मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 21( क ) अकबर के दूतमंडल और महाराणा प्रताप

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अकबर के दूतमंडल और महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप ने सत्ता संभालते ही अपने लिए कांटों का मार्ग अपना लिया था। उन्होंने राष्ट्र के लिए यह शिवसंकल्प धारण किया कि अपने दादा महाराणा संग्राम सिंह के सपने को साकार करते हुए वह भारत भूमि को म्लेच्छ मुगलों से मुक्त कराएंगे। अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने उदयपुर से अपनी राजधानी स्थानांतरित कर गोगुंदा कुंभलगढ़ के पहाड़ी क्षेत्र में स्थानांतरित कर ली थी। इसका कारण केवल एक था कि उदयपुर पर मुगलों को आक्रमण करने में सुविधा हो सकती थी ,परंतु पहाड़ी क्षेत्र में उन्हें पहुंचने में अत्यधिक कठिनता का सामना करना पड़ता। महाराणा प्रताप शांत और एकांत स्थान पर रहकर राष्ट्र की आराधना करना चाहते थे, जहां पर शत्रु का पहुंचना अत्यंत कठिन हो। शांत और एकांत स्थान से हमारा अभिप्राय किसी साधु के लिए पहाड़ों में मिलने वाली कंदरा से नहीं है, अपितु एक ऐसे स्थान से है जहां पर वह निश्चिंत होकर शत्रु के विनाश की योजनाओं को क्रियान्वित कर सकते थे।

महाराणा की कूटनीतिक और रणनीतिक योजना

 महाराणा प्रताप के इस प्रकार के संकल्प से ही कुछ लोगों ने उनके बारे में यह धारणा बना ली कि उन्होंने महलों को त्याग कर जंगलों में रहना पसंद किया था। इन लोगों के इस प्रकार के कहने से ऐसा आभास होता है कि जैसे महाराणा ने केवल संकटों का मार्ग अपना लिया था, परंतु उसके पीछे उनका कोई बौद्धिक तर्क नहीं था। जबकि इसके पीछे के सच को समझकर हमें उनकी कूटनीतिक और रणनीतिक बुद्धि का ज्ञान होता है। यदि महाराणा प्रताप इस प्रकार का निर्णय नहीं लेते तो वह कभी 'महाराणा प्रताप' नहीं बन पाते। उदयपुर में रहते हुए वह मुगलों के शिकार बन सकते थे। उन्होंने अपनी रणनीति के अंतर्गत पहाड़ों को अपना मित्र बनाया और अपनी स्वाधीनता का मार्ग स्वयं प्रशस्त करते हुए आगे बढ़े। 

जब साधन सीमित हों और लक्ष्य बड़ा हो तो सीमित साधनों का सदुपयोग इस प्रकार करना चाहिए कि वह बड़े लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक बन जाएं।
जिस समय महाराणा प्रताप ने मेवाड़ की गद्दी को संभाला था उस समय अनेक राजपूत राजाओं ने अकबर के सामने घुटने टेक दिए थे। इतना ही नहीं, कई राजाओं ने तो अपनी कन्याओं को भी मुगल शासक अकबर को सौंप दिया था। वे कन्याऐं मुगल शासक अकबर की हविश का शिकार बनीं और उसके नरकखाने अर्थात हरम में ले जाकर कैद कर दी गईं। महाराणा प्रताप एक अकेले ऐसे संस्कृति रक्षक महानायक थे जिन्होंने इस प्रकार का निर्णय न लेकर अकबर का सामना करने का निर्णय लिया। महाराणा प्रताप के इस निर्णय के साथ उस समय हिंदुत्व और भारतवर्ष का स्वाभिमान जुड़ गया था। ऐसी परिस्थितियों में महाराणा प्रताप भली प्रकार जानते थे कि अब अकबर से युद्ध होना अनिवार्य है। इसे आप ऐसे भी कह सकते हैं कि उदयपुर को छोड़कर गोगुंदा और कुंभलगढ़ में जाकर अपनी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र स्थापित करने के पीछे महाराणा प्रताप का एकमात्र उद्देश्य यही था कि उन्हें भी अकबर से दो-दो हाथ करने ही थे। उन्होंने प्रकृति का साथ लिया और पहाड़ों को अपना प्राकृतिक किला बना लिया।

प्रकृति के साथ में, जा बैठे प्रताप।
दोस्त बना पहाड़ को मेटण लागे पाप।।

जिन राजपूत राजाओं ने अपनी कन्याओं को अकबर को सौंप कर अपने पूर्वजों के नाम को कलंकित किया था, उन्हें महाराणा प्रताप ने कभी सम्मान नहीं दिया। यही कारण था कि वह सभी राजा महाराणा प्रताप के विरोधी हो गए थे और विदेशी आक्रमणकारी की संतान अकबर के शुभचिंतक बन गए थे। ऐसे में महाराणा प्रताप यह भी भली प्रकार जानते थे कि उन्हें मुगलों को अपनी कन्याओं को देने वाले ये सभी राजपूत राजा कभी सहायता प्रदान नहीं करेंगे। इतना ही नहीं, महाराणा प्रताप का छोटा भाई जगमाल भी उस समय उनसे रुष्ट होकर अकबर से जा मिला था। अकबर ने उसका मेवाड़ के महाराणा के रूप में स्वागत किया था। इसके पीछे अकबर का उद्देश्य केवल एक था कि वह दोनों भाइयों में पड़ी फूट की खाई को और चौड़ा करके उसके राजनीतिक लाभ उठाना चाहता था। मूर्ख जगमल भी विदेशी अकबर को अपनी ओर से पूर्ण सहायता दे रहा था। अकबर ने जगमाल का मनोबल बनाए रखने के लिए उसे सिरोही का आधा राज्य भी दे दिया था। तब महाराणा प्रताप के सामने एकमात्र विकल्प यही था कि वह उदयपुर को छोड़कर कुंभलगढ़ और गोगुंदा की ओर चले जाएं। इस प्रकार उदयपुर से प्रस्थान करने की घटना को हमें कई दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता है।

महाराणा की पगड़ी झुकी नहीं

अकबर की उस समय एक ही इच्छा थी कि जैसे भी हो महाराणा प्रताप उसके दरबार में एक बार उपस्थित हो जाएं। प्रारंभ में उसने सोचा था कि जैसे अन्य राजपूत राजा टूटकर उसके सामने झुक गए हैं, वैसे ही महाराणा प्रताप भी कुछ समय उपरांत टूट जाएगा और वह अपने स्वाभिमान को अकबर के पैरों में रख देगा, परंतु महाराणा प्रताप उस मिट्टी के बने हुए नहीं थे जिस मिट्टी के अन्य राजपूत राजा बने थे । उन्होंने अपने स्वाभिमान को हिमालय की चोटी से भी ऊंचाई पर स्थापित किया और अकबर को बता दिया कि एक बार वह हिमालय का मस्तक झुका सकता है पर महाराणा प्रताप की पगड़ी को झुकाना उसके लिए आजीवन असंभव होगा।
। महाराणा प्रताप ने अपने पराक्रम और पौरुष से अपने इस संकल्प को पूर्ण करके भी दिखाया। अकबर जितना ही उनकी पगड़ी की चोटी को झुकाने के लिए उनकी ओर बढ़ता था, महाराणा की पगड़ी उसी प्रकार और अधिक ऊंची होती जाती थी जैसे पहाड़ी पर चढ़ते – चढ़ते उसकी चोटी और ऊंची होती दिखाई देती जाती है। महाराणा की पगड़ी उस समय अकबर के लिए एक अजीब पहेली बन चुकी थी। जिसका उत्तर ढूंढने का वह जितना अधिक प्रयास करता था उतना ही वह पहेली में फंसता जाता था।

पगड़ी पहेली बन गई, अकबर खोले गांठ।
अजीब अनोखी आग में जले अकबर के हाथ।।

कहना नहीं होगा कि चित्तौड़ उस समय संपूर्ण भारतवर्ष का स्वाभिमान बन चुका था । चित्तौड़ का बच्चा-बच्चा महाराणा प्रताप के पीछे खड़ा था। बस, महाराणा प्रताप के एक संकेत के मिलने की देर थी, मेवाड़ का बच्चा-बच्चा अपना बलिदान देने को तैयार था। महाराणा प्रताप का तेज उस समय मेवाड़ के जन-जन में व्याप्त हो चुका था। बलिदानी भावना से सारे मेवाड़ की मिट्टी रंग चुकी थी। महाराणा प्रताप के पास सैन्य शक्ति का अभाव था, इसके उपरांत भी वह झुकने को तैयार नहीं थी। यद्यपि वह इतना अवश्य सोचते थे कि युद्ध को जितना हो सके टाला जाए। महाराणा प्रताप समझौता तो चाहते थे पर स्वाधीनता से समझौता न करने की शर्त पर।

महाराणा ने नहीं बेचा देश का सम्मान

‘तबकात – ए – अकबरी’ के लेखक ने हमको बताया है कि महाराणा प्रताप ने जब सत्ता भार संभाला तो अकबर ने उन्हें समझा-बुझाकर अपने दरबार में बुलाने के कई प्रयास किए थे। अकबर ने चार बार अपने दूत भेजकर महाराणा प्रताप को आमंत्रित कर वार्ता करने का प्रयास किया था। परंतु महाराणा प्रताप पर अकबर के इन प्रयासों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इससे पता चलता है कि महाराणा प्रताप के भीतर स्वाभिमान और देशभक्ति कूट कूट कर भरी थी। देश के सम्मान और संस्कृति को मिटाने वाले अकबर के सामने झुकना वह देश के सम्मान को बेचने के समान समझते थे।
अकबर ने उन्हें समझाने के लिए अपने अति विश्वसनीय सरदार जलाल खान कोची को जब भेजा तो उसे किसी भी प्रकार की सफलता नहीं मिली और महाराणा ने उसे निराश करके लौटा दिया। यह घटना 21 नवंबर 1572 ई 0 की है। उस समय कई राजपूत राजा ऐसे रहे थे जिनके पास यदि एक बार अकबर का कोई संदेशवाहक ऐसे प्रस्ताव लेकर पहुंच गया तो वह उस प्रस्ताव को नकार नहीं सके थे। कई ने तो अकबर के इस प्रकार के ऐसे प्रस्तावों को ही अपने सम्मान का प्रतीक मान लिया था। जबकि महाराणा प्रतापसिंह सदा इस प्रकार के प्रस्तावों को अपने और अपने देश के लिए अपमान का प्रतीक मानते रहे थे।

मानसिंह लौटा निराश होकर

 1573 ई0 में अकबर ने कछवाहा राजा मान सिंह के नेतृत्व में एक दूतमंडल गठित करके महाराणा प्रताप सिंह के पास भेजा था। महाराणा प्रताप ने इस दूतमंडल से भी किसी प्रकार का उत्साहवर्धक वार्तालाप नहीं किया। यद्यपि उन्होंने इस दूतमंडल का भरपूर स्वागत सत्कार किया और जब दूतमंडल उनके राजभवन में पहुंचा तो उसकी अगवानी भी की। परंतु उसकी शर्तों से वह सहमत नहीं थे। अंत में इस दूतमंडल से महाराणा प्रताप की अनबन हो गई और उसे निराश होकर लौटना पड़ा। यहीं पर कुछ लोगों का अर्थात इतिहासकारों का मानना है कि मानसिंह स्वयं ही महाराणा से मिलने के लिए उस समय गया था जब वह एक विजय अभियान से लौट रहा था।  कहा जाता है कि उस समय महाराणा ने मानसिंह से मिलने से इनकार कर दिया था। उन्होंने अपने आपको सिर दर्द से पीड़ित बताकर स्वयं के अस्वस्थ होने के कारण मानसिंह के साथ भोजन करने में भी असमर्थता व्यक्त कर दी थी। इसके लिए महाराणा प्रताप ने अपने पुत्र अमर सिंह को मानसिंह के साथ भोजन करने के लिए भेज दिया था।
 इस भोज का आयोजन उस समय उदयसागर झील के किनारे किया गया था। मानसिंह ने महाराणा प्रताप से अपने साथ भोजन करने के लिए कई बार आग्रह किया था। उसके बार-बार के आग्रह को महाराणा प्रताप ने जब ठुकरा दिया तो मानसिंह क्रोधवश बिना खाना खाए ही वहां से यह कहकर चल दिया था कि वह शीघ्र ही महाराणा के सिर दर्द की औषधि लेकर आएगा। महाराणा प्रताप ने मान सिंह के इस प्रकार के कथन के उत्तर में कह दिया था कि 'अपने फूफा ( अकबर ) को भी मालिश करने के लिए साथ ले आना।'

हमारा मानना है कि यदि महाराणा प्रताप ने वास्तव में उस समय ऐसे शब्दों का प्रयोग किया था तो यह उनकी कूटनीतिक भूल थी। निश्चित रूप से इस प्रकार के शब्दों ने युद्ध को और निकट ला दिया था। यद्यपि हमें लगता नहीं कि उस समय ऐसी कोई घटना घटित हुई थी।

राजा भगवानदास की भी वही गति हुई

अकबर ने महाराणा प्रताप को समझा-बुझाकर अपने अधीन करने का तीसरा प्रयास अपने तीसरे दूतमंडल के माध्यम से 1573 ईस्वी में किया था। ‘अकबरनामा’ (भाग 3 पृष्ठ 89) के लेखक अबुल फजल के अनुसार “अकबर ने अपना तीसरा दूत मंडल 1573 ईस्वी में अहमदाबाद से राजा भगवान दास के नेतृत्व में ईडर के मार्ग से भेजा। उस दूतमंडल को यह स्पष्ट आदेश दिया गया था कि वह राणा के देश के विरोधी तत्वों को दबाते हुए उन्हें उचित दंड दे। राणा के साथ कैसा बर्ताव किया जाए ,संभवत: अकबर यह बतलाना भूल गया था।”
इस दूतमंडल के बारे में मिले इस उल्लेख की भाषा से स्पष्ट होता है कि इसमें महाराणा प्रताप को डराने – धमकाने की भाषा का भी अंश समाविष्ट था। इसमें ‘कठोर कार्यवाही’ के आदेश दिए गए थे। कहने का अभिप्राय है कि यदि महाराणा प्रताप प्यार से अकबर की अधीनता स्वीकार कर लें तो कोई बात नहीं अन्यथा उनके विरुद्ध शक्ति का भी प्रयोग किया जाए। महाराणा प्रताप ने इस दूतमंडल का अच्छा स्वागत सत्कार किया। जिससे राजा भगवानदास भी बहुत प्रसन्न हुए थे। इस सबके उपरांत भी महाराणा ने यह स्पष्ट कर दिया था कि उन्हें अपनी स्वाधीनता से कोई समझौता नहीं करना है। गोगुंदा में महाराणा प्रताप द्वारा राजा भगवानदास और उनके साथियों के किए गए इस स्वागत सत्कार के भाव से जिस प्रकार राजा भगवानदास स्वयं भी प्रसन्न हुए थे उससे स्पष्ट है कि महाराणा ने इससे पहले मानसिंह के साथ भी कोई दुर्व्यवहार नहीं किया होगा।
राजा भगवानदास ने अकबर से जाकर राजा मानसिंह जैसी शब्दावली का प्रयोग न करते हुए कहा कि महाराणा से संधि संभव है और वह शीघ्र ही मान जाएंगे। हमारा मानना है कि राजा भगवानदास ने सीधे – सीधे महाराणा प्रताप के स्पष्ट शब्दों को न बताकर घुमा – फिराकर बात को इसलिए कह दिया होगा की किसी भी प्रकार की युद्ध जैसी असहज स्थिति को इस समय टाला जाए। वह चाहते थे कि महाराणा प्रताप को अभी थोड़ा समय दिया जाए और इसी प्रकार अकबर को भी थोड़ा समय दिया जाए। हो सकता है देर सवेर महाराणा प्रताप समझ जाएं और बिना युद्ध के ही किसी अच्छे समाधान पर हम पहुंच जाएं।
इस घटना का विवरण ‘अकबरनामा’ में अबुल फजल ने इस प्रकार दिया है :-
“राणा कीका ने राजा मानसिंह के साथ किए गए अपने व्यवहार और शाही सेवा में उपस्थित होने में विलंब होने पर खेद प्रकट किया और कहा कि दुर्भाग्य के कारण मेरे मन में गलत विचार घर कर गए थे। जिसकी वजह से इस तरह की बात हुई। अब मैं उसकी भरपाई के लिए अपने पुत्र अमर सिंह को बतौर धरोहर के रूप में भिजवा कर अर्जी भेज रहा हूं कि जैसे ही मेरा मन शांत हो जाएगा वैसे ही मैं स्वयं बादशाह की सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा।”

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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