ब्राम्हण सम्मेलन से बाम्हणों की शक्ति घटेगी* *हिन्दुत्व व राष्ट की चिंता करने से ही ब्राम्हण प्रणाम के पात्र रहेंगे*

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आचार्य श्री विष्णुगुप्त

दिल्ली की सड़कों पर ब्राम्हण सम्मेलन का बोर्ड चर्चा में है। ब्राम्हण सम्मेलन में शामिल होने वाले राजनेताओं में सांसद मनोज तिवारी, घनश्याम तिवाडी, अरविन्द्र शर्मा और केन्द्रीय मंत्री अश्विनी चैबे जैसे हैं। ये सभी भाजपा के हैं, इन सभी को वोट देने वाले सिर्फ ब्राम्हण ही नहीं होगें पर इनकी यह पहचान विश्लेषण के घेरे में जरूर है।
मेरा अनुभव अैर सोच कुछ ब्राम्हणों के जातिवाद पर कुछ अलग ही है। कोई विद्वान और नैतिक ब्राम्हण कभी भी जातिवादी नहीं हो सकता है और न ही जातिवाद करेगा। ब्राम्हण का अर्थ होता है सर्वश्रेष्ठ और मुक्ति का मार्ग दिखाने वाला। कालांतर में यह कार्य ब्राम्हण बहुत ही दक्षता के साथ किये हैं, हमारी जो संस्कृति बची है उसमें ब्राम्हणों का योगदान सर्वश्रेष्ठ है।
एक राजनीतिक उदाहरण जानना जरूरी है। एक जिले में कई विधायक ब्राम्हण जाति से चुने जाते थे जबकि उनकी अपेक्षित संख्या भी नहीं थी। इसी दौरान परशुराम सेना का प्रवेश होता है। परषुराम सेना की सक्रियता और पहचान ब्राम्हण सेना के रूप में खड़ी होती है। दुष्परिणाम क्या होता है? हिन्दू के अन्य जातियों में आक्रोश होता है और उस जिले में एक भी ब्राम्हण जाति से आने वाले विधायक नहीं चुने जाते हैं। यह नुकसान ब्राम्हण जाति का सम्मेलन करने वाले देखते नहीं हैं, परशुराम सेना चलाने वाले देखते नहीं हैं।
एक शंकराचार्य थे स्वरूपानंद। स्वरूपानंद ब्राम्हण सम्मेलन कराते थे। घीरे-धीरे इनकी पहचान शंकराचार्य से घट कर ब्राम्हणाचार्य की हो गयी। इसलिए जब स्वरूपानंद बोलता था तब कुता भी नोटिस नहीं लेता था। आज भी शंकराचार्यो की अभिव्यक्ति को कौन सुनता है?
ब्राम्हण आज भी पूज्यनीय हैं। ब्राम्हण आज भी प्रणाम के पात्र हैं। ब्राम्हणों के पास ज्ञान है। सनातन की विरासत आपकी है, सनातन की रक्षा के लिए आपके पूर्वजों ने न जाने कितने सिर कटवाए थे, फिर भी सनातन पर आंच नहीं आने दी थी।
वे ब्राम्हण सम्मेलन की जगह हिन्दुत्व के संरक्षण में सक्रिय रहें तो फिर उनकी साथर्कता बची रहेगी और प्रणाम के पात्र बने रहेंगे। शेष आपको अपनी साथर्कता खोनी और अपनी राजनीतिक शक्ति खोनी है तो फिर मैं क्या कर सकता हूं।

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आचार्य श्री विष्णुगुप्त
नई दिल्ली

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