भारत की 64 कलाएं प्रमुख मानी गयी हैं। इनके नाम हैं नृत्य कला, वाद्यों का निर्माण करने की कला, स्त्री पुरूष के परिधान एवं अलंकार पहनाने की कला, अनेक प्रकार के रूप धारण (बहुरूपिया होना) करने की कला, शय्या अर्थात बिस्तर (उपस्तरण से बना है बिस्तर) बिछाना और पुष्पों को सही ढंग से गूंथने की कला, द्यूतादि क्रीड़ाओं का आयोजन-इसमें अक्षक्रीड़ा (चौपड़) विशेष रूप से प्रसिद्घ रही है, अनेक प्रकार के आसनों की कला। इन सात कलाओं की जानकारी हमें ‘गान्धर्व वेद’ से प्राप्त होती है।
विभिन्न प्रकार के आसव और पुष्परस अर्थात मकरंद बनाने की कला, शल्यक्रिया में निष्णात होना (शल्य-शूल=कांटे का प्रतीक है) अर्थात शल्य क्रिया वह है जो रोगी के शरीर को शूल की भांति चुभकर या चीर-फाडक़र रोग को शांत करती है। हमारे यहां इस कला में एक से बढक़र एक चिकित्सा शास्त्रियों के होने के प्रमाण मिलते हैं। विभिन्न प्रकार के मसाले (व्यंजन) तैयार कर भोजन पकाना ‘पाक कला’ कहलाती है, विभिन्न प्रकार की औषधियों को प्रदान करने वाले वृक्षों, लताओं, पौधों को संरक्षण देने की कला, विभिन्न धातुओं को खानों में से खोदना और उनसे भस्म बनाना, इक्षु (ईख) से गुड़, राब, खाण्ड, चीनी आदि बनाने की कला, स्वर्ण आदि धातुओं को औषधियों के साथ मिश्रित कर उन्हें मानव जीवन को नीरोग रखने योग्य बनाना, धातु आदि के मिश्रण का विज्ञान, लवण को समुद्र से या मिट्टी से निकालने की कला। ये 10 कलाएं हमें ‘आयुर्वेद’ से मिलती हैं।
मल्ल युद्घ में पैर आदि अंगों के विशिष्ट संचालन को पैंतरा बदलना कहा जाता है। यह पैंतरा बदलने का मुहावरा भारतीय समाज में बहुत प्रचलित है। जब कोई व्यक्ति किसी को अपने कूटनीतिक जाल में फंसाने के लिए नई चाल चलता है तो उस समय अक्सर ‘पैंतरा बदलने’ का मुहावरा प्रयोग किया जाता है। वस्तुत: यह एक कला है जो मल्लयुद्घ में या कूटनीतिक युद्घ में प्रयोग की जाती है।
भारत ने मल्लयुद्घ के लिए कुश्ती जैसे खेल की खोज की। इसमें दो मल्लों में द्वंद्व युद्घ होता है, जिसमें शरीर के सारे जोड़ों का व्यायाम होता है, इस द्वंद्व शब्द से ‘दंदुआ’ शब्द बन गया है, जो किसी मोटी बुद्घि के व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाता है। पहलवानों की बुद्घि मोटी कही जाती है, इसके पीछे कारण यह है कि उन्हें अधिक सोचने-समझने की शिक्षा ही नहीं दी जाती, उन्हें तो केवल दूसरे मल्ल को चित्त कैसे किया जाए?-यही बताया-समझाया जाता है। जिससे कई बार बहुत से पहलवान सामाजिक व धार्मिक ज्ञान से वंचित रह जाते हैं। शत्रु को पकडक़र रगड़ देना ‘निपीडन’ कहलाता है, और शत्रु की निपीडन कला से स्वयं को बचाना प्रतिक्रिया है। अर्थ निकला कि शत्रु की क्रिया से अपनी रक्षा करते हुए युद्घ करना एक कला है। इसे आजकल ‘कराटे’ कहा जाता है। यह कला व्यक्ति को संसार समर के लिए बहुत गहरी शिक्षा देती है कि संसार में क्रिया-प्रतिक्रिया का खेल चल रहा है, इसलिए सावधान होकर खेलना, सहनशक्ति बनाये रखना और उचित समय उचित निर्णय लेने की अपनी विवेकशक्ति का प्रयोग करते रहना, सही निशाना साधना और शत्रु को युद्घ में घेरने के लिए व्यूह रचना करना भी एक कला है।
प्राचीन काल में भी निशाना साधकर हथियार फेंकने की कला हमारे पूर्वजों के पास थी। आज के संसार में गोला फेंकना और शत्रु पर बमबारी करना भारत की गोला फेंकने की कला का ही विस्तार है। गोला फेंकते-फेंकते व्यक्ति ने तोपों का आविष्कार किया और तोपों को दागते-दागते आज की मिसाइलों का आविष्कार कर लिया है। वास्तव में गोला से मिसाइल तक या परमाणु बमों तक पहुंचने की यह प्रक्रिया मनुष्य की ऊर्जा का नकारात्मक हो जाना है-जो पश्चिम की देन है। इसके विपरीत भारत की गोला फेंकने की खोज पहलवान को योद्घा बनाने के लिए सकारात्मक दिशा में किया गया एक ठोस प्रयास था। जिसे भारतीय लोग विभिन्न हथियारों के माध्यम से युद्घ क्षेत्र में भी प्रयोग किया करते थे। मनु की व्यवस्था आयी थी कि युद्घ के लिए महायंत्र अर्थात महाविनाशकारी अस्त्र-शस्त्र निर्माण नहीं किये जाएं। मनु ने ऐसा इसीलिए कहा था कि महायंत्रों के प्रयोग से भयंकर विनाश होता था। इस भयंकर विनाश के दृष्टिगत प्राचीन भारत के लोगों ने मनु की बात को माना और महायंत्र निर्माण को निषिद्घ कर दिया।
आज का विश्व भी विनाशकारी परमाणु हथियारों को विनष्ट करने की बात रह रहकर करता है, परंतु उन्हें विनष्ट करता नहीं है। कारण कि आज के विश्व के पास कोई महर्षि मनु नहीं है जिसकी बात को सर्वोच्च न्यायालय की विधिक व्यवस्था मानकर शेष सब मानने को बाध्य हों। भारत के लोगों ने और हमारे व्यवस्थापकों ने चक्रवर्ती सम्राट की परम्परा इसीलिए चलायी थी कि चक्रवर्ती सम्राट की बात को सारा संसार राष्ट्रहित में मानकर स्वभावत: स्वीकार करने को सदा तत्पर रहे। चक्रवर्ती सम्राट और उनकी राजसभा की स्थिति आज के संयुक्त राष्ट्र के महासचिव और उनकी सभा से सौ गुणा उत्तम थी। आज का चक्रवर्ती सम्राट अर्थात संयुक्त राष्ट्र महासभा का महासचिव तो स्वयं में एक असहाय प्राणी है, जबकि चक्रवर्ती सम्राट के पास सर्वाधिकार सुरक्षित रहते थे। इसके पश्चात अश्वसेना, हस्तिसेना आदि से युद्घ क्षेत्र को सजाकर युद्घ का आयोजन करने की कला भी हमारे पूर्वजों को ज्ञात थी। इन कलाओं का संबंध धनुर्वेद से है।
विभिन्न प्रकार के आसन एवं मुद्राएं (शरीर की विशेष आकृति बना लेना) भी कला है। सारथि बनने की कला भी हमारे पूर्वजों को ज्ञात थी। इस कला में हर कोई पारंगत नहीं होता था। महाभारत के युद्घ में अर्जुन की जीत का कारण कृष्ण जैसे कुशल सारथि का मिल जाना था। मिट्टी लकड़ी या पत्थर से या फिर किसी धातु से बर्तन बनाने की कला में भी हमारे लोग पारंगत थे। विश्व के किसी भी देश में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से पुरानी कोई उन्नत सभ्यता नहीं मिलती और यदि मिलती भी है तो हमारी अयोध्या जैसी नगरी की प्राचीनता की तुलना करने वाली कोई नगरी या शहर तो कहीं पर भी नहीं है, जिसमें इस प्रकार के बर्तनों का प्रयोग हुआ करता था और जिसके निर्माण में स्थापत्य कला एवं भवन निर्माण कला का भी विशेष ध्यान रखा गया था।
रामायण में अध्योध्या की भव्यता की जिस प्रकार सराहना की गयी है उसे समझकर आज के इंजीनियर भी दांतों तले उंगली दबा जाएंगे। चित्रों का आलेखन भी एक कला (चित्रकला) है। वास्तव में आजकल की शिक्षा प्रणाली में चित्रकला को ही इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है कि सबसे प्रमुख कला चित्रकला ही है, और इससे अलग की कलाओं की उपेक्षा की जाती है। अधिकांश विद्यालयों में चित्रकला के अध्यापकों को भारत की कुल 64 कलाओं के नाम तो छोडिय़े उनकी संख्या भी ज्ञात नहीं होगी। शिक्षा के क्षेत्र में इतनी गिरावट का कारण यही है कि भारत ने अपने गौरवपूर्ण अतीत की ओर देखना और उसे समझना बंद कर दिया है। चित्रकला की उत्कृष्टता भारत में कितनी उत्तमता से स्थापित थी?- इसका प्रमाण भारत की अजन्ता एलोरा जैसी अनेकों गुफाओं या प्राचीन मंदिरों, भवनों, ऐतिहासिक दुर्गों में या ऐसे ही अन्य स्थानों पर आज भी देखने को मिल जाती हैं। जिसे देखकर विदेशी पर्यटक आज भी आश्चर्यचकित रह जाते हैं। बारोन डेल्बर्ग ने जब भारत की द्वारिका नगरी को देखा तो उसने उसका नाम (Wonder City) आश्चर्यजनक नगर रख दिया था। उसने कहा था-”उस देश (भारत) के नागरिकों ने खोदकर बनायी जाने वाली गुफा के निर्माण एवं उसे अलंकृत करने में अन्य देशवासियों की अपेक्षा बहुत उच्च पूर्ण एवं श्रेष्ठ दक्षता प्रदर्शित की है।”
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत