षड्दर्शनों में, अन्तिम दो को ‘मीमांसा’ के नाम से पुकारा गया है। इसका अभिप्राय केवल यही है कि इनका प्रादुर्भाव मूलतः वेदार्थ- विचार एवं धर्मतत्त्व-विवेचन के हेतु ही हुआ था । ‘पूर्व मीमांसा’ के उद्गाता जैमिनि और ‘उत्तर मीमांसा’ के महर्षि बादरायण व्यास माने गए हैं। ये दोनों महापुरुष कदाचित् समकालीन ही रहे होंगे। कारण, दोनों ही ने अपनी-अपनी कृतियों में एक-दूसरे का स्पष्ट उल्लेख किया है। वैसे इतिहासवेत्ताओं द्वारा जैमिनि का समय तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व माना गया है और बादरायण व्यास को उनसे प्राचीन बतलाया गया है। पूर्व मीमांसा दर्शन का आधारभूत ग्रन्थ ‘जैमिनि-सूत्र’ है। उसके ‘तत्त्वपाद’ नामक प्रथम अध्याय में ‘धर्म- जिज्ञासा’, ‘धर्म-लक्षण’, ‘धर्म-प्रामाण्य’ आदि का विवेचन किया गया है। महर्षि जैमिनि ने वेदों की अपौरुषेय वाणी एवं ‘शब्द’ प्रमाण पर विशेष बल दिया है। यह पूर्व मीमांसा का आधारभूत सिद्धान्त कहा जा सकता है । ‘उत्तर मीमांसा’ का आधारग्रन्थ बादरायणकृत ‘ब्रह्मसूत्र’ है। उसका उल्लेख पाणिनि ने ‘भिक्षुसूत्र’ के नाम से किया है। इस कृति में जगत्, जीव, माया तथा ब्रह्म की यथार्थ व्याख्या करके ‘अद्वैत वेदान्त’ का प्रतिपादन किया गया है। आगे चलकर आचार्य शङ्कर ने विस्तारपूर्वक इसी सिद्धान्त का विवेचन किया है। अतः उन्हीं की जीवन- प्रशस्ति के क्रम में इसका विशेष परिचय आप पा सकेंगे। ‘ब्रह्मसूत्र’ के रचयिता बादरायण व्यास और महाभारतकार महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास दोनों एक ही विभूति थे अथवा अलग-अलग व्यक्ति थे, इस सम्बन्ध में गहरा मतभेद है ।
षड्दर्शनों के प्रणेता हमारे तर्कशास्त्र, तत्त्वविज्ञान, मनोविज्ञान और अध्यात्मशास्त्र के आदि निर्माता कहे जा सकते हैं। उपर्युक्त दर्शनों का निर्माण करके, उन्होंने न केवल ज्ञान का विस्तार किया, बल्कि आत्यन्तिक दुःख की निवृत्ति के लिए सम्यक् विधान का भी प्रणयन कर दिया ! इस प्रकार, उन्होंने मनुष्य को अपनी प्रगति की यात्रा के पथ पर कई मंजिल आगे पहुँचा दिया ! इन तत्त्वचिन्तकों की देन को अमूल्य ही मानना होगा।
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