इस स्थिति की जानकारी जब महाराणा प्रताप के शुभचिंतक सरदारों को हुई तो उनमें परस्पर चर्चा होने लगी कि जगमाल का यहां उपस्थित न होने का कारण क्या है? महाराणा प्रताप के शुभचिंतक सरदारों और सामंतों को जब वास्तविकता का बोध हुआ तो उन्हें महाराणा उदय सिंह द्वारा लिए गए निर्णय अत्यंत आश्चर्य हुआ। सबने गंभीर चिंतन मंथन करने के पश्चात निर्णय लिया कि महाराणा प्रताप को ही मेवाड़ का राजा बनाया जाएगा। उन लोगों ने महाराणा प्रताप से वन जाने की इच्छा का परित्याग करने का अनुरोध किया और कहा कि जब तक हम महाराणा उदय सिंह का अंतिम संस्कार करके लौट नहीं आते हैं तब तक आप यहीं रहें। जब यह लोग महाराणा का उदय सिंह का अंतिम संस्कार करके लौटे तो उसके पश्चात दो प्रमुख सरदारों ने उठकर राणा के सिंहासन पर विराजमान जगमाल को उठाकर अलग बैठा दिया और महाराणा प्रताप को सिंहासन पर विराजमान कर दिया।
‘वीर विनोद’ में इस घटना का वर्णन इस प्रकार मिलता है “जिस समय राणा उदय सिंह का दाह संस्कार हो रहा था, उस समय ग्वालियर के राजा रामसिंह ने जगमाल के छोटे भाई सगर से सहज भाव से यह पूछ लिया कि कुंवर जगमाल कहां हैं ?
तब कुंवर सगर ने बताया कि स्वर्गीय महाराणा उन्हें अपना उत्तराधिकारी बना गए हैं, इसलिए उनका अभी यहां उपस्थित होना संभव नहीं है। इस बात को सुनकर कुछ सरदार तो बहुत ही बिगड़े और कहने लगे, महाराणा यह क्या कर गए हैं? अनीति है, यह राजवंश की परंपरा के विरुद्ध है। इससे घर में ही बखेड़ा हो जाएगा। फिर ऐसे समय में जब अकबर जैसा प्रबल शत्रु सामने हो जगमाल क्या उससे निपट लेगा? नहीं, …. नहीं, हम ऐसा अन्याय कभी नहीं होने देंगे।
दाह क्रिया पूर्ण होने के पश्चात राव किशनदास ने कुछ सरदारों के सहयोग से राणा जगमाल को हाथ पकड़कर सिंहासन से उतार दिया। उसी समय 28 फरवरी 1572 ईस्वी को प्रताप को मेवाड़ के राज सिंहासन पर बैठा दिया। उपस्थित सभी सरदारों ने नए महाराणा प्रताप सिंह को नजराने पेश कर उनको शासक स्वीकार कर लिया।”
भारत की राज-परंपरा और प्रताप सिंह
वास्तव में मेवाड़ के सरदारों, सामंतों और मंत्रिमंडल के सदस्यों के द्वारा लिया गया यह निर्णय पूर्णतया न्याय संगत था। एक तो राणा राज परिवार की परंपरा के अनुसार महाराणा अपने पिता राणा उदय सिंह के स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे। दूसरे, अबसे पूर्व कई युद्धों में जीत प्राप्त करके महाराणा अपनी योग्यता भी सिद्ध कर चुके थे। तीसरे, महाराणा शासन में आने से पहले ही जनता के बीच लोकप्रिय भी हो चुके थे। भील समाज के लोग तो उन्हें पहले ही अपना नेता मान चुके थे। इसके अतिरिक्त चौथी बात यह थी कि अकबर जैसे शत्रु का सामना करने के लिए उस समय महाराणा प्रताप का राजा बनना देश , काल और परिस्थिति की अनिवार्यता थी।
इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि जब – जब किसी राजा ने लोकमत की उपेक्षा करके अपना उत्तराधिकारी मोहवश नियुक्त किया है, तब- तब उसका अच्छा परिणाम नहीं आया है। रामायण काल में अपनी कैकेयी नाम की रानी के दुराग्रह के चलते राजा दशरथ को अपना लिया हुआ निर्णय बदलना पड़ा तो परिणाम अच्छा नहीं आया । इसी प्रकार महाभारत में पुत्रमोह में अंधे होकर धृतराष्ट्र ने अपने पुत्र दुर्योधन को राजा बनाया तो उसका परिणाम भी बड़ा घातक रहा। पुत्र मोह लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक होता है। भारत के प्राचीन लोकतांत्रिक मूल्यों में इस प्रकार के निर्णयों को कहीं पर भी स्थान नहीं दिया गया है और इन्हें बहुत ही हेय दृष्टि से देखा गया है। यही कारण था कि मेवाड़ के राणा उदय सिंह द्वारा लिए गए निर्णय को भी उनके मंत्रिमंडल के सभी सदस्य और सरदार सामंत आदि अनुचित मान रहे थे। इसीलिए उन्होंने समय रहते उस अनुचित निर्णय को परिवर्तित कर दिया।
स्वामी आनंद बोध सरस्वती जी ने अपनी पुस्तक “महाराणा प्रताप” में इस घटना के संबंध में लिखा है कि – “राज्यारोहण के समय चारों ओर से स्वागत हर्ष ध्वनि, महाराणा प्रताप सिंह की जय आदि की शीर्ष ध्वनि से आकाश गूंज उठा। तोपों की सलामी हुई। शहनाइयां बजने लगी। उदयपुर के राज महल की ऊंची अटारी के शिखर पर राजपूतों की विजय ध्वजा सूर्य पताका लहराने लगी।
अतः चुंडावत सरदार कृष्ण सिंह या किशन सिंह ने नए राणा के सिर पर राजच्छत्र की छाया की तथा अन्य सरदारों ने चंवर हिलाया। यह सब देखकर जगमाल चुप ही रहा। राज्य के अमीर उमरावों ने यह बड़ी ही बुद्धिमानी का काम किया कि बिना किसी लड़ाई झगड़े के राणा प्रताप सिंह को सिंहासन पर बैठा दिया। सचमुच ही में मेवाड़ को राणा प्रताप सिंह की आवश्यकता थी।”
राष्ट्र, राष्ट्रवाद और महाराणा प्रताप की प्रतिज्ञा
राष्ट्र के उत्थान और कल्याण के लिए हर काल में तेजस्वी शासक की आवश्यकता होती है। कमजोर और दब्बू नेतृत्व कभी भी राष्ट्र का कल्याण नहीं कर सकता। ऐसे शासक के शासनकाल में जनता भी दुखी रहती है। राष्ट्र का मनोबल बनाए रखने के लिए और राष्ट्रवासियों के भीतर राष्ट्रवाद की भावना को मजबूत कर राष्ट्रीय एकता को कोई तेजस्वी शासक ही मजबूत कर सकता है। यह सारे गुण उस समय केवल महाराणा प्रताप सिंह के भीतर ही दिखाई दे रहे थे। अपने राज्यारोहण के पश्चात महाराणा प्रताप सिंह ने वहां उपस्थित लोगों के समक्ष उस समय अपना ओजस्वी भाषण दिया। अपने उस भाषण में उन्होंने वह सारी रूपरेखा प्रस्तुत कर दी थी जिसे वह अपने राजा रहते हुए लागू करने वाले थे। उनके इस भाषण ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि वह मेवाड़ और भारतवर्ष के लोगों की अपेक्षाओं पर किस प्रकार खरा उतर सकते हैं?
उन्होंने अपने पहले भाषण में ही स्पष्ट कर दिया था कि वह अपनी माता के दूध को लजाएंगे नहीं। अपने देश के सम्मान के लिए हर वह कार्य करेंगे जो उन्हें करना चाहिए। कुछ लोगों ने काल्पनिक आधार पर उनकी प्रतिज्ञा में यह भी जोड़ दिया है कि वह जब तक चित्तौड़ को नहीं ले लेंगे तब तक भूमि पर ही शयन करेंगे और सोने चांदी के पात्रों में भोजन नहीं करेंगे। अब इन सब बातों को नई शोधों के आधार पर काल्पनिक मान लिया गया है। हां, इतना अवश्य है कि महाराणा प्रताप ने उस समय अपने कुल, अपनी (आर्य क्षत्रिय ) जाति, अपने देश और अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास करने का विश्वास लोगों को दिलाया था और उन जैसे वीर योद्धा के द्वारा इतना कहना ही पर्याप्त था।
उस समय महाराणा प्रताप ने यह स्पष्ट कर दिया था कि “श्रीमन ! हम सब परमात्मा को साक्षी मानकर सच्चे मन से प्रतिज्ञा करते हैं कि अपने देश को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त करने के लिए हम अपना सर्वस्व यहां तक कि स्त्री ,पुत्र तक भेंट करने को तैयार हैं। जब तक मातृभूमि को स्वतंत्र न करा लेंगे, और जब तक दिल्ली से यवनों की जड़ें न उखाड़ फेंकेंगे, तब तक सारे सुख भोग हमारे लिए हराम हैं। हमें पूरा पूरा विश्वास है कि हम लोग अवश्य सफल होंगे।”
राणा ने संकल्प लिया हम भारत के विश्वास बनें,
अपनी भारत माता के हित धरती और आकाश बनें।
जब तक भी रगों में रक्त रहे और दिलों में धड़कन,
भारत के खिलने मुस्काने का हम हरदम उल्लास बनें।।
पाठक वृंद ! महान वही होता है जो अपने कुल ,अपने समाज, अपने देश ,अपने राष्ट्र ,अपने धर्म और अपनी संस्कृति के लिए सर्वस्व समर्पित करने के प्रति संकल्पित होता है। जो इन सबकी उन्नति के लिए अपने आपको समर्पित कर देता है , वही महान होता है। जो स्वयं को इन सबके सेवक के रूप में प्रस्तुत करता है ,वही महान होता है। जो इन सबको अपने जीवन का आदर्श मानकर चलता है ,वह भी महान होता है। इसके विपरीत जो इन के विनाश के लिए कार्य करता है, उसे कभी भी महान नहीं कहा जा सकता। मानवता के मूल्यों की हत्या करने के लिए जिसकी तलवार चलती हो, वह भी कभी महान नहीं हो सकता। जो किसी विशेष वर्ग , संप्रदाय अथवा मजहब के लोगों का उत्थान और दूसरे के अधिकारों का शोषण करता हो, वह भी महान नहीं हो सकता। महानता और हीनता इन दोनों के बीच के अंतर को समझकर हम महाराणा प्रताप और मुगल शासक अकबर में से कौन सा महान था ? इस प्रश्न का उत्तर खोज सकते हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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