सांख्य की भाँति न्याय और वैशेषिक दर्शनों की भी परम्पराएँ बौद्धकाल से पहले ही विकसित हो चुकी थीं। इस बात के प्रचुर प्रमाण मिलते हैं। पूर्वोल्लिखित ‘वाकोवाक्य’ एवं ‘आन्वीक्षिकी’ इस बात के साक्ष्य हैं। इन दर्शनों का प्रादुर्भाव तत्त्व की खोज में उठनेवाले तर्क-वितर्क के फलस्वरूप हुआ। साथ ही विरोधी पक्षों द्वारा प्रस्तुत युक्तियों तथा संशयों द्वारा भी इन दर्शनों के विकास को काफी बल मिला। ‘न्याय’ दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम माने जाते हैं। उनकी कृति ‘न्याय-सूत्र’ छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व की रचना बताई जाती है गौतम का नाम भारतीय परम्परा का एक अति प्राचीन नाम है। पद्मपुराण और स्कन्दपुराण के अतिरिक्त महाभारत में भी उनका उल्लेख है। महाभारत के अनुसार गौतम मेधातिथि के नाम से भी प्रसिद्ध थे । प्रथम शताब्दी ईस्वी के महाकवि भास ने भी अपने ‘प्रतिमा नाटक’ में मेधातिथि का न्यायदर्शन के प्रणेता के रूप में उल्लेख किया है। उक्त मेधातिथि एवं न्यायसूत्र के रचयिता गौतम एक ही थे या दो भिन्न- भिन्न व्यक्ति थे, यह निर्णय करना सम्भव नहीं । इसी तरह वाल्मीकि रामायण में उल्लिखित अहल्या के पति गौतम, धर्मसूत्रकार गौतम एवं न्यायसूत्रकार गौतम तीनों एक ही व्यक्ति थे या अलग-अलग थे, यह कहना भी कठिन है । अन्य दर्शनों की भाँति न्याय का भी चरम लक्ष्य दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति है । परन्तु उसकी सृष्टि विशेष रूप से प्रतिपक्षियों के मत के खण्डन हेतु हुई थी। अतः ‘प्रत्यक्ष’, ‘अनुमान’, ‘अवमान’ तथा ‘शब्द’ नामक चार ‘प्रमाणों’ एवं ‘आत्मा’, ‘शरीर’, ‘इन्द्रिय’, ‘अर्थ’, ‘बुद्धि’, ‘मन’, ‘प्रवृत्ति’, ‘दोष’, ‘प्रेत्यभाव’, ‘फल’, ‘दुःख’ तथा ‘अपवर्ग’ नामक बारह ‘प्रमेयों’ की आधारशिला पर इस दर्शन की तर्क-वितर्क एवं तत्त्वविवेचन की एक जटिल प्रणाली खड़ी की गई है। आगे चलकर इसी दर्शन-प्रणाली ने, बाल की खाल निकालनेवाले ऊहापोहग्रस्त ब्राह्मणों और बौद्ध पण्डितों के वाद-विवाद में प्रमुख अस्त्र बनकर, प्रचण्ड वाक्-संग्राम खड़ा कर दिया !
‘वैशेषिक’ दर्शन भी बहुत-कुछ ‘न्याय’ जैसा ही है। दोनों में विशेष अन्तर यह है कि ‘न्याय’ में जहाँ ‘प्रमाण’ को प्रधानता दी गई है, वहाँ वैशेषिक में ‘प्रमेय’ को। वैशेषिक में ‘द्रव्य’, ‘गुण’, ‘कर्म’, ‘सामान्य’, ‘विशेष’ और
‘समवाय’ नामक छह पदार्थों तथा ‘पृथ्वी’,
‘जल’, ‘तेज’, ‘वायु’, ‘आकाश’, ‘काल’, ‘दिक्’, ‘आत्मा’ और ‘मन’ नामक छह द्रव्यों का निरूपण किया गया है। इस दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद थे। उनका असली नाम काश्यप था। उन्होंने इस दर्शन पर एक सूत्र-ग्रन्थ रचा था, जिसका परवर्ती ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है । कणाद के बाद इस दर्शन के प्रशस्तपाद नामक एक और महान् आचार्य हुए। उनका ‘पदार्थधर्मसंग्रह’ नामक ग्रन्थ वैशेषिक का प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है।