि महाराणा प्रताप अपने शत्रु को नष्ट कर सकें। महाराणा प्रताप ने मानसिंह पर तब प्राण लेवा हमला भी किया था, परंतु वह बच गया था। जिस समय महाराणा प्रताप अपने शत्रु मान सिंह पर जानलेवा हमला कर रहे थे उसी समय मानसिंह की सेना के किसी हाथी ने अपने दांतों के तीव्र प्रहार से चेतक के एक पैर को गंभीर रूप से चोटिल कर दिया था। इसके उपरांत भी वह स्वामी भक्त घोड़ा अपने स्वामी महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी के मैदान से निकालकर दूर ले जाने में सफल रहा था। यदि उस दिन चेतक नहीं होता तो महाराणा प्रताप के प्राण भी जा सकते थे। जब मुगल सेना राणा प्रताप का पीछा कर रही थी तो मार्ग में आए एक 26 फीट चौड़े नाले को चेतक अपनी पीठ पर सवार महाराणा को लिए हुए ही लांघ गया था। इस नाले को कोई भी मुगल पार नहीं कर पाया था। नाले को कूदते ही चेतक का प्राणांत हो गया था।
चेतक ने 21 जून 1576 को बलिचा गांव के राजसमंद में अंतिम सांस ली थी। राजसमंद हल्दीघाटी और उदयपुर के पास स्थित है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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मुख्य संपादक, उगता भारत